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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ऋध॒द्यस्ते॑ सु॒दान॑वे धि॒या मर्तः॑ श॒शम॑ते। ऊ॒ती ष बृ॑ह॒तो दि॒वो द्वि॒षो अंहो॒ न त॑रति ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋध॑त् । यः । ते॒ । सु॒ऽदान॑वे । धि॒या । मर्तः॑ । श॒शम॑ते । ऊ॒ती । सः । बृ॒ह॒तः । दि॒वः । द्वि॒षः । अंहः॑ । न । त॒र॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋधद्यस्ते सुदानवे धिया मर्तः शशमते। ऊती ष बृहतो दिवो द्विषो अंहो न तरति ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋधत्। यः। ते। सुऽदानवे। धिया। मर्तः। शशमते। ऊती। सः। बृहतः। दिवः। द्विषः। अंहः। न। तरति ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यो मर्त्तो धिया सुदानवे त ऋधच्छशमते स ऊती बृहतो दिवो द्विषोंऽहो न तरति ॥४॥

    पदार्थः

    (ऋधत्) ऋध्नुयात् समर्द्धयेत् (यः) (ते) तुभ्यम् (सुदानवे) उत्तमदानकर्त्रे (धिया) प्रज्ञया (मर्त्तः) मनुष्यः (शशमते) शाम्येत् (ऊती) ऊत्या रक्षादिकर्म्मणा (सः) (बृहतः) (दिवः) कामयमानान् (द्विषः) शत्रोः (अंहः) अपराधः (न) इव (तरति) ॥४॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या धर्म्मात्मभ्यः सुखप्रदाः स्युस्ते यथा धार्मिकाः पापं त्यजन्ति तथैव शत्रूनुल्लङ्घयन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (यः) जो (मर्त्तः) मनुष्य (धिया) बुद्धि से (सुदानवे) उत्तम दान करनेवाले (ते) आपके लिये (ऋधत्) उत्तम प्रकार ऋद्धि करे तथा (शशमते) शान्त हो (सः) वह (ऊती) रक्षण आदि कर्म्म से (बृहतः) बड़े (दिवः) कामना करते हुओं के (द्विषः) शत्रु का (अंहः) अपराध (न) जैसे वैसे (तरति) पार होता है ॥४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य धर्मात्मा जनों के लिये सुख देनेवाले होवें, वे जैसे धार्मिक जन पाप का नाश करते हैं, वैसे ही शत्रुओं का उल्लङ्घन करते हैं ॥४॥

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    विषय

    उसकी उपासना, प्रार्थना, स्तुति ।

    भावार्थ

    ( यः मर्तः ) जो मनुष्य ( सुदानवे ) उत्तम दानशील (ते) तेरे निमित्त स्वयं ( ऋधत् ) समृद्ध हो और ( घिया ) बुद्धि, ज्ञान और कर्म से ( ते शशमते ) तेरी ही स्तुति करता और तेरे लिये ही स्वयं शान्ति धारण करता है । हे प्रभो ! स्वामिन् ! ( सः ) वह ( ऊती ) तेरी रक्षा, और तेरे दिये ज्ञान सामर्थ्य से ( बृहतः ) बड़ी २ ( दिवः ) कामनाओं को, ( बृहतः दिवः ) बड़े २ लोकों को और ( बृहत: दिवः ) बड़े २ सूर्यो को और ( द्विषः ) शत्रुओं को भी ( अंहः न ) पाप के समान ( तरति ) पार कर जाता है, उनसे कहीं आगे बढ़ जाता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द्रः-१, ९ भुरिगुष्णिक् । २ स्वराडुष्णिक् । ७ निचृदुष्णिक् । ८ उष्णिक् । ३, ४ अनुष्टुप् । ५, ६, १० निचुदनुष्टुप् । ११ भुरिगतिजगती । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    धिया शशमते [कर्म द्वारा स्तवन]

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! वह (मर्तः) = मनुष्य ही (ऋधत्) = समृद्धि को प्राप्त करता है, (यः) = जो (सुदानवे ते) = उत्तम दानवाले [दा दाने] आपके लिये धिया बुद्धिपूर्वक कर्मों के द्वारा (शशमते) = स्तुति करनेवाला होता है। प्रभु ने किस प्रकाश 'शरीर, इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' को प्राप्त कराया है। इनका ठीक प्रयोग करते हुए, बुद्धिपूर्वक कार्यों को करते हुए, हम प्रभु का स्तवन करनेवाले बनते हैं । प्रभु का स्तवन यही है कि हम प्रभु से दिये गये साधनों का उचित प्रयोग करें। [२] (सः) = वह कर्मों द्वारा स्तुति करनेवाला मनुष्य (बृहतः दिवः) = महान् ज्ञान के द्वारा ऊती आपसे प्राप्त कराये गये रक्षण से (द्विष:) = सब द्वेष की भावनाओं को (तरति) = तैर जाता है। इस प्रकार तैर जाता है, (न) = जैसे कि (अंहः) = आरभनशील पापों को तैर जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- बुद्धिपूर्वक कर्मों के द्वारा ही प्रभु का स्तवन होता है। यह स्तोता महान् ज्ञान के द्वारा रक्षण को प्राप्त करके द्वेषों व पापों को तैर जाता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे धार्मिक लोक पापाचा नाश करतात तसे जी माणसे धार्मिक लोकांना सुख देतात ती शत्रूंचे उल्लंघन करतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The man who with his intelligence and holy action serves, worships and offers homage to you and thus promotes you, generous giver, he enjoys peace and prosperity under protection of the vast heaven and crosses over all hate and jealousy as well as sin and evil.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened person ! that mortal who supports you who is a liberal donor with his intellect and attains peace goes far beyond the men desiring worldly subjects like the sins of the foes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who are bestowers of happiness upon the righteous men, overcome their enemies as the righteous persons give up all falsehood.

    Foot Notes

    (ऋधत्) ऋध्नुयात्समर्द्धयेत् । ऋधु-वृद्धौ (दिवा० ) = Support, increase. (शशमते) शाम्येत् । शभु-उपशमे ( दिवा० )। = Have peace.

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