ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 57/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रापूषणौ
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
सोम॑म॒न्य उपा॑सद॒त्पात॑वे च॒म्वोः॑ सु॒तम्। क॒र॒म्भम॒न्य इ॑च्छति ॥२॥
स्वर सहित पद पाठसोम॑म् । अ॒न्यः । उप॑ । अ॒स॒द॒त् । पात॑वे । च॒म्वोः॑ । सु॒तम् । क॒र॒म्भम् । अ॒न्यः । इ॒च्छ॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोममन्य उपासदत्पातवे चम्वोः सुतम्। करम्भमन्य इच्छति ॥२॥
स्वर रहित पद पाठसोमम्। अन्यः। उप। असदत्। पातवे। चम्वोः। सुतम्। करम्भम्। अन्यः। इच्छति ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 57; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः किंवत् किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्रापूषणौ ! युवयोरन्य एकश्चम्वोर्मध्ये सुतं सोमं पातव उपासददन्यः करम्भमिच्छति तौ वयं सख्याद्याय हुवेम ॥२॥
पदार्थः
(सोमम्) ऐश्वर्यम् (अन्यः) (उप) (असदत्) उपसीदति (पातवे) पातुम् (चम्वोः) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (सुतम्) निष्पन्नम् (करम्भम्) भोगं कर्तुं योग्यम् (अन्यः) (इच्छति) ॥२॥
भावार्थः
हे विद्वांसो ! यथा सूर्याचन्द्रमसौ द्यावापृथिव्योर्मध्ये वर्त्तमानौ सन्तावनयोः सूर्य्यो रसं गृह्णाति चन्द्रो रसदानं च करोति तथैव यूयं वर्त्तध्वम् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् जन किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे परमैश्वर्य्ययुक्त और सब की पुष्टि करनेवाले ! तुम दोनों में से (अन्यः) एक जन (चम्वोः) आकाश और पृथिवी के बीच (सुतम्) उत्पन्न हुए (सोमम्) ऐश्वर्य्य के (पातवे) पीने को (उप, असदत्) दूसरे के समीप बैठता है (अन्यः) और दूसरा (करम्भम्) भोगने योग्य पदार्थ को (इच्छति) चाहता है, उन दोनों को हम लोग मित्रता आदि के लिये स्वीकार करते हैं ॥२॥
भावार्थ
हे विद्वान् जनो ! जैसे सूर्य और चन्द्रमा द्यावा और पृथिवी के बीच वर्त्तमान होते हुए हैं, इन दोनों में से सूर्य्य रस को लेता है और चन्द्रमा रस को देता है, वैसे ही तुम सब वर्त्तो ॥२॥
विषय
व्यापारी वर्ग और कृषक वर्ग और इन्द्र पूषा ।
भावार्थ
दोनों का पृथक् २ विवरण करते हैं। पूर्वोक्त इन्द्र और पूषा दोनों में से (चम्वो:) राष्ट्र का भोग करने वाले राजा और प्रजावर्ग दोनों में से ( अन्यः ) एक तो ( पातवे ) अपने पालन के लिये ( सुतम् ) अभिषिक्त (सोमम् ) ऐश्वर्यवान्, सर्वप्रेरक राजा को ( उप सदत् ) प्राप्त होता है । और ( अन्यः ) दूसरा राजा ( करम्भम् ) कर ग्रहण कर उससे ही भरण करने योग्य अन्नवत् राष्ट्र को ( इच्छति ) प्राप्त करना चाहता है। ( २ ) ‘इन्द्र’ ऐश्वर्यवान्, व्यापारी वर्ग ( पातवे ) आगे के लिये राष्ट्र का उत्पन्न ऐश्वर्थ प्राप्त करे और (अन्य:) दूसरा ( पूषा ) पृथिवीस्थ शेष प्रजावर्ग भूमि से अन्न उत्पन्न करना चाहता है । एक धन कमावे, और एक अन्न, वे दोनों ही इन्द्र और पूषा हैं। व्यापारी वर्ग ‘इन्द्र’ है, कृषक वर्ग ‘पूषा’ है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्र-पूषणौ देवते ॥ छन्दः – १, ६ विराड् गायत्री । २, ३ निचृद्गायत्री । ४, ५ गायत्री ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
सोमं करम्भम्
पदार्थ
[१] (चम्वोः) = द्यावापृथिवी के निमित्त (सुतम्) = उत्पन्न किये गये इस (सोमम्) = सोम को (पातवे) = पीने के लिये (अन्यः) = इन्द्र व पूषा में से एक इन्द्र (उपासदत्) = समीप प्राप्त होता है । इन्द्र वह है जो इन्द्रियों को वश में करने के लिये यत्नशील होता है। यह जितेन्द्रिय बनकर सोम का पान करता है। इस सुरक्षित सोम से मस्तिष्क रूप द्युलोक को यह ज्ञानदीप्त बनाता है तथा शरीर रूप पृथिवी लोक को इस सोम के द्वारा ही सशक्त करता है। [२] (अन्यः) = दूसरा (पूषा) = अपने में शक्तियों का पोषण करनेवाला (करम्भम्) = क-जल व रेतः कणों के द्वारा अपने में शक्ति के भरण को (इच्छति) = चाहता है। पूषा सदा इस कामनावाला होता है कि मेरे कार्य शक्ति से परिपूर्ण हों ।
भावार्थ
भावार्थ- जितेन्द्रिय बनकर हम सोम का पान करें। रेतःकणों के रक्षण से हमारे कार्य शक्तिशाली हों ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वानांनो ! जसे सूर्य व चंद्र, द्युलोक व पृथ्वीलोकाच्या मध्ये असतात. या दोन्हीपैकी सूर्य रस घेतो व चंद्र रस देतो तसेच तुम्ही सर्वजण वागा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
One of them, Indra, abides in the middle region between earth and heaven and drinks the soma distilled there, i.e., it catalyses the vapours of the clouds into rain through electric charge, while the other, Pusha, loves karambha, i.e., the sun sucks up the vapours of water and herbal juices and turns them into soma clouds. Thus the two sit together and act.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the enlightened persons do like whom―is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O (endowed with abundant wealth and nourisher) Indra! one of you (the sun) drinks or draws the sap of the articles pervading the heaven and earth and the other (moon) gives the juice of the enjoyable objects.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O highly learned persons! as the sun and moon are in the middle of the heaven and the earth. Of them, the sun draws the sap and the moon gives the juice, so you should also behave.
Foot Notes
(चभ्वोः) धावापृथिव्योर्मध्ये। चम्वो इति द्यावापृथिविनाम्(NG 3, 30)। =In the middle of the heaven and earth. (करम्भम्) भोगंकतु योग्यम् । कृकदिकडिकटिभ्योऽम्बच् (उणदिकोषे 4, 82 ) करम्भम् एव करम्भम्-ग्यामिश्र ं भोग्यजातम् । = Enjoyable.
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