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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 41/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒तः सोमो॒ असु॑तादिन्द्र॒ वस्या॑न॒यं श्रेया॑ञ्चिकि॒तुषे॒ रणा॑य। ए॒तं ति॑तिर्व॒ उप॑ याहि य॒ज्ञं तेन॒ विश्वा॒स्तवि॑षी॒रा पृ॑णस्व ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒तः । सोमः॑ । असु॑तात् । इ॒न्द्र॒ । वस्या॑न् । अ॒यम् । श्रेया॑न् । चि॒कि॒तुषे॑ । रणा॑य । ए॒तम् । ति॒ति॒र्वः॒ । उप॑ । या॒हि॒ । य॒ज्ञम् । तेन॑ । विश्वाः॑ । तवि॑षीः । आ । पृ॒ण॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुतः सोमो असुतादिन्द्र वस्यानयं श्रेयाञ्चिकितुषे रणाय। एतं तितिर्व उप याहि यज्ञं तेन विश्वास्तविषीरा पृणस्व ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुतः। सोमः। असुतात्। इन्द्र। वस्यान्। अयम्। श्रेयान्। चिकितुषे। रणाय। एतम्। तितिर्वः। उप। याहि। यज्ञम्। तेन। विश्वाः। तविषीः। आ। पृणस्व ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 41; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे तितिर्व इन्द्र ! योऽयं चिकितुषे रणाय श्रेयान् वस्यानसुतात् सोमः सुतोऽस्ति, एतं यज्ञं त्वमुप याहि तेन विश्वास्तविषीरा पृणस्व ॥४॥

    पदार्थः

    (सुतः) निष्पादितः (सोमः) महैश्वर्ययोगः (असुतात्) अनुत्पादितात् (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (वस्यान्) अतिशयेन वासकर्त्ता (अयम्) (श्रेयान्) अतिशयेन श्रेयःप्राप्तः (चिकितुषे) चिकित्सितुं विचारयितुमिष्टाय (रणाय) सङ्ग्रामाय (एतम्) (तितिर्वः) शत्रूणां बलं तरित उल्लङ्घयितः (उप) (याहि) (यज्ञम्) सुसङ्गमनीयम् (तेन) (विश्वाः) समग्राः (तविषीः) बलयुक्ताः सेनाः (आ) (पृणस्व) समन्तात् सुखय ॥४॥

    भावार्थः

    ये राजानः स्वल्पायापि सङ्ग्रामाय महतीं सामग्रीं सञ्चिन्वन्ति ते शत्रून् विजयमानाः सन्तः सर्वाः प्रजाः सततं सुखयितुमर्हन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (तितिर्वः) शत्रुओं के बल को उल्लङ्घन करनेवाले (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त ! जो (अयम्) यह (चिकितुषे) विचार करने को इष्ट (रणाय) सङ्ग्राम के लिये (श्रेयान्) अतिशय कल्याण को प्राप्त (वस्यान्) अतिशय वास करनेवाला (असुतात्) नहीं उत्पन्न किये गये पदार्थों से (सोमः) बड़े ऐश्वर्य्यों का योग (सुतः) उत्पन्न किया गया है (एतम्) इस (यज्ञम्) उत्तम प्रकार प्राप्त होने योग्य के आप (उप, याहि) समीप प्राप्त हूजिये ( तेन) उससे (विश्वाः) सम्पूर्ण (तविषीः) बलयुक्त सेनाओं को (आ, पृणस्व) सब प्रकार से सुखी करिये ॥४॥

    भावार्थ

    जो राजा छोटे भी सङ्ग्राम के लिये बड़ी सामग्री को इकट्ठी करते हैं, वे शत्रुओं को जीतते हुए सम्पूर्ण प्रजाओं को निरन्तर सुखी करने के योग्य हैं ॥४॥

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    विषय

    इन्द्र,स्वामी को उसके कर्त्तव्यों का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( असुतात् ) न उत्पन्न हुए की अपेक्षा ( सुतः सोमः ) उत्पन्न हुए पुत्र वा शिष्य के तुल्य यह अभिषेक द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य, अभिषिक्त होकर प्राप्त राज्य की अपेक्षा से (वस्यान् ) बहुत अधिक धनैश्वर्य से सम्पन्न है तथा अधिक प्रजाजनों को बसाने हारा है और वह ( चिकितुषे ) ज्ञानवान् पुरुष के लिये ( रणाय ) उत्तम सुख प्राप्त करने और शत्रुनाशक संग्राम करने के लिये भी ( श्रेयान् ) अति श्रेष्ठ है । हे ( तितिर्वः ) शत्रु नाश करने हारे बलवन् ! राजन् ! तू ( एतं यज्ञं उपयाहि ) उस यज्ञ अर्थात् पूज्य पद, सुसंगत राज्य को प्राप्त हो । तेन उससे ( विश्वाः ) समस्त (तविषीः ) बलवती सेनाओं को ( आवृणस्व ) सब प्रकार से पालन और पूर्ण कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ।। छन्दः - १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ४ त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पंक्ति: ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    चिकितुषे रणाय

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (असुतात्) = न उत्पन्न हुए हुए सोम से (सुतः सोम:) = हुआ-हुआ सोम (वस्यान्) = वसुमत्तर, प्रशस्यतर होता है। उत्पन्न होकर रक्षित हुआ हुआ (अयम्) = यह सोम (चिकितुषे) = ज्ञानी के लिये तथा (रणाय) = [रण शब्दे] प्रभु के स्तोता के लिये (श्रेयान्) = कल्याणकर होता है। यह ज्ञानी स्तोता सोम का रक्षण कर पाता है और इस प्रकार रक्षित सोम के द्वारा अपना रक्षण करनेवाला होता है । [२] हे (तितिः) = काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रुओं को तैरनेवाले (एतं यज्ञम्) = इस संगतिकरण योग्य सोम को (उपयाहि) = तू समीपता से प्राप्त हो। और (तेन) = उस सोम के द्वारा (विश्वाः तविषी:) = सब बलों को (आपृणस्व) = अपने अन्दर आपूरित कर। सोम ही सब शक्तियों का मूल है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- अनुत्पन्न सोम से उत्पन्न सोम श्रेष्ठ है। ज्ञानी स्तोता इसका रक्षण करता है और इसके द्वारा सब बलों को अपने में धारण करता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे राजे छोट्या युद्धासाठीही मोठी सामग्री एकत्र करतात ते शत्रूंना जिंकून संपूर्ण प्रजेला सतत सुखी करू शकतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This soma, blissful order of life fashioned into form from the raw materials of life and thought, O lord of power and glory, is better, more fragrant and inspiring for the man of intelligence and culture in search of a life of knowledge, achievement and happiness. Come, O lord victorious over opposition and contradictions, to this yajnic order of society and thereby strengthen all forces of action for advancement and total fulfilment.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a king do-is again told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king, endowed with great wealth and surpassing the strength of the foes, the combination of great wealth, which is required for the battle decided after great deliberation, which is very beneficial and cause of help to others and gathered from untapped sources, come to this Yajna which is worthy of unification and thereby gladden all your powerful armies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those kings who gather much material even for an insignificant battle, can make all their subjects happy by achieving victory over all their enemies.

    Foot Notes

    (सोम:) महैश्वर्ययोगः । (सोमः) षु-प्रसर्वश्वर्ययोः (स्वा.) । अत्र ऐश्वर्यार्थकः । = Combination of great wealth. (तितिर्व:) शत्रूणां बलं तरित उल्लङ्घयितः । तृ-प्लवनसन्त रणयोः (भ्वा.)। = Surpassing the strength of the foes. (यज्ञम्) सुसङ्गमनीयम्। = Worthy of good unification.

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