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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 3/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तव॑ श्रि॒ये म॒रुतो॑ मर्जयन्त॒ रुद्र॒ यत्ते॒ जनि॑म॒ चारु॑ चि॒त्रम्। प॒दं यद्विष्णो॑रुप॒मं नि॒धायि॒ तेन॑ पासि॒ गुह्यं॒ नाम॒ गोना॑म् ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । श्रि॒ये । म॒रुतः॑ । म॒र्ज॒य॒न्त॒ । रुद्र॑ । यत् । ते॒ । जनि॑म । चारु॑ । चि॒त्रम् । प॒दम् । यत् । विष्णोः॑ । उ॒प॒ऽमम् । नि॒ऽधायि॑ । तेन॑ । पा॒सि॒ । गुह्यम् । नाम॑ । गोना॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव श्रिये मरुतो मर्जयन्त रुद्र यत्ते जनिम चारु चित्रम्। पदं यद्विष्णोरुपमं निधायि तेन पासि गुह्यं नाम गोनाम् ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव। श्रिये। मरुतः। मर्जयन्त। रुद्र। यत्। ते। जनिम। चारु। चित्रम्। पदम्। यत्। विष्णोः। उपऽमम्। निऽधायि। तेन। पासि। गुह्यम्। नाम। गोनाम् ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे रुद्र ! यो मरुतस्तव श्रिये मर्जयन्त ते यच्चारु चित्रं पदं जनिम तन्मर्जयन्त यत्त्वया विष्णोरुपमं गोनां गुह्यं नाम निधायि तेन ताँस्त्वं पासि तस्मात् सत्कर्त्तव्योऽसि ॥३॥

    पदार्थः

    (तव) (श्रिये) लक्ष्म्यै (मरुतः) मनुष्याः (मर्जयन्त) शोधयन्तु (रुद्र) दुष्टानां रोदयितः (यत्) (ते) तव (जनिम) जन्म (चारु) सुन्दरम् (चित्रम्) अद्भुतम् (पदम्) प्राप्तव्यम् (यत्) (विष्णोः) व्यापकस्येश्वरस्य (उपमम्) (निधायि) ध्रियेत (तेन) (पासि) (गुह्यम्) (नाम) (गोनाम्) इन्द्रियाणां किरणानां वा ॥३॥

    भावार्थः

    हे राजँस्तेनैव तव जन्मसाफल्यं भवेद्येन त्वमीश्वरवत्पक्षपातं विहाय प्रजाः पालयेः ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (रुद्र) दुष्टों के रुलानेवाले ! जो (मरुतः) मनुष्य (तव) आपकी (श्रिये) लक्ष्मी के लिये (मर्जयन्त) शुद्ध करें (ते) आपका (यत्) जो (चारु) सुन्दर (चित्रम्) अद्भुत (पदम्) प्राप्त होने योग्य (जनिम) जन्म उसको शुद्ध करें और (यत्) जो आप (विष्णोः) व्यापक ईश्वर का (उपमम्) उपमायुक्त और (गोनाम्) इन्द्रियों वा किरणों का (गुह्यम्) गुप्त (नाम) नाम (निधायि) धारण करें (तेन) इसी हेतु से उनका आप (पासि) पालन करते हो, इससे सत्कार करने योग्य हो ॥३॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! इसी से आपके जन्म का साफल्य होवे, जिससे आप ईश्वर के सदृश पक्षपात का त्याग करके प्रजाओं का पालन करो ॥३॥

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    विषय

    कन्या के पितावत् राजा के कर्त्तव्य

    भावार्थ

    भा०—हे (रुद्र) दुष्टों को रुलाने वाले, उनको भस्मसात् करने और उनको मर्यादा में रोक रखने हारे तेजस्विन्! जिस प्रकार ( मरुतः अग्नेः चित्तं जनिम श्रिये मर्जयन्त ) वायुगण अग्नि के अद्भुत रूप को और अधिक शोभा वा कान्ति की वृद्धि के लिये अधिक प्रदीप्त कर देते हैं उसी प्रकार ( मरुतः ) विद्वान् और वायुवद् बलवान् पुरुष ( यत् ते ) जो तेरा ( चारु) सुन्दर ( चित्रम् ) अद्भुत ( जनिम ) जन्म या देह है उसको ( श्रिये) ऐश्वर्य, शोभा की वृद्धि के लिये और अधिक (मर्जयन्त ) अभिषेक, अलंकार आदि द्वारा शुद्ध पवित्र और अलंकृत करें। (यत्) जिस कारण ( ते पदम् ) तेरा पद, ( विष्णोः उपमं) व्यापक, तेजस्वी सूर्य और वायु के तुल्य ( निधायि ) निहित है इस कारण ( तेन ) उस पद या अधिकार से तू ( गोनाम् गुह्यं ) किरणों के गुप्त रूप को सूर्यवत् और मेघस्थ जलधाराओं के गुप्त रूप को आकाशस्थ वायु के तुल्य ही ( गोनाम् ) भूमियों और उनमें बसी प्रजाओं के (गुह्यं नाम ) गुप्त, वश-कारक बल को ( पासि ) पालन कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुश्रुत आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ निचृत्पंक्तिः। ११ भुरिक् पंक्ति: । २, ३, ५, ६, १२ निचृत्-त्रिष्टुप् । ४, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराट् त्रिष्टुप् ७, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    शुद्ध हृदय में प्रभु की श्री का निवास

    पदार्थ

    [१] हे (रुद्र) = सब रोगों का द्रावण करनेवाले प्रभो ! (तव श्रिये) = आपका आश्रय करने के लिये, आपकी श्री को प्राप्त करने के लिये (मरुतः) = प्राणसाधना करनेवाले पुरुष (मर्जयन्त) = अपने जीवन का शोधन करते हैं। अपवित्र जीवनवाले को तो आपकी श्री ने क्या प्राप्त होना ? हे इन्द्र ! (यत्) = जो (ते) = आपका (जनिम) = प्रादुर्भाव व विकास है, हृदयों में जो आपकी ज्योति का देखना है, वह चारु अत्यन्त सुन्दर है और (चित्रम्) अद्भुत है, हमारे ज्ञान को बढ़ानेवाला है [चित्र] । [२] (यत्) = जब (विष्णोः) = उस सर्वव्यापक प्रभु का (उपमं पदम्) = वह सर्वोच्च [highest] ज्ञान [ पद गतौ, गति =ज्ञान] (निधायि) = हृदय में स्थापित किया जाता है, तो हे प्रभो ! तेन उस ज्ञान से (गोनाम्) = इन ज्ञान की वाणियों के साथ सम्बद्ध (गुह्यं नाम) = हृदयस्थ नम्रता की भावना को (पासि) = आप रक्षित करते हैं। आप ज्ञान देते हैं, ज्ञान से उत्पन्न होनेवाली नम्रता को प्राप्त कराते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हृदयों को शुद्ध करते हुए प्रभु की श्री को प्राप्त करते हैं। प्रभु हमें ज्ञान व नम्रता को प्राप्त कराते हैं। प्रभु का स्तोता 'ज्ञानी व नम्र' होता है ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा! जेव्हा तू ईश्वराप्रमाणे भेदभावाचा त्याग करून प्रजेचे पालन करशील तेव्हा तुझा जन्म सफल होईल. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, you are Rudra, lord of justice and dispensation. For your honour and excellence vibrant people come to you and anoint you and glorify the beautiful and wonderful name that is yours. The office of Vishnu, protector and sustainer, is vested in you, by that you protect and maintain the secret name and identity of the lights of stars.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a ruler are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Rudra (chastiser of the wickeds) ! good brave men purify you for attaining prosperity. They purify your wonderful and beautiful birth or body, which is to be acquired or achieved. Protect them with that secret name or subduing power of the senses which you have established in you being just like Omnipresent God. Therefore, you are worthy of veneration.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! as you protect your subjects being impartial like God, then only your emergence or birth will be considered to be successful and useful, and not otherwise.

    Foot Notes

    (मरुतः ) मनुष्याः । मरुतः मितविणो वा ऽमितरोचिनो वा महद् द्रवन्तीति वा (NKT 17, 2, 14) = Men (पदम् ) प्राप्तव्यम् । पद-गतौ । गतेस्त्रिष्यर्थेष्वत्र प्राप्त्यर्थग्रहणम् = Worthy of attainment. (गोनाम् ) इन्द्रियाणां किरणानां वा गौरिति वाङ्नाम (NG 1, 11 ) वागादीनि क्रियाणि । = Of the senses or rays of the sun.

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