ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 81/ मन्त्र 4
उ॒त या॑सि सवित॒स्त्रीणि॑ रोच॒नोत सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॒ समु॑च्यसि। उ॒त रात्री॑मुभ॒यतः॒ परी॑यस उ॒त मि॒त्रो भ॑वसि देव॒ धर्म॑भिः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । या॒सि॒ । स॒वि॒त॒रिति॑ । त्रीणि॑ । रो॒च॒ना । उ॒त । सूर्य॑स्य । र॒श्मिऽभिः॑ । सम् । उ॒च्य॒सि॒ । उ॒त । रात्री॑म् । उ॒भ॒यतः॑ । परि॑ । ई॒य॒से॒ । उ॒त । मि॒त्रः । भ॒व॒सि॒ । दे॒व॒ । धर्म॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत यासि सवितस्त्रीणि रोचनोत सूर्यस्य रश्मिभिः समुच्यसि। उत रात्रीमुभयतः परीयस उत मित्रो भवसि देव धर्मभिः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठउत। यासि। सवितरिति। त्रीणि। रोचना। उत। सूर्यस्य। रश्मिऽभिः। सम्। उच्यसि। उत। रात्रीम्। उभयतः। परि। ईयसे। उत। मित्रः। भवसि। देव। धर्मऽभिः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 81; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे सवितर्देव ! यस्त्वमुत त्रीणि रोचना यास्युत सूर्य्यस्य रश्मिभिः समुच्यसि। उतोभयतो रात्रीं परीयस उत धर्म्मभिर्मित्रो भवसि स त्वमस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥४॥
पदार्थः
(उत) अपि (यासि) प्राप्नोषि (सवितः) सकलजगदुत्पादक (त्रीणि) सूर्य्याचन्द्रविद्युदाख्यानि (रोचना) प्रकाशकानि (उत) (सूर्य्यस्य) (रश्मिभिः) किरणैः (सम्) (उच्यसि) वदसि (उत) (रात्रीम्) (उभयतः) (परि, ईयसे) (उत) (मित्रः) सखा (भवसि) (देव) विद्वन् (धर्मभिः) धर्म्माचरणैः ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यस्सर्वेश्वरस्त्रीन् विद्युत्सूर्य्याचन्द्रान् महतो दीपान्निर्माय सर्वत्र व्याप्तः सर्वस्य सुहृत् सन् सूर्य्यादीनभिव्याप्य धृत्वा प्रकाशयति स एव सर्वथा पूज्योऽस्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सवितः) सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न करनेवाले (देव) विद्वन् ! जो आप (उत) निश्चय से (त्रीणि) सूर्य्य, चन्द्रमा और बिजुली नामक (रोचना) प्रकाशकों को (यासि) प्राप्त होते (उत) और (सूर्य्यस्य) सूर्य की (रश्मिभिः) किरणों से (सम्, उच्यसि) उत्तम प्रकार कहते हो (उत) और (उभयतः) दोनों ओर से (रात्रीम्) अन्धकार को (परि, ईयसे) दूर करते हो (उत) और (धर्म्मभिः) धर्म्माचरणों से (मित्रः) मित्र (भवसि) होते हो, वह आप हम लोगों से सत्कार करने योग्य हो ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो सब का स्वामी, ईश्वर तीन-बिजुली, सूर्य्य और चन्द्रमा रूप बड़े दीपों को रच के सर्वत्र व्याप्त और सब का मित्र हुआ और सूर्य्य आदि को अभिव्याप्त हो और धारण कर के प्रकाशित करता है, वही सब प्रकार पूज्य है अर्थात् उपासना करने योग्य है ॥४॥
विषय
सबका आद्यन्त । सर्वमित्र ।
भावार्थ
भा०- ( उत) और हे ( सवितः ) जगत् के उत्पन्न करने हारे प्रभो ! तू ( त्रीणि रोचना ) तीनों प्रकाशमान् सूर्य, विद्युत, अग्नि इनमें ( यासि ) व्याप्त है, तू ( सूर्यस्य ) सूर्य की ( रश्मिभिः ) किरणों के साथ भी ( सम् उच्यसि ) विद्यमान है । ( उत ) और तू ही सूर्यवत् ( रात्री ) महा प्रलय रात्रि को (उभयतः परीयसे) दोनों ओर से व्यापता है, उसके आदि में भी तू और अन्त में भी तू, जगत् का उत्पादक और संहारक भी तू ही है । ( उत ) और तू ही हे ( देव ) सर्वप्रकाशक ! सर्वदातः ! ( धर्मभिः ) जगत् को धारण करने वाले बलों से, कानूनों और नियमों से राजा के तुल्य ( मित्रः भवसि ) सबका स्नेही, सबको मृत्यु से बचाने हारा है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ सविता देवता ॥ छन्द: – १, ५ जगती । २ विराड् जगती । ४ निचृज्जगती । ३ स्वराट् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
जन्माद्यस्य यतः
पदार्थ
[१] हे (सवितः) सकल जगत् के उत्पादक प्रभो! आप (उत) = निश्चय से (त्रीणि रोचना) = 'सूर्य, विद्युत् व अग्नि' रूप तीनों दीप्तियों को यासि प्राप्त करते हो । वस्तुतः इन तीनों दीप्त पिण्डों में आपकी ही दीप्ति काम करती है। (उत) = और आप (सूर्यस्य) = सूर्य की (रश्मिभिः) = किरणों से (समुच्यसि) = समवेत होते हैं, इन सूर्य किरणों में सब प्राणशक्ति को आप ही स्थापित करते हैं। [२] (उत) = और (रात्रीम्) = रात्री को, प्रलयकालीन रात्री को (उभयतः) = दोनों ओर से (परीयसे) = व्याप्त करते हैं। इस रात्रि के प्रारम्भ में भी आप ही होते हैं, अर्थात् इस रात्री को लानेवाले आप ही हैं। सृष्टि का प्रलय आप ही करते हैं। और इस रात्रि की समाप्ति पर भी आप ही होते हैं । अर्थात् प्रलयकाल की समाप्ति पर आप ही फिर से सृष्टि का निर्माण करते हैं। (उत) = और सृष्टि के निर्माण के बाद, हे देव-सब व्यवहारों के साधक प्रभो! आप ही (धर्मभिः) = धारणात्मक कर्मों के द्वारा (मित्रः भवसि) = सब के मित्र होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ– 'सूर्य, विद्युत् व अग्नि' को प्रभु ही दीप्त करते हैं। सूर्य-किरणों में प्रभु ही प्राणशक्ति को स्थापित करते हैं। प्रभु ही इस सृष्टि का प्रलय, निर्माण व धारण करनेवाले हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! सर्वांचा स्वामी असलेल्या ईश्वराने विद्युत, सूर्य व चंद्रमारूपी तीन मोठे दीप निर्माण केलेले आहेत. तो सर्वत्र व्याप्त असून सर्वांचा मित्र आहे. सूर्य इत्यादीमध्येही व्याप्त होऊन धारण करून प्रकाशित करतो. तोच सर्वांचा पूज्य आहे. अर्थात, उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Savita, lord of light and life, you pervade and illuminate three orders of light, sun, moon and electric energy and love to play with the sun’s rays. You envelop the night at both ends and, with your laws and function, O lord self-refulgent, you become the friend and measure of everything.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of God is further elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God! Creator of the whole world, you pervade all the three luminaries i.e. the sun, the moon and lightning or electricity. You speak (so to speak) along the rays of the sun. You dispel the darkness from both sides of the night. With righteous observances, You become our Friend and Giver of Light.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! that One God is the Centre of worship who being the Lord of all, illuminates sun and other luminaries like the sun, moon and lightning, which are like big Candles pervade everywhere. He is the Friend of all, upholds and illuminates the sun and other objects.
Foot Notes
(त्रीणि) (रोचणा) सूर्य्य चन्द्रविद्युदाख्यानि। = The sun, moon and lightning.
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