ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 38/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तं वो॑ धि॒या प॑र॒मया॑ पुरा॒जाम॒जर॒मिन्द्र॑म॒भ्य॑नूष्य॒र्कैः। ब्रह्मा॑ च॒ गिरो॑ दधि॒रे सम॑स्मिन्म॒हांश्च॒ स्तोमो॒ अधि॑ वर्ध॒दिन्द्रे॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठतम् । वः॒ । धि॒या । प॒र॒मया॑ । पु॒रा॒ऽजाम् । अ॒जर॑म् । इन्द्र॑म् । अ॒भि । अ॒नू॒षि॒ । अ॒र्कैः । ब्रह्म॑ । च॒ । गिरः॑ । द॒धि॒रे । सम् । अ॒स्मि॒न् । म॒हान् । च॒ । स्तोमः॑ । अधि॑ । व॒र्ध॒त् । इन्द्रे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वो धिया परमया पुराजामजरमिन्द्रमभ्यनूष्यर्कैः। ब्रह्मा च गिरो दधिरे समस्मिन्महांश्च स्तोमो अधि वर्धदिन्द्रे ॥३॥
स्वर रहित पद पाठतम्। वः। धिया। परमया। पुराऽजाम्। अजरम्। इन्द्रम्। अभि। अनूषि। अर्कैः। ब्रह्म। च। गिरः। दधिरे। सम्। अस्मिन्। महान्। च। स्तोमः। अधि। वर्धत्। इन्द्रे ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 38; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यथा यूयं ब्रह्मा वः परमया धिया तं पुराजामजरमिन्द्रञ्च प्रशंसत तथाऽर्कैरहमेनमभ्यनूषि। यथाऽस्मिन्निन्द्रे च महाँ स्तोमोऽधि वर्धद्यथा च भवन्तो विदुषां य गिरः संदधिरे तथा वयमनुष्ठेयम् ॥३॥
पदार्थः
(तम्) (वः) युष्माकम् (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (परमया) अत्युत्कृष्टयाऽत्युत्कृष्टेन वा (पुराजाम्) पूर्वजातम् (अजरम्) हानिरहितम् (इन्द्रम्) विद्युतम् (अभि) (अनूषि) स्तौमि (अर्कैः) सूर्यैः (ब्रह्मा) वेदम् (च) (गिरः) वेदवाचः (दधिरे) दधति (सम्) (अस्मिन्) (महान्) (च) (स्तोमः) श्लाघ्यगुणकर्मस्वभावः (अधि) (वर्धत्) वर्धते। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (इन्द्रे) परमैश्वर्ये ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या विद्वदुपदेशपुरुषार्थाभ्यां विद्युदादिविद्यायुक्तां प्रज्ञां स्वीकुर्वन्ति तेऽत्र श्लाघनीया भवन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! जैसे तुम (ब्रह्मा) वेद की और (वः) आप लोगों की (परमया) अत्यन्त उत्तम (धिया) बुद्धि वा कर्म से (तम्) उस (पुराजाम्) पहिले प्रकट हुए (अजरम्) जीर्ण होने से रहित (इन्द्रम्) बिजुली की भी प्रशंसा करो, वैसे (अर्कैः) सूर्य्यों से मैं इसकी (अभि, अनूषि) स्तुति करता हूँ और जैसे (च) भी (अस्मिन्) इस (इन्द्रे) अत्यन्त ऐश्वर्य्य में (च) भी (महान्) बड़ा (स्तोमः) प्रशंसा करने योग्य गुण कर्म्म, और स्वभाववाला (अधि, वर्धत्) बढ़ता है और जैसे आप विद्वानों की (गिरः) वेदवाणियों को (सम्) (दधिरे) उत्तम प्रकार धारण करते हैं, वैसे हम लोग अनुष्ठान करें ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य विद्वानों के उपदेश और पुरुषार्थ से बिजुली आदि की विद्यायुक्त बुद्धि की स्वीकार करते हैं, वे यहाँ स्तुति करने योग्य होते हैं ॥३॥
विषय
गुरु का आदर
भावार्थ
हे विद्वान् लोगो ! ( वः ) आप लोगों के बीच ( परमया ) सबसे उत्तम ( धिया ) बुद्धि और कर्म से युक्त ( पुराजाम् ) पूर्व उत्पन्न, ( अजरम् ) हानिरहित, ( इन्द्रम् ) ज्ञानप्रद गुरु को मैं ( अर्कैः ) आदर सत्कार योग्य उपचारों से (अभि अनूषि) साक्षात् स्तुति उपासना करूं । ( अस्मिन् ) इसके अधीन रहकर विद्वान् शिष्य जन ( ब्रह्म ) वेदज्ञान और ( गिरः च ) उपदेशयोग्य विद्या, वाणियों को ( दधिरे ) धारण करें । और (इन्द्रे अधि) उस विद्या-ऐश्वर्य के धारण करने कराने वाले गुरु की अध्यक्षता में ( स्तोमः ) उपदेश योग्य ज्ञान, वेदमय कोष, ( वर्धत् ) बड़ा भारी हो जाता है । ( २ ) वह परमेश्वर, परम शक्ति ज्ञान से सम्पन्न, सनातन, अजर, अमर है। उसकी मन्त्रों से स्तुति करूं । वह महान् बल, ज्ञान, ऐश्वर्य और वेद वाणियों, स्तुतियों को धारण करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, २, ३, ५, निचृत् त्रिष्टुप् । ४ त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'सब ज्ञानों व स्तोत्रों के आधार' प्रभु
पदार्थ
[१] (तम्) = उस (पुराजाम्) = सदा सृष्टि से पहले होनेवाले 'हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे' (अजरम्) = कभी जीर्ण न होनेवाले (इन्द्रं वः) [ ज्य: ] = तुझ परमैश्वर्यशाली प्रभु को (परमया धिया) = उत्कृष्ट बुद्धि के साथ, परतत्त्व का चिन्तन करनेवाली बुद्धि के साथ [परऽमीयते यथा] (अर्कैः) = स्तुति-साधन मन्त्रों के द्वारा (अभ्यनूषि) = मैं स्तुति करता हूँ। [२] (ब्रह्म च) = यह सम्पूर्ण वेदज्ञान (गिरः) = सब ज्ञान की वाणियाँ (अस्मिन्) = इस प्रभु में ही (संदधिरे) = धारण की जाती है। (च) = और (महान् स्तोमः) = यह महान् स्तुति समूह (इन्द्रे) = इस परमैश्वर्यशाली प्रभु में ही (अधिवर्धत्) = आधिक्येन वृद्धि को प्राप्त होता है। सम्पूर्ण ज्ञान व स्तुतियों का आधार प्रभु ही हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम बुद्धिपूर्वक किये गये स्तोत्रों द्वारा प्रभु का स्तवन करते हैं। सब ज्ञानों व स्तोत्रों का आधार प्रभु ही हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे विद्वानांचा उपदेश व पुरुषार्थ याद्वारे विद्युत इत्यादीच्या विद्यायुक्त बुद्धीचा स्वीकार करतात ती स्तुती करण्यायोग्य असतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For you all with the best and highest of mind and faith I proclaim and celebrate the ancient and unaging Indra, cosmic energy of the Divine with yajnic gifts of homage. The eternal consciousness of omniscience and the voice of the Vedas all resound in this cosmic medium and the mighty yajna of creation and evolution too renews, evolves and expands under this same Indra, divine energy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of whom should men serve―is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! living among you, I praise with respectful words, that preceptor, who is endowed with sublime intellect and good actions, who is advanced in age and free from decay in his intellectual powers. Living under this great teacher, endowed with the great wealth of wisdom, a pupil upholds the Vedic knowledge and all noble speeches. Under his guidance, the treasure of the Vedic knowledge grows day by day. I also praise electricity along with the sun, and other objects which possess great powers. I glorify Eternal and Decay less God with mantras, with good intellect and good actions. His glory is great.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who obtain intellect endowed with the knowledge of electricity and other objects by the teaching of the enlightened persons and their own exertion become admirable.
Foot Notes
(धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा । धीरिति प्रज्ञानाम (NG 3, 9) | धीरीति कर्मनाम (NG 2, 1)। = By intellect or action. (अनुषि) स्तौम । णु स्तुतौ (अदा०)। = Praise. (ब्रह्मा) वेदम् । वेदोब्रह्म (जैमिनीय० 4, 11, 4, 3 ) । = Veda.
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