ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 57/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रापूषणौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
तां पू॒ष्णः सु॑म॒तिं व॒यं वृ॒क्षस्य॒ प्र व॒यामि॑व। इन्द्र॑स्य॒ चा र॑भामहे ॥५॥
स्वर सहित पद पाठताम् । पू॒ष्णः । सु॒ऽम॒तिम् । व॒यम् । वृ॒क्षस्य॑ । प्र । व॒याम्ऽइ॑व । इन्द्र॑स्य । च॒ । आ । र॒भा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तां पूष्णः सुमतिं वयं वृक्षस्य प्र वयामिव। इन्द्रस्य चा रभामहे ॥५॥
स्वर रहित पद पाठताम्। पूष्णः। सुऽमतिम्। वयम्। वृक्षस्य। प्र। वयाम्ऽइव। इन्द्रस्य। च। आ। रभामहे ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 57; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं विज्ञाय किमारब्धव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! वयं यां पूष्णः सुमतिं वृक्षस्य वयामिवेन्द्रस्य च प्राऽऽरभाम तथा तां यूयमपि प्रारभध्वम् ॥५॥
पदार्थः
(ताम्) (पूष्णः) पृथिव्याः (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (वयम्) (वृक्षस्य) छेद्यस्य (प्र) (वयामिव) यथा वृक्षस्य सुदृढां विस्तीर्णां शाखाम् (इन्द्रस्य) विद्युतः (च) (आ) समन्तात् (रभामहे) आरम्भं कुर्याम ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यूयं भूगर्भविद्यां विद्युद्विद्यां च प्राप्य कार्यसिद्धये क्रियामारभध्वम् ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या जान कर क्या आरम्भ करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (वयम्) हम लोग जिस (पूष्णः) पृथिवी सम्बन्धिनी (सुमतिम्) उत्तम बुद्धि को (वृक्षस्य) काटने योग्य पदार्थ की (वयामिव) वृक्ष की दृढ़ विस्तीर्ण शाखा के समान वा (इन्द्रस्य) बिजुलीरूप अग्नि सम्बन्धिनी उत्तम मति का (च) भी (प्र, आ, रभामहे) आरम्भ करें वैसे (ताम्) उसको तुम भी प्रारम्भ करो ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम भूगर्भविद्या और विद्युद्विद्या को प्राप्त होकर कार्यसिद्धि के लिये क्रिया का आरम्भ करो ॥५॥
विषय
missing
भावार्थ
( पूष्णः ) सर्वपोषक, और ( इन्द्रस्य च ) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता तथा, अज्ञाननाशक उत्तम ज्ञानदायक जन की ( तां ) उस ( सुमतिम् ) शुभ मति को ( वृक्षस्य ) वृक्ष की ( वयाम् इव ) शाखा के समान अपने आश्रय और उन्नति के लिये ( प्र आ रभामहे ) प्राप्त करें । इसी प्रकार ( पूष्णः ) सर्वपोषक पृथ्वी और ( इन्द्रस्य ) विद्युत् मेघ, सूर्य आदि सम्बन्धी ( सु-मतिं ) उत्तम ज्ञान को भी हम प्राप्त करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्र-पूषणौ देवते ॥ छन्दः – १, ६ विराड् गायत्री । २, ३ निचृद्गायत्री । ४, ५ गायत्री ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
सुमति का आश्रय
पदार्थ
[१] (वयम्) = हम (पूष्णः) = प्राणसाधना को करनेवाले इस उपासक की (तां सुमतिम्) = उस कल्याणीमति को (आरभामहे) = इस प्रकार आश्रय करते हैं, (इव) = जैसे कि कोई (वृक्षस्य) = वृक्ष की (प्रवयाम्) = दृढ़ शाखा को पकड़ता है। वस्तुतः पूषा की यह सुमति यही है कि हम भी पूषा की तरह प्राणसाधना में प्रवृत्त हों। [२] इसी प्रकार हम (इन्द्रस्य च) = इन्द्र की भी कल्याणीमति का आश्रय करते हैं। जितेन्द्रिय बनकर हम भी सोम का रक्षण करनेवाले बनते हैं । प्राणसाधना में प्रवृत्त हों ।
भावार्थ
भावार्थ- हम इन्द्र व पूषा का अनुगमन करें, जितेन्द्रिय बनें और इस से सोमरक्षण करते हुए हम बुद्धि को बड़ा शुद्ध व तीव्र बना पायेंगे ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! तुम्ही भूगर्भविद्या व विद्युतविद्या प्राप्त करून कार्यसिद्धीचे काम सुरू करा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That immanent will and wisdom of Pusha, divine nature’s creative and promotive power, and that catalytic power of Indra, natural electric energy, we love, join and apply at our level to have results like extensive branches of the tree.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men know and do-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! as we acquire the good know- ledge of the earth like the strong and vast branches of a tree and that of electricity, and then use it for various purposes, so you also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Having acquired the knowledge of Geology and the science of electricity, you should begin to use them for the accomplishment of various works.
Foot Notes
(वयामिव) यथा वृक्षस्य सुदृढां विस्तीर्णा शाखाम् । वी-गति व्याप्ति प्रजनकान्त्यसनखादनेषु (अ) अत्र व्याप्त्यर्थ-व्याप्ताः शाखाः। = Like the strong and vast branches of a tree. (इन्द्रस्य) विद्युतः। = Of electricity.
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