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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सुतम्भर आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    तम॑ध्व॒रेष्वी॑ळते दे॒वं मर्ता॒ अम॑र्त्यम्। यजि॑ष्ठं॒ मानु॑षे॒ जने॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । अ॒ध्व॒रेषु॑ । ई॒ळ॒ते॒ । दे॒वम् । मर्ताः॑ । अम॑र्त्यम् । यजि॑ष्ठम् । मानु॑षे । जने॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमध्वरेष्वीळते देवं मर्ता अमर्त्यम्। यजिष्ठं मानुषे जने ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। अध्वरेषु। ईळते। देवम्। मर्ताः। अमर्त्यम्। यजिष्ठम्। मानुषे। जने ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तेमव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    ये मर्त्ता अध्वरेषु मानुषे जने तममर्त्यं यजिष्ठं देवमग्निमिव स्वप्रकाशं परमात्मानमीळते ते हि पुष्कलं सुखमश्नुवते ॥२॥

    पदार्थः

    (तम्) (अध्वरेषु) अहिंसनीयेषु धर्म्येषु व्यवहारेषु (ईळते) स्तुवन्ति (देवम्) दिव्यगुणम् (मर्त्ताः) मनुष्याः (अमर्त्यम्) स्वरूपतो नित्यम् (यजिष्ठम्) अतिशयेन सङ्गन्तारम् (मानुषे) (जने) ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये मनुष्या अग्न्यादिपदार्थमिव पदार्थविद्यां गृह्णन्ति ते सर्वतः सुखिनो जायन्ते ॥२॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (मर्ताः) मनुष्य (अध्वरेषु) नहीं नाश करने योग्य धर्मयुक्त व्यवहारों में (मानुषे) विचारशील (जने) जन में (तम्) उस (अमर्त्यम्) स्वरूप से नित्य (यजिष्ठम्) अतिशय मेल करनेवाले (देवम्) श्रेष्ठ गुणवाले अग्नि के सदृश स्वयं प्रकाशित परमात्मा की (ईळते) स्तुति करते हैं, वे ही बहुत सुख का भोग करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य अग्नि आदि पदार्थ के सदृश पदार्थविद्या को ग्रहण करते हैं, वे सब प्रकार सुखी होते हैं ॥२॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे अग्नी इत्यादी पदार्थाप्रमाणे पदार्थविद्येचे ग्रहण करतात ती सर्व प्रकारे सुखी होतात. ॥ २ ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That refulgent immortal divine fire bearing rich gifts, loved and most loving among the human community, the mortals light, serve and worship in creative, productive and holiest projects of yajna, love and non-violence in the service of the Lord and humanity.

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