ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
नू नो॑ अग्नेऽवृ॒केभिः॑ स्व॒स्ति वेषि॑ रा॒यः प॒थिभिः॒ पर्ष्यंहः॑। ता सू॒रिभ्यो॑ गृण॒ते रा॑सि सु॒म्नं मदे॑म श॒तहि॑माः सु॒वीराः॑ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठनु । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । अ॒वृ॒केभिः॑ । स्व॒स्ति । वेषि॑ । रा॒यः । प॒थिऽभिः । पर्षि॑ । अंहः॑ । ता । सूरिऽभ्यः॑ । गृ॒ण॒ते । रा॒सि॒ । सु॒म्नम् । मदे॑म । श॒तऽहि॑माः । सु॒ऽवीराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नू नो अग्नेऽवृकेभिः स्वस्ति वेषि रायः पथिभिः पर्ष्यंहः। ता सूरिभ्यो गृणते रासि सुम्नं मदेम शतहिमाः सुवीराः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठनु। नः। अग्ने। अवृकेभिः। स्वस्ति। वेषि। रायः। पथिऽभिः। पर्षि। अंहः। ता। सूरिऽभ्यः। गृणते। रासि। सुम्नम्। मदेम। शतऽहिमाः। सुऽवीराः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्गुणानाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यस्त्वमवृकेभिर्नः स्वस्ति वेषि पथिभी रायो नू पर्षि सूरिभ्यो गृणते च सुम्नं रासि। अंहो दूरीकरोषि तेन सह ता प्राप्य शतहिमाः सुवीरा वयं मदेम ॥८॥
पदार्थः
(नू) सद्यः (नः) अस्मान् (अग्ने) विद्वन् (अवृकेभिः) अचोरैः सह (स्वस्ति) सुखम् (वेषि) व्याप्नोषि (रायः) धनानि (पथिभिः) सुमार्गैः (पर्षि) पालयसि (अंहः) अपराधम् (ता) तानि (सूरिभ्यः) विद्वद्भ्यः (गृणते) स्तुतिं कुर्वते (रासि) ददासि (सुम्नम्) सुखम् (मदेम) आनन्देम (शतहिमाः) यावच्छतं वर्षाणि तावत् (सुवीराः) शोभनाश्च ते वीराश्च ॥८॥
भावार्थः
हे मनुष्याश्चौर्यं चोरसङ्गममन्यायात् पापाचरणं च विहाय सुखं प्राप्य शतायुषो भवेतेति ॥८॥ अत्राग्नीश्वरविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुर्थं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वानों के गुणों को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! जो आप (अवृकेभिः) चोरों से भिन्न जनों के साथ (नः) हम लोगों को (स्वस्ति) सुख (वेषि) व्याप्त करते हो तथा (पथिभिः) उत्तम मार्गों से (रायः) धनों को (नू) शीघ्र (पर्षि) पालन करते हो और (सूरिभ्यः) विद्वानों के लिये और (गृणते) स्तुति करते हुए के लिये (सुम्नम्) सुख को (रासि) देते हो तथा (अंहः) अपराध को दूर करते हो उन आपके साथ (ता) उक्त पदार्थों को प्राप्त होकर (शतहिमाः) सौ वर्ष पर्य्यन्त (सुवीराः) श्रेष्ठ वीर हम लोग (मदेम) आनन्द करें ॥८॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! चोरी और चोर के सङ्ग और अन्याय से पाप के आचरण का त्याग करके सुख को प्राप्त होकर सौ वर्ष युक्त होओ ॥८॥ इस सूक्त में अग्नि, ईश्वर और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चौथा सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
परमात्मा से निर्विघ्न मार्ग से ले जाने की प्रार्थना । पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य
भावार्थ
हे ( अग्ने) ज्ञानवन् विद्वन् ! तेजस्वी राजन् ! पापदाहक प्रभो ! तू ( नू ) शीघ्र ही ( नः ) हमें ( अवृकेभिः पथिभिः ) चोरों से रहित मार्गों से (रायः ) धनैश्वर्यो तक ( स्वस्ति ) कुशलतापूर्वक ( वेषि ) पहुंचा । और ( अंहः पर्षि ) पाप से पार कर । तू ( सूरिभ्यः ) विद्वान् पुरुषों और ( गृणते ) उपदेष्टा गुरुजन वा स्तुति करने वाले को ( ता सुम्नं ) नाना प्रकार के सुख (रासि ) प्रदान करता है। उन्हें प्राप्त करके हम भी ( सुवीराः ) उत्तम वीरों ओर पुत्रों से सम्पन्न होकर ( शतहिमाः ) सौ वर्षों तक ( मदेम ) आनन्द प्रसन्न हों । इति षष्ठो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ त्रिष्टुप् । २, ५, ६, ७ भुरिक् पंक्ति: । ३, ४ निचृत् पंक्तिः । ८ पंक्ति: । अष्टर्चं सूक्तम् ।
विषय
अवृकेभिः पथिभिः
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! आप (नः) = हमें (नू) = अब (अवृकेभिः) = लोभशून्य [वृक आदाने] (पथिभिः) = मार्गों से (स्वस्ति रायः) = कल्याणकर धनों को (वेषि) = प्राप्त कराते हैं तथा आप (अंहः पर्षि) = पाप से हमें पार ले जाते हैं । [२] आप (ता) = उन कल्याणकर धनों को (सूरिभ्यः) = ज्ञानियों के लिये प्राप्त कराते हैं। (गृणते) = स्तवन करनेवाले मेरे लिये भी आप (सुम्नं रासि) = सुख को देते हैं। आपकी कृपा से हम (सुवीराः) = उत्तम वीर सन्तानोंवाले होते हुए (शतहिमाः मदेम) = सौ वर्षों तक आनन्द से जीवन को बितानेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु कृपा से लोभशून्य मार्गों से धनों को कमानेवाले हों। इस प्रकार उत्तम सन्तानों व दीर्घ-जीवनवाले बनें । लोभ ही सन्तानों की विकृति व अल्पायुष्य का कारण हो जाता है। अगले सूक्त में भी 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' प्रभु का उपासन अग्नि नाम से करते हैं -
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! चोरी, चोरांचा संग व अन्यायाने केलेले पापाचरण यांचा त्याग करून सुख प्राप्त करून शंभर वर्षे जगा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light, wealth and bliss, with honest and loving people lead us to wealth and honour, peace and well being by paths of holiness, cleanse us of sin, blow off evil from us. That peace and joy you bestow upon brilliant and brave celebrants and upon the supplicant, bestow upon us too, we pray, so that we, blest with brave children, may rejoice for a full life of hundred years.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the enlightened persons are told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned leader ! as you lead us to welfare along with honest persons who are not thieves, you guard us and fill us with wealth of all kinds by treading upon the path of righteousness, bestow upon the enlightened persons and devotees of God who glorify Him and admire other good virtues happiness and remove all sins. Let us therefore attain all these good things with you and being good heroes, let us enjoy bliss for hundred years or more.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! having given up theft, the company of the thieves and dishonest persons, injustice and sinfulness, attain happiness and live up to hundred years.
Foot Notes
(अह:) अपराधम्। = Guilt, crime, sin. (सूरिभ्यः) विद्वदभ्यः। सूरिरीति स्तोत्रिनाम (NG 3, 16) = For true, enlightened persons are those who are true devotees of God and the enlightened persons. (सुम्नम् ) सुखम् । सुम्नमिति सुखनाम (NG 3, 6)। = Happiness.
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