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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 44/ मन्त्र 6
    ऋषिः - पुरुमीळहाजमीळहौ सौहोत्रौ देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नू नो॑ र॒यिं पु॑रु॒वीरं॑ बृ॒हन्तं॒ दस्रा॒ मिमा॑थामु॒भये॑ष्व॒स्मे। नरो॒ यद्वा॑मश्विना॒ स्तोम॒माव॑न्त्स॒धस्तु॑तिमाजमी॒ळ्हासो॑ अग्मन् ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । नः॒ । र॒यिम् । पु॒रु॒ऽवीर॑म् । बृ॒हन्त॑म् । द॒स्रा॒ । मिमा॑थाम् । उ॒भये॑षु । अ॒स्मे इति॑ । नरः॑ । यत् । वा॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । स्तोम॑म् । आव॑न् । स॒धऽस्तु॑तिम् । आ॒ज॒ऽमी॒ळ्हासः॑ । अ॒ग्म॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू नो रयिं पुरुवीरं बृहन्तं दस्रा मिमाथामुभयेष्वस्मे। नरो यद्वामश्विना स्तोममावन्त्सधस्तुतिमाजमीळ्हासो अग्मन् ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु। नः। रयिम्। पुरुऽवीरम्। बृहन्तम्। दस्रा। मिमाथाम्। उभयेषु। अस्मे इति। नरः। यत्। वाम्। अश्विना। स्तोमम्। आवन्। सधऽस्तुतिम्। आजऽमीळ्हासः। अग्मन् ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 44; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे दस्राऽश्विना यदाजमीळ्हासो नरो ! वां सधस्तुतिमग्मन्त्स्तोममावँस्तेभ्यो नोऽस्मभ्यं युवां पुरुवीरं बृहन्तं रयिं मिमाथाम्। यदुभयेष्वस्मे श्रीर्नु वर्द्धेत ॥६॥

    पदार्थः

    (नु) सद्यः (नः) अस्मभ्यम् (रयिम्) (पुरुवीरम्) बहवो वीरा यस्मात्तम् (बृहन्तम्) महान्तम् (दस्रा) दुःखोपक्षयितारौ (मिमाथाम्) विधत्तम् (उभयेषु) राजप्रजाजनेषु (अस्मे) अस्मासु (नरः) नायकाः (यत्) ये (वाम्) युवाम् (अश्विना) सूर्य्याचन्द्रमसाविव शुभगुणयुक्तौ (स्तोमम्) प्रशंसाम् (आवन्) प्राप्नुयामः (सधस्तुतिम्) सहकीर्त्तिम् (आजमीळ्हासः) येऽजान् विद्यया सिञ्चन्ति तदपत्यानि (अग्मन्) प्राप्नुवन्ति ॥६॥

    भावार्थः

    हे राजमुख्याऽमात्यौ ! भवन्तौ सूर्य्याचन्द्रवदस्मासु वर्तेथाम्। पुष्कलां श्रियं स्थापयत यतो वयं धनाढ्या स्याम ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (दस्रा) दुःख के नाश करनेवाले (अश्विना) सूर्य्य और चन्द्रमा के सदृश श्रेष्ठ गुणों से युक्त (यत्) जो (आजमीळ्हासः) बकरों को विद्या से सिञ्चन करनेवालों के पुत्र (नरः) नायकजन ! (वाम्) आप दोनों को और (सधस्तुतिम्) साथ कीर्त्ति को (अग्मन्) प्राप्त होते और (स्तोमम्) प्रशंसा को (आवन्) हम प्राप्त होते हैं उन (नः) हम सब लोगों के लिये आप दोनों (पुरुवीरम्) बहुत वीर हों जिससे उस (बृहन्तम्) बड़े (रयिम्) धन को (मिमाथाम्) धारण करो जिससे (उभयेषु) दोनों राजा और प्रजा जनों में (अस्मे) हम लोगों में लक्ष्मी (नु) शीघ्र बढ़े ॥६॥

    भावार्थ

    हे राजन् और मुख्य मन्त्रीजनो ! आप दोनों सूर्य्य और चन्द्रमा के सदृश हम लोगों में वर्त्ताव कीजिये और बहुत लक्ष्मी को स्थापित कीजिये, जिससे हम लोग धन से युक्त होवें ॥६॥

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    विषय

    प्राणायाम व सम्मिलित प्रार्थना

    पदार्थ

    [१] (अस्मे) = हमारे (उभयेषु) = दोनों में पुरुमीढ = व अजमीढों में रहनेवाली (पुरुवीरम्) = अत्यन्त वीरतावाली (बृहन्तम्) = वृद्धि की कारणभूत (रयिम्) = सम्पत्ति को (नु) = निश्चय से, हे (दत्रा) = दुःखों का उपक्षय करनेवाले प्राणापानो ! (नः मिमाथाम्) = हमारे लिए बनाओ। हमें वह सम्पत्ति प्राप्त कराओ, जो कि पुरुमीढ व अजमीढों रहा करती है जो सम्पत्ति हमें वीर बनाती है व हमारी वृद्धि का कारण बनती है। [२] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (नरः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोग (यद्) = जब (वाम्) = आपके (स्तोमम्) = स्तवन का (आवन्) = अपने में रक्षण करते हैं, उस समय (आजमीढासः) = गति के द्वारा सब बुराइयों को दूर करके सुखों का सेचन करनेवाले [भ्रज गतिक्षेपणयोः, मिह सेचने] ये लोग (सधस्तुतिम्) = मिलकर उपासनावृत्ति को (अग्मन्) = प्राप्त होते हैं। ये लोग परिवार में सब के सब एकत्रित होकर प्रभु की उपासनावाले बनते हैं। सब प्राणायाम करते हैं और मिलकर प्रभु का गायन करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्राणायाम करें और मिलकर प्रभु का स्तवन करें। इसी से पुरुवीर बृहन् रयि को प्राप्त करेंगे ।

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    विषय

    जितेन्द्रिय स्त्री पुरुष के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (दस्रा) परस्पर के कष्टों को दूर करने वाले (अश्विना) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (अस्मे) हमारी वृद्धि और कल्याण के लिये (उभयेषु) राजा प्रजा वा स्त्री-वर्ग और पुरुष-वर्ग दोनों के निमित्त (पुरुवीरं) बहुत से वीरों वा पुत्रों से युक्त (बृहन्तं रयिं नु मिमाथाम्) बहुत बड़ा ऐश्वर्य उत्पन्न करो । (यत्) क्योंकि (आजमीढासः नरः) ‘अज’ अर्थात् अविनाशी आत्माओं में वा दुष्ट वृत्तियों को परे फेंकने चाले जितेन्द्रियों में मेघ तुल्य ज्ञान की वृष्टि करने वाले विद्वान् लोग (वाम्) तुम दोनों के लिये (स्तोमं) उत्तम उपदेश (आवन्) करते और (सह स्तुतिं आ अग्मन्) एक साथ ही स्तुति उपदेश, धर्म आदि का विधान करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुरुमीळ्हाजमीळहौ सौहोत्रावृषी। अश्विनौ देवते । छन्द:- १, ३, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । भुरिक् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा व मुख्यमंत्री ! तुम्ही दोघे सूर्य व चंद्राप्रमाणे आमच्याबरोबर वागा. पुष्कळ धन मिळवा, ज्यामुळे आम्ही धनाने युक्त व्हावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashivns, destroyers of evil and misery, brilliant as the sun and gracious cool as the moon, give us the wealth of life comprising brave children, great and vast prosperity for all of us, rulers as well as the people, since the leaders of the nation offer you songs of adoration and teachers of the people shower you with words of prayer in praise of Divinity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of State officials is elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O destroyers of all miseries, the virtuous king and prime minister! you are like the sun and the moon and lead men who are the children of the diffusers of truth. They praise you both gladly, and love glorifying you. Give us great wealth which can maintain many heroes, so that glory and wealth may grow among the rulers and their subjects.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king and prime minister ! be benevolent to us like the sun and the moon. Give us ample wealth, so that we may become rich.

    Foot Notes

    (अश्विना ) सूर्याचन्द्रमसाविव शुभगुणयुक्तौ । तत्कावश्विनौ । द्यावापृथिव्यावित्येके । सूर्याचन्द्रमसावित्येके (NKT 12, 1, 1)। = Virtuous like the sun and the moon. (आजमीड्हासः ) येऽसान् विद्यया सिंचति तदपत्यानि अजान् = नित्यजीवान् । मिह सेचने । = The children of those who spread knowledge among eternal souls (reputed ones. Ed.).

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