ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 60/ मन्त्र 6
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतो वाग्निश्च
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यदु॑त्त॒मे म॑रुतो मध्य॒मे वा॒ यद्वा॑व॒मे सु॑भगासो दि॒वि ष्ठ। अतो॑ नो रुद्रा उ॒त वा॒ न्व१॒॑स्याग्ने॑ वि॒त्ताद्ध॒विषो॒ यद्यजा॑म ॥६॥
स्वर सहित पद पाठयत् । उ॒त्ऽत॒मे । म॒रु॒तः॒ । म॒ध्य॒मे । वा॒ । यत् । वा॒ । अ॒व॒मे । सु॒ऽभ॒गा॒सः॒ । दि॒वि । स्थ । अतः॑ । नः॒ । रु॒द्राः॒ । उ॒त । वा॒ । नु । अ॒स्य॒ । अग्ने॑ । वि॒त्तात् । ह॒विषः॑ । यत् । यजा॑म ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदुत्तमे मरुतो मध्यमे वा यद्वावमे सुभगासो दिवि ष्ठ। अतो नो रुद्रा उत वा न्व१स्याग्ने वित्ताद्धविषो यद्यजाम ॥६॥
स्वर रहित पद पाठयत्। उत्ऽतमे। मरुतः। मध्यमे। वा। यत्। वा। अवमे। सुऽभगासः। दिवि। स्थ। अतः। नः। रुद्राः। उत। वा। नु। अस्य। अग्ने। वित्तात्। हविषः। यत्। यजाम ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 60; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे सुभगासो रुद्रा मरुतो ! यूयं यदुत्तमे मध्यमे वावमे यद्वान्यत्रावमे दिवि वा स्थ तत्रातो नोऽस्मानुत्तमे व्यवहारे स्थापयत। उत वा हे अग्नेऽस्य वित्ताद्धविषो यन्नु वयं यजाम तत्र त्वमपि यजस्व ॥६॥
पदार्थः
(यत्) यत्र (उत्तमे) [उत्तमे] व्यवहारे (मरुतः) मनुष्याः (मध्यमे) मध्यस्थे (वा) (यत्) यत्र (वा) (अवमे) निकृष्टे (सुभगासः) उत्तमैश्वर्याः (दिवि) शुद्धे व्यवहारे (स्थ) भवत (अतः) अस्मात् कारणात् (नः) अस्मान् (रुद्राः) मध्यस्था विद्वांसः (उत) (वा) (नु) (अस्य) (अग्ने) पावकवत् प्रकाशितात्मन् (वित्तात्) (हविषः) भोक्तुमर्हात् (यत्) यम् (यजाम) प्रेरयेम ॥६॥
भावार्थः
ये मनुष्या उत्तममध्यमकनिष्ठेषु व्यवहारेषु यथावद्वर्त्तित्वोत्तमैश्वर्या जायन्ते तान् सर्वे सत्कुर्य्युः ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को परस्पर कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सुभगासः) उत्तम ऐश्वर्य्यवाले और (रुद्राः) मध्यस्थ विद्वान् (मरुतः) मनुष्यो ! आप लोग (यत्) जिस (उत्तमे) उत्तम व्यवहार में (मध्यमे) मध्यस्थ व्यवहार में (वा) वा (अवमे) निकृष्ट व्यवहार में (यत्) जहाँ (वा) अथवा अन्यत्र निकृष्ट व्यवहार में (दिवि) शुद्ध व्यवहार में (स्थ) हूजिये वहाँ (अतः) इस कारण से (नः) हम लोगों को उत्तम व्यवहार में स्थापित कीजिये (उत, वा) और अथवा हे (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रकाशित आत्मावाले ! (अस्य) इसके (वित्तात्) धन से और (हविषः) भोग करने योग्य से (यत्) जिसको (नु) निश्चय हम लोग (यजाम) प्रेरणा करें, वहाँ आप भी प्रेरणा करिये ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ व्यवहारों में यथायोग्य वर्त्ताव करके उत्तम ऐश्वर्य्यवाले होते हैं, उनका सब लोग सत्कार करें ॥६॥
विषय
सन्तोष का उपदेश ।
भावार्थ
भा०—हे ( मरुतः ) वायुवत् बलवान् वीर, ज्ञानी पुरुषो ! आप लोग जो ( यत् उत्तमे यत् मध्यमे यत् वा अवमे ) जो, उत्तम, मध्यम और निकृष्ट (दिवि ) व्यवहार वा काम्य कर्मों में, या पदों या स्थानों पर ( स्थ ) रहते हो वहां भी आप लोग ( सु-भगासः) उत्तम ऐश्वर्यवान् होकर रहो । ( हे रुद्राः उत वा हे अग्ने) हे दुष्टों को रुलाने वालो ! और हे अग्नि के समान तेजस्विन् नायक ! हम लोग ( यत् यजाम ) जो कुछ दें वा आप लोगों का आदर सत्कार करें आप लोग ( अस्य हविषः ) इस देने योग्य अन्न आदि को (नु) सदा ( नः वित्तात् ) हमारा आदर पूर्वक स्वीकर करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो मरुतो वाग्निश्च देवता ॥ छन्द:- १, ३, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप । विराट् त्रिष्टुप् । ७, ८ जगती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'उत्तम मध्यम अवम' द्युलोक
पदार्थ
[१] हे (मरुतः) = प्राणो! आप (यत्) = जो (उत्तमे दिवि) = सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मज्ञान के प्रकाश में, (मध्यमे वा) = जीव के कर्त्तव्यों के ज्ञान के प्रकाश में (यद् वा) = अथवा जो (अवमे दिवि) = इस अपर प्रकृति के ज्ञान के प्रकाश में ष्ठ- कारणरूप से स्थित होते हो, इससे (सुभगास:) = जीवन को आप उत्तम ज्ञानैश्वर्यवाला बनाते हो। [२] (अतः) = इसलिए हे (रुद्राः) = प्राणो ! (उत वा) = अथवा (अग्ने) = हे अग्रणी प्रभो! आप (नु) = निश्चय से (अस्य वित्तात्) = इसको जानिये, अर्थात् इस बात का ध्यान करिये (यत्) = कि हम (हविष: यजाम) = सदा हवि का अपने साथ मेल करें। प्राणसाधना व प्रभु-स्मरण के द्वारा हमारा जीवन यज्ञमय बने । हम हवि से कभी दूर न हों। वस्तुतः इस हवि से ही तो सच्चा प्रभु-पूजन होना है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना ही 'प्रकृति, जीव व परमात्मा' के ज्ञान में साधन बनती है। प्राणसाधना व प्रभु-स्मरण ही हमारे जीवन को यज्ञमय बनाते हैं। 'ब्रह्मज्ञान' उत्तम द्युलोक है, 'जीवविज्ञान' मध्यम द्युलोक है और 'प्रकृति विज्ञान' ही अवम द्युलोक है ।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ व्यवहारात यथायोग्य वागून उत्तम ऐश्वर्यवान होतात त्यांचा सर्व लोकांनी सत्कार करावा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Maruts, creators of prosperity, honour and excellence, and Rudras, leading lights of justice and rectitude, and Agni, leading light of knowledge, whether you abide in the highest, or middle or the lowest regions of life and action, or in the light of heaven, establish us in right knowledge and action of the transparent order, and know of our action and homage which we offer to Divinity in our life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men deal with one another is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! you have observed Brahmacharya up to the age of 36 or 44 years and who are endowed with good wealth, whether you are in the highest, middle or the low dealing, establish us in good dealings and conduct. O man of illumined soul ! like the fire, you also perform Yajna from the wealth and oblations of this devotee.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All men should respect those persons who behave properly in all kinds of dealings, whether very high, middle or low, and become prosperous.
Foot Notes
(दिवि ) शुद्धे व्यवहारे। = In pure dealing. (हविपः ) भोक्तुमर्हति । हु-दानादनयोः आदाने च ( जु० ) । अत्र आदानार्थग्रहणम् । अद्-भक्षणे ( अदा० ) = Worth eating. (अग्ने) पावकवत्प्रकाशितात्मन् । अग्निः कस्मादणीर्भवति (NKT 7, 4, 15) = Illumined soul like the fire.
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