ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
वेषि॒ ह्य॑ध्वरीय॒तामग्ने॒ होता॒ दमे॑ वि॒शाम्। स॒मृधो॑ विश्पते कृणु जु॒षस्व॑ ह॒व्यम॑ङ्गिरः ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठवेषि॑ । हि । अ॒ध्व॒रि॒ऽय॒ताम् । अग्ने॑ । होता॑ । दमे॑ । वि॒शाम् । स॒म्ऽऋधः॑ । वि॒श्प॒ते॒ । कृ॒णु॒ । जु॒षस्व॑ । ह॒व्यम् । अ॒ङ्गि॒रः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वेषि ह्यध्वरीयतामग्ने होता दमे विशाम्। समृधो विश्पते कृणु जुषस्व हव्यमङ्गिरः ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठवेषि। हि। अध्वरिऽयताम्। अग्ने। होता। दमे। विशाम्। सम्ऽऋधः। विश्पते। कृणु। जुषस्व। हव्यम्। अङ्गिरः ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे अङ्गिरोऽग्ने विश्पते विद्वन् ! यो हि होता त्वमध्वरीयतां विशां दमे वेषि स त्वं समृधः कृणु हव्यं जुषस्व ॥१०॥
पदार्थः
(वेषि) व्याप्नोषि (हि) यतः (अध्वरीयताम्) आत्मनोऽध्वरमिच्छताम् (अग्ने) पावक इव विद्वन् (होता) दाता (दमे) गृहे (विशाम्) प्रजानाम् (समृधः) सम्यगृद्धिमन्तः (विश्पते) प्रजास्वामिन् (कृणु) कुरु (जुषस्व) (हव्यम्) प्राप्तुं गृहीतुमर्हम् (अङ्गिरः) अङ्गानां मध्ये रसरूप ॥१०॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यथाग्निर्ऋत्विजां प्रजानां च कार्य्याणि साध्नोति तथैव विद्वांसः सर्वेषां प्रयोजनानि निष्पादयन्ति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसा वर्त्तना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अङ्गिरः) अङ्गों के मध्य में रसरूप (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी (विश्पते) प्रजा के स्वामिन् विद्वन् ! जो (हि) जिस कारण से (होता) दाता आप (अध्वरीयताम्) अपने अध्वर की इच्छा करते हुए (विशाम्) प्रजाजनों के (दमे) गृह में (वेषि) व्याप्त होते हो वह आप (समृधः) उत्तम प्रकार से ऋद्धिवाले (कृणु) करिये और (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य का (जुषस्व) सेवन करिये ॥१०॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे अग्नि यज्ञ करनेवालों और प्रजाओं के कार्य्यों को सिद्ध करता है, वैसे ही विद्वान् जन सब के प्रयोजनों को सिद्ध करते हैं ॥१०॥
विषय
विश्पति का स्वरूप ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) विद्वन् ! प्रभो ! तू ( अध्वरीयताम् विशाम् ) यज्ञ करने वाले प्रजाओं के ( दमे ) गृह में ( होता ) विद्वान् होता के समान दाता होकर ( वेषि ) प्रकाशित हो । ( विश्पते ) प्रजा के पालक ! त्तू उनको ( समृधः कृणु ) समृद्ध कर । और हे ( अङ्गिरः ) अग्निवत् तेजस्विन् ! तू ( हव्यम् ) अन्न आहुतिवत् ग्रहण करने योग्य ऐश्वर्य और अन्न आदि पदार्थ और स्तुत्य वचन को ( जुषस्व ) प्रेम से स्वीकार कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द्रः-१, ९ भुरिगुष्णिक् । २ स्वराडुष्णिक् । ७ निचृदुष्णिक् । ८ उष्णिक् । ३, ४ अनुष्टुप् । ५, ६, १० निचुदनुष्टुप् । ११ भुरिगतिजगती । एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
यज्ञशीलता व समृद्धि
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! (अध्वरीयताम्) = सदा यज्ञ की कामनावाली (विशाम्) = प्रजाओं के (दमे) = गृह में होता सब कुछ देनेवाले होते हुए आप (हि) = निश्चय से (वेषि) = प्राप्त होते हैं । [२] हे (विश्पते) = सब प्रजाओं के रक्षक प्रभो ! (समृधः कृणु) = हमारे लिये आप समृद्धियों को करिये। और (अंगिरः) = हमारे अंगों में रस का संचार करनेवाले आप (हव्यं जुषस्व) = हव्य पदार्थों का सेवन करिये। आपकी प्रेरणा से हम सदा यज्ञ करके यज्ञशेष का सेवन करनेवाले बनें। यह यज्ञशीलता ही समृद्धि का मार्ग है।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञशील बनें। प्रभु हमें सब आवश्यक समृद्धियों को प्राप्त करायेंगे ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! अग्नी जसे यज्ञ करणाऱ्यांचे व प्रजेचे कार्य पूर्ण करतो तसेच विद्वान लोक सर्वांचे प्रयोजन सिद्ध करतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Angira, vital fire of life pervading every limb of the body, breath of life vibrating in every part of the universe, eternal highpriest of cosmic yajna, enter, pervade and bless the home of the devotees conducting the yajna of love and non-violence. O lord protector and ruler of the people, make them prosperous, accept and enjoy their holy offering.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men deal is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned protector of the people ! you are like the Prana (vital breath), you of the persons who are performers of the non-violent sacrifices- pervade the home Yajnas make people prosperous, and accept this our present (gift. Ed.) which is worth taking (accepting. Ed.).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! as the fire accomplishes the works of the performers of the Yajnas and the people, likewise enlightened person accomplish the purposes of all.
Foot Notes
(समृधः) सम्यगृद्धिमन्तः । ऋधु-वृद्धौ (दिवा० ) । = Prosperous. (अङ्गिरः) अङ्गानां मध्ये रसरूप: । अङ्गिरा-प्राणोवा अङ्गिरा प्राणोऽङ्गनां रसरूपः । = (Stph 6, 1, 2, 28 )। = Like the sap of organs.
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