ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स नो॑ वि॒भावा॑ च॒क्षणि॒र्न वस्तो॑र॒ग्निर्व॒न्दारु॒ वेद्य॒श्चनो॑ धात्। वि॒श्वायु॒र्यो अ॒मृतो॒ मर्त्ये॑षूष॒र्भुद्भूदति॑थिर्जा॒तवे॑दाः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । वि॒भाऽवा॑ । च॒क्षणिः॑ । न । वस्तोः॑ । अ॒ग्निः । व॒न्दारु॑ । वेद्यः॑ । चनः॑ । धा॒त् । वि॒श्वऽआ॑युः । यः । अ॒मृतः॑ । मर्त्ये॑षु । उ॒षः॒ऽभुत् । भूत् । अति॑थिः । जा॒तऽवे॑दाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो विभावा चक्षणिर्न वस्तोरग्निर्वन्दारु वेद्यश्चनो धात्। विश्वायुर्यो अमृतो मर्त्येषूषर्भुद्भूदतिथिर्जातवेदाः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठसः। नः। विभाऽवा। चक्षणिः। न। वस्तोः। अग्निः। वन्दारु। वेद्यः। चनः। धात्। विश्वऽआयुः। यः। अमृतः। मर्त्येषु। उषःऽभुत्। भूत्। अतिथिः। जातऽवेदाः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्जगदीश्वरः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो वस्तोश्चक्षणिरग्निर्न नो विभावो वेद्यो विश्वायुर्मर्त्येष्वमृत उषर्भुदतिथिरिव जातवेदा वन्दारु चनो धात्स नो मङ्गलकरो भूत् ॥२॥
पदार्थः
(सः) परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (विभावा) विशेषभानवान् (चक्षणिः) प्रकाशकः सूर्यः (न) इव (वस्तोः) दिनम् (अग्निः) पावक इव स्वप्रकाशः (वन्दारु) प्रशंसनीयम् (वेद्यः) वेदितुं योग्यः (चनः) अन्नादिकम् (धात्) दधाति (विश्वायुः) पूर्णायुः (यः) (अमृतः) नाशरहितः (मर्त्येषु) मरणधर्मेषु (उषर्भुत्) य उषसि बुध्यते (भूत्) भवेत् (अतिथिः) अविद्यमानतिथिः (जातवेदाः) यो जातेषु विद्यते जातान् सर्वान् वेत्ति वा ॥२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यो जगदीश्वरः सूर्य्यवत्स्वप्रकाशो वेदितुं योग्योऽजरामरोऽतिथिरिव सत्कर्त्तव्यः सर्वत्र व्याप्तोऽस्ति तं सर्वे उपासीरन् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर जगदीश्वर कैसा है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यः) जो (वस्तोः) दिन और (चक्षणिः) प्रकाशक सूर्य और (अग्निः) अग्नि के सदृश स्वयं प्रकाशयुक्त (न) जैसे वैसे (नः) हम लोगों के बीच (विभावा) अत्यन्त प्रकाशवाला और (वेद्यः) जानने योग्य (विश्वायुः) पूर्णावस्थावाला (मर्त्येषु) मरणधर्मयुक्त मनुष्यों में (अमृतः) नाशरहित और (उषर्भुत्) प्रातःकाल में जाना जाता है ऐसा और (अतिथिः) जिसके प्राप्त होने की कोई तिथि विद्यमान नहीं उसके समान वर्त्तमान और (जातवेदाः) उत्पन्न हुओं में विद्यमान वा उत्पन्न हुए पदार्थों को जाननेवाला (वन्दारु) प्रशंसा करने योग्य (चनः) अन्न आदि को (धात्) धारण करता है (सः) वह परमेश्वर हम लोगों का मङ्गल करनेवाला (भूत्) हो ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर सूर्य्य के सदृश अपने से प्रकाशित, जानने योग्य, अजर, अमर, अतिथि के सदृश सत्कार करने योग्य और सर्वत्र व्याप्त है, उसकी सब उपासना करें ॥२॥
विषय
अग्नि । नायक होने योग्य गुण ।
भावार्थ
( यः ) जो ( विश्वायुः ) सबको जीवन देने वाला, ( अमृतः ) अमरणधर्मा, मृत्युरहित, निर्भय, ( मर्त्येषु ) मरणशील, मनुष्यों जीवों के बीच में ( अतिथिः ) अतिथि के समान पूज्य, सर्वव्यापक ( जात-वेदाः ) समस्त ज्ञानों और ऐश्वर्यों का उत्पादक, समस्त उत्पन्न पदार्थों का ज्ञाता है ( सः ) वह ( विभावा ) विशेष कान्ति से युक्त ( चक्षणिः ) सबका द्रष्टा ( अग्निः ) अग्नि के समान स्वयंप्रकाश (वेद्यः) बुद्धि वा ज्ञान से जानने योग्य वा शरणयोग्य प्रभु, स्वामी और विद्वान् ( वस्तोः ) वसने के निमित्त, सब दिन ( नः ) हमें ( वन्दारु ) उत्तम स्तुति करने योग्य ( चनः ) अन्न और ज्ञान ( धात् ) देवे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ त्रिष्टुप् । २, ५, ६, ७ भुरिक् पंक्ति: । ३, ४ निचृत् पंक्तिः । ८ पंक्ति: । अष्टर्चं सूक्तम् ।
विषय
ब्राह्ममुहूर्त में प्रभु-दर्शन
पदार्थ
[१] (सः) = वह प्रभु (वस्तो चक्षणिः न) = दिन के प्रकाशक सूर्य की तरह (विभावा) = विशिष्ट दीप्तिवाले हैं। (अग्नि:) = वे अग्रेणी प्रभु ही (वेद्यः) = जानने योग्य हैं, हम सबको उस प्रभु के जानने का प्रयत्न करना है। वे वन्दारु स्तुत्य (चनः) = अन्न को (धात्) = हमारे लिये धारण करते हैं। इस सात्त्विक अन्न के द्वारा वे हमें सात्त्विक बुद्धि प्राप्त कराते हुए हमारे जीवन को प्रशस्त करते हैं। [२] (विश्वायुः) = वे प्रभु हमें पूर्ण जीवन देनेवाले हैं। पूर्ण जीवन वही है जिस में 'शरीर स्वस्थ है, मन निर्मल है, बुद्धि तीव्र है' । (यः) = जो (अमृतः) = [न मृतं यस्मात्] हमें सब रोगों से दूर करनेवाले हैं, वे प्रभु मर्त्येषु मनुष्यों में (उषर्भुत् भूत्) प्रातः काल प्रबुद्ध होनेवाले होते हैं। अर्थात् ब्राह्ममुहूर्त के शान्त समय में अन्तर्मुखी वृत्तिवाले होकर उपासक हृदय में प्रभु का दर्शन करते हैं। ये प्रभु (अतिथि:) = सदा उपासकों के हित के लिये गतिशील हैं [अत सातत्यगमने], (जातवेदा:) = सर्वज्ञ हैं।
भावार्थ
भावार्थ-प्रभु दीप्ति के पुञ्ज हैं। सात्त्विक अन्न के द्वारा वे प्रभु हमें पूर्ण जीवन प्राप्त कराते हैं, रोगों से ऊपर उठाते हैं। उपासक ब्राह्ममुहूर्त में इस 'सर्वज्ञ अतिथि' का दर्शन करता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो, जो जगदीश्वर सूर्याप्रमाणे स्वप्रकाशित, जाणण्यायोग्य, अजर, अमर, अतिथीप्रमाणे सत्कार करण्यायोग्य व सर्वत्र व्याप्त आहे त्याचीच उपासना करा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May that lord, Agni, refulgent as the sun, light of the day, adorable, worth knowing and realising, bear and bring us food for life and energy for action, that lord who is life of life, immortal among mortals, manifests like a cherished guest at dawn and knows all that is bom in existence by omnipresence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What attributes are of God is taught further (The concept of God is explained Ed.)
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! God is like the sun Illuminator of the day, is purifying like the fire, Resplendent, Worthy of being known, Eternal and Imperishable, Immortal among the mortals, Venerable like a guest who gets up early at the dawn (for meditation and practice of Yajna), is Omnipresent and Omniscient. He upholds all food materials and other articles. Let Him be auspicious to us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! all of you should adore only that one Lord of the world ( universe. Ed.) who is self-effulgent like the sun, worthy of being known, free from decay and death, venerable like a guest and is Omnipresent.
Foot Notes
(चक्षणि:) प्रकाशक: सूर्य: । चक्ष-प्रकथने दर्शनेऽपि (अदा० ) अत्र दर्शनार्थ: । = Like the sun which is illuminator. (जातवेदाः) यो जातेषु विद्यते, जातान् सर्वान् वेत्ति वा । जातवेदाः) जाते जाते विद्यते इति वा जातानि वेद वेति (NKT 7, 5, 10)। = He who is Omnipresent and Omniscient.
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