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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 81/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सत्यश्रवा आत्रेयः देवता - उषाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    विश्वा॑ रू॒पाणि॒ प्रति॑ मुञ्चते क॒विः प्रासा॑वीद्भ॒द्रं द्वि॒पदे॒ चतु॑ष्पदे। वि नाक॑मख्यत्सवि॒ता वरे॒ण्योऽनु॑ प्र॒याण॑मु॒षसो॒ वि रा॑जति ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वा॑ । रू॒पाणि॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ते॒ । क॒विः । प्र । अ॒सा॒वी॒त् । भ॒द्रम् । द्वि॒ऽपदे॑ । चतुः॑ऽपदे । वि । नाक॑म् । अ॒ख्य॒त् । स॒वि॒ता । वरे॑ण्यः । अनु॑ । प्र॒ऽयान॑म् । उ॒षसः॑ । वि । रा॒ज॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वा रूपाणि प्रति मुञ्चते कविः प्रासावीद्भद्रं द्विपदे चतुष्पदे। वि नाकमख्यत्सविता वरेण्योऽनु प्रयाणमुषसो वि राजति ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वा। रूपाणि। प्रति। मुञ्चते। कविः। प्र। असावीत्। भद्रम्। द्विऽपदे। चतुःऽपदे। वि। नाकम्। अख्यत्। सविता। वरेण्यः। अनु। प्रऽयानम्। उषसः। वि। राजति ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 81; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यः कविर्वरेण्यः सवितेश्वरो द्विपदे चतुष्पदे भद्रं प्रासावीत्। विश्वा रूपाणि प्रति मुञ्चते नाकं व्यख्यत् स यथोषसोऽनु प्रयाणं सूर्यो वि राजति तथा सूर्य्यादिकं प्रकाशयति तं सर्वे यूयमुपाध्वम् ॥२॥

    पदार्थः

    (विश्वा) सर्वाणि (रूपाणि) सूर्यादीनि (प्रति) (मुञ्चते) त्यजति (कविः) सर्वेषां क्रान्तप्रज्ञः सर्वज्ञः (प्र) (असावीत्) उत्पादयति (भद्रम्) कल्याणम् (द्विपदे) मनुष्याद्याय (चतुष्पदे) गवाद्याय (वि) (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् (अख्यत्) ख्याति प्रकाशयति (सविता) सकलैश्वर्य्यप्रदः (वरेण्यः) वरितुमर्हः (अनु) (प्रयाणम्) (उषसः) (वि) (राजति) प्रकाशते ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! येन जगदीश्वरेण विचित्रं विविधं जगत्सर्वेषां प्राणिनां सुखाय निर्मितं तमेव यूयं भजध्वम् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य ! जो (कविः) सर्व पदार्थों का जाननेवाला सर्वज्ञ (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य और (सविता) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्यों का देनेवाला ईश्वर (द्विपदे) मनुष्य आदि और (चतुष्पदे) गौ आदि के लिये (भद्रम्) कल्याण को (प्र, असावीत्) उत्पन्न करता और (विश्वा) सम्पूर्ण (रूपाणि) सूर्य्य आदिकों का (प्रति, मुञ्चते) त्याग करता है तथा (नाकम्) नहीं विद्यमान दुःख जिसमें उसका (वि, अख्यत्) प्रकाश करता है, वह जैसे (उषसः) प्रातःकाल के (अनु, प्रयाणम्) पीछे गमन को सूर्य्य (वि, राजति) विशेष करके शोभित करता है, वैसे सूर्य्य आदि को प्रकाशित करता है, उसकी तुम सब उपासना करो ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस जगदीश्वर ने विचित्र और अनेक प्रकार के जगत् को सम्पूर्ण प्राणियों के सुख के लिये रचा, उसी जगदीश्वर की आप लोग उपासना करो ॥२॥

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    विषय

    जगद्-उत्पादक, जगत्पालक, सर्वसम्राट्, पापनाशन ।

    भावार्थ

    भा०- ( कविः ) सबसे अधिक बुद्धि वाला, परमज्ञानवान् परमेश्वर ( विश्वा रूपाणि ) समस्त रूपवान् पदार्थों को ( प्रतिमुञ्चते ) प्रतिक्षण धारण करता है । वह ही, (द्विपदे ) दोपाये और ( चतुष्पदे ) चौपाये अर्थात् समस्त जीवों के हित के लिये ( भद्रं ) सुखजनक, जगत् को ( प्र प्रसावीत् ) उत्पन्न करता है । वह ही ( सविता ) समस्त जगत् का उत्पादक पिता, ( नाकम् वि अख्यत् ) दुःख से रहित सुख को प्रकट करता है, वह ( वरेण्यः ) सबसे श्रेष्ठ, वरने योग्य, उत्तम मार्ग में ले जाने हारा (उषसः प्र-याणम् अनु ) उषाकाल के गमन के पश्चात् उगने वाले सूर्य के समान और ( उषसः प्रयाणम् अनु ) शत्रु को दग्ध करने वाली सेना के प्रयाण करने के बाद सिंहासन पर विराजने वाले सम्राट् के समान (उषसः प्रयाणम् अनु ) सब पापों को भस्म कर देने वाली विशेष प्रज्ञा के उत्तम रीति से प्राप्त होने के अनन्तर ( अनु विराजति ) उत्तरोत्तर हृदय में प्रकाशित होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ सविता देवता ॥ छन्द: – १, ५ जगती । २ विराड् जगती । ४ निचृज्जगती । ३ स्वराट् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'सर्वाधार' व 'भद्र प्रसविता'

    पदार्थ

    [१] (कविः) = वह सर्वज्ञ प्रभु (विश्वारूपाणि) = सब रूपों को, रूपवाले पदार्थों को (प्रतिमुञ्चते) =[आत्मनिबध्नाति-धारयति] अपने में धारण करता है, वह प्रभु ही सर्वाधार हैं। वे ही (द्विपदे) = दो पाँवाले मनुष्यों के लिये और (चतुष्पदे) = चौपाये पशुओं के लिये (भद्रम्) = कल्याणकर पदार्थों को (प्रासावीत्) उत्पन्न करते हैं। सब पदार्थ कल्याणकर हैं। उनका अयोग व अतियोग ही अकल्याणकर हेतु होता है। [२] वह सविता उत्पादक व प्रेरक प्रभु ही (वरेण्यः) = वरणीय है। प्रकृति के वरण से प्रभु का वरण ही श्रेष्ठ है। वे प्रभु अपना वरण करनेवालों के लिये नाक-मोक्षलोक को (वि अख्यत्) = प्रकाशित करते हैं। (उषसः प्रयाणं अनु) = उषा के प्रकृष्ट यान के अनुसार वे प्रभु (विराजति) = हमारे जीवन दीप्त होते हैं। जितना जितना उषा के समय करने योग्य कार्यों को हम ठीक प्रकार करते हैं, उतना उतना ही प्रभु की दीप्ति को अपने हृदयों में देखनेवाले बनते हैं। सूर्य उषा के प्रयाण के बाद उदित होता है। ठीक इसी प्रकार हमारे जीवन में भी उषा के आने के बाद प्रभु आते हैं। उषा के आने का भाव यही है कि अज्ञानान्धकार आदि दोषों का दग्ध होना [उष दाहे] ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु सर्वाधार हैं। सब के लिये भद्र पदार्थों को उत्पन्न करते हैं। मोक्ष लोक को प्रकाशित करते हैं। हमारे जीवन उषा के चुकने पर दीप्त होते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ज्या जगदीश्वराने विचित्र व विविध प्रकारच्या जगाला संपूर्ण प्राण्यांच्या सुखासाठी निर्माण केलेले आहे. त्याच जगदीश्वराची उपासना करा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The omniscient creator, eternal poet and maker, creates and pervades all forms of existence and produces all good things for the well being of humans and animals. He, Savita, creator and energiser, lord of love worthy of our choice, manifests and illuminates the heaven of light and joy, inspires the rise of the dawn with light and rules and shines the sun and after.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of yogis is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should all adore that God who is Omniscient, Most Acceptable, Creator of the world, Bringer of good for the quadrupeds and tripods, and Remover of their troubles. It is He, who is the shaper of all forms of the sun and other objects. He illuminates the State of perfect Bliss, where there is no misery. As the sun shines after the departure of the dawn, so He is the illuminator of the sun and other luminaries. He alone is worthy of worship.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

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    Foot Notes

    (रूपाणि) सूर्यादीनि । = The forms of the sun etc. (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् । कमिति सुखनाम (NG 3, 6) अकम्-दुःखम् । न + अकम् = सर्वथा दु:खरहितम् । = The state of Perfect Bliss where there is no misery. ( अख्यत्) ख्याति-प्रकाशयति । ख्या-प्रकथने । अत्र प्रकथनं -प्रकशनम्। = Illuminates.

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