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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 3/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो न॒ आगो॑ अ॒भ्येनो॒ भरा॒त्यधीद॒घम॒घशं॑से दधात। ज॒ही चि॑कित्वो अ॒भिश॑स्तिमे॒तामग्ने॒ यो नो॑ म॒र्चय॑ति द्व॒येन॑ ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । नः॒ । आगः॑ । अ॒भि । एनः॑ । भरा॑ति । अधि॑ । इत् । अ॒घम् । अ॒घऽशं॑से । द॒धा॒त॒ । ज॒हि । चि॒कि॒त्वः॒ । अ॒भिऽश॑स्तिम् । ए॒ताम् । अ॒ग्ने॒ । यः । नः॒ । म॒र्चय॑ति । द्व॒येन॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो न आगो अभ्येनो भरात्यधीदघमघशंसे दधात। जही चिकित्वो अभिशस्तिमेतामग्ने यो नो मर्चयति द्वयेन ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। नः। आगः। अभि। एनः। भराति। अधि। इत्। अघम्। अघऽशंसे। दधात। जहि। चिकित्वः। अभिऽशस्तिम्। एताम्। अग्ने। यः। नः। मर्चयति। द्वयेन ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनश्चौर्य्याद्यपराधनिवारणप्रजापालनराजधर्ममाह ॥

    अन्वयः

    हे चिकित्वोऽग्ने ! यो न आग एनोऽभि भराति तस्मिन्नघशंसे योऽघमिदधि दधात यो द्वयेन नोऽस्मान् मर्चयति। एतामभिशस्तिं विधत्ते तं त्वं जही ॥७॥

    पदार्थः

    (यः) (नः) अस्माकम् (आगः) अपराधम् (अभि) (एनः) पापम् (भराति) धरति (अधि) (इत्) (अघम्) किल्विषम् (अघशंसे) स्तेने (दधात) दध्यात् (जही) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (चिकित्वः) विज्ञानवन् (अभिशस्तिम्) अभितो हिंसाम् (एताम्) (अग्ने) पावक इव महीपते (यः) (न) अस्मान् (मर्चयति) बाधते (द्वयेन) पापापराधाभ्याम् ॥७॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! ये प्रजादूषकाः स्युस्तान् सदैव दण्डय, ये श्रेष्ठाचारा भवेयुस्तान् मानय ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर चोरी आदि अपराधनिवारण प्रजापालन राजधर्म को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (चिकित्वः) विज्ञानवान् (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रतापी पृथिवी के पालनेवाले ! (यः) जो (नः) हम लोगों के (आगः) अपराध और (एनः) पाप को (अभि, भराति) सन्मुख धारण करता है उस (अघशंसे) चोरीरूप कर्म में जो (अघम्) पाप (इत) ही को (अधि, दधात) अधिस्थापन करे और (यः) जो (द्वयेन) पाप और अपराध से (नः) हम लोगों को (मर्चयति) बाधता है और (एताम्) इस (अभिशस्तिम्) सब ओर से हिंसा को करता है, उसका आप (जही) त्याग कीजिए ॥७॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जो प्रजा को दोष देनेवाले होवें, उनको सदा ही दण्ड दीजिये और जो श्रेष्ठ आचरण करनेवाले होवें, उनको मानो अर्थात् सत्कार करो ॥७॥

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    विषय

    राजा का रुद्ररूप

    भावार्थ

    भा०- (यः) जो पुरुष (नः) हमारे बीच में (एनः ) अपराध ( अभि भराति) करे राजा ( अघशंसे ) उस पापाचारण करने वाले चौर पुरुष पर (अवम् अधि दधात) खूब कठोर दण्ड दे । हे (चिकित्वः) तत्वज्ञ, राज्य से रोगों के तुल्य दुष्टों को दूर करने हारे ! (नः) हमारे बीच (यः) जो भी (द्वयेन ) बाहर और भीतर, प्रकाश और अप्रकाश दोनों रीति से ( नः मर्चयति ) हमें पीड़ित करता है तू उनकी ( एताम् अभिशस्ति ) इस प्रकार सब ओर की हिंसा वा फौजदारी को ( जहि ) दण्डित कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुश्रुत आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ निचृत्पंक्तिः। ११ भुरिक् पंक्ति: । २, ३, ५, ६, १२ निचृत्-त्रिष्टुप् । ४, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराट् त्रिष्टुप् ७, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अघशंस में अक्ष का धारण

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो पुरुष (नः अभि) = हमारे प्रति (आग: एनः) = अपराध को व पाप को भराति करता है, तो उस अपराध व पाप से होनेवाले (अघम्) = कष्ट को [ evil, harm] (इत्) = निश्चय से (अधशंसे) = इस अघ की कामना करनेवाले पुरुष में ही, हमें कष्ट देने की कामनावाले में ही (अधिदधात) = आधिक्येन धारण करिये। कोई भी व्यक्ति किसी आगस् व एनस् के द्वारा [अपराध व पाप के द्वारा] हमें कष्ठ पहुँचाने का प्रयत्न करता है तो यह कष्ट उसी अघशंस पुरुष को प्राप्त हो। [२] हे (चिकित्वः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (एताम्) = इस (अभिशस्तिम्) = [hurt, injury, attack] हानि व कष्ट के आक्रमण को जहि विनष्ट करिये । हे (अग्ने) = प्रभो ! (यः) = जो (नः) = हमें (द्वयेन मर्चयति) = आगस् व एनस् के दोनों के द्वारा बाधित व पीड़ित करता है उसे भी जहि हमारे से दूर करिये, विनष्ट करिये। हम उसके आगस् व एनस् का शिकार न हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपराध व शाप जनित कष्टों का पात्र न बनें। बुरा चाहनेवाले को ही कष्ट प्राप्त हो ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा! जे प्रजेला दोष देतात त्यांना नेहमी दंड द्यावा व जे श्रेष्ठ आचरण करणारे असतात त्यांचा सन्मान करावा. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Whoever commits sin and crime against us, may Agni, lord ruler and dispenser of justice, turn that sin and crime upon the sinner and calumniator. May the lord of light and knowledge, Agni, silence that imprecation, whoever be the person that hurts us with double dealing, sin and scandal.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a king with regard to the protection of the subjects and checking the crimes are highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned king ! shining like the fire, you kill the evil-doer thief who commits offence or a sin against us, and troubles us by sin and offence. Give due punishment to him who resorts to violence in this manner.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! punish those wicked persons who give trouble to or spoil the people. Honor those who are of good character and conduct.

    Foot Notes

    (अभिशस्तिम्) अभितो हिंसाम् । अभि + शसु - हिंसायाम् (भ्वा.) । = Violence from all sides. (मर्चंयति) बाधते । यद्यपि धातुपाठे मर्चशब्दार्थः पठितस्तथाप्यत्र प्रकरणवशाद् बाधनार्थे इति महर्षिदयानन्दवत् साबणाचा यदि योsपि । अनेकाथी धातवः । = Troubles, teases. (द्वयेन) पापापराधाभ्याम् । = Both by sin and crime.

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