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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - वैश्वानरः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अ॒यं होता॑ प्रथ॒मः पश्य॑ते॒ममि॒दं ज्योति॑र॒मृतं॒ मर्त्ये॑षु। अ॒यं स ज॑ज्ञे ध्रु॒व आ निष॒त्तोऽम॑र्त्यस्त॒न्वा॒३॒॑ वर्ध॑मानः ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । होता॑ । प्र॒थ॒मः । पश्य॑त । इ॒मम् । इ॒दम् । ज्योतिः॑ । अ॒मृत॑म् । मर्त्ये॑षु । अ॒यम् । सः । ज॒ज्ञे॒ । ध्रु॒वः । आ । नि॒ऽस॒त्तः । अम॑र्त्यः । त॒न्वा॑ । वर्ध॑मानः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं होता प्रथमः पश्यतेममिदं ज्योतिरमृतं मर्त्येषु। अयं स जज्ञे ध्रुव आ निषत्तोऽमर्त्यस्तन्वा३ वर्धमानः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। होता। प्रथमः। पश्यत। इमम्। इदम्। ज्योतिः। अमृतम्। मर्त्येषु। अयम्। सः। जज्ञे। ध्रुवः। आ। निऽसत्तः। अमर्त्यः। तन्वा। वर्धमानः ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 9; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथास्मिन् देहे द्वौ जीवात्मपरमात्मानौ वर्तेते इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यो ध्रुवो निषत्तः प्रथमो होताऽयं मर्त्त्येष्विदममृतं ज्योतिः परमात्मास्ति तमिमं पश्यत योऽयममर्त्त्यस्तन्वा वर्धमाना आ जज्ञे स जीवोऽस्तीति पश्यत ॥४॥

    पदार्थः

    (अयम्) (होता) दाता ग्रहीता वा (प्रथमः) आदिमः (पश्यत) (इमम्) (इदम्) प्रत्यक्षम् (ज्योतिः) सूर्य्य इव स्वप्रकाशं चेतनं परमात्मानम् (अमृतम्) नाशरहितम् (मर्त्येषु) मरणधर्मेषु शरीरेषु (अयम्) (सः) (जज्ञे) जायते (ध्रुवः) निश्चलो दृढः (आ) (निषत्तः) निषष्णः (अमर्त्यः) मरणधर्मरहितः (तन्वा) शरीरेण (वर्धमानः) यो वर्धते सः ॥४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! अस्मिञ्छरीरे द्वौ चेतनौ नित्यौ जीवात्मपरमात्मानौ वर्त्तेते तयोरेकोऽल्पोऽल्पज्ञोऽल्पदेशस्थो जीवः शरीरं धृत्वा जायते वर्धते परिणमते चाऽपक्षीयते पापपुण्यफलं च भुङ्क्ते अपरः परमेश्वरो ध्रुवः सर्वज्ञः कर्म्मफलसम्बन्धरहितोऽस्तीति निश्चिनुत ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब इस देह में दो जीवात्मा और परमात्मा वर्त्तमान हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् जनो ! जो (ध्रुवः) निश्चल दृढ़ (निषत्तः) स्थित (प्रथमः) पहिला (होता) देने वा ग्रहण करनेवाला (अयम्) यह और (मर्त्येषु) मरणधर्म्मयुक्त शरीरों में (इदम्) इस प्रत्यक्ष (अमृतम्) नाश से रहित (ज्योतिः) सूर्य्य के सदृश अपने से प्रकाशित चेतन परमात्मा है उस (इमम्) इस को (पश्यत) देखिये और जो (अयम्) यह (अमर्त्यः) मरणधर्म्म से रहित (तन्वा) शरीर से (वर्धमानः) बढ़ता हुआ (आ) चारों ओर से (जज्ञे) प्रकट होता है (सः) वह जीव है, ऐसा देखो ॥४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! इस शरीर में दो चेतन नित्य हुए जीवात्मा और परमात्मा वर्त्तमान हैं। उन दोनों में एक अल्प, और अल्पदेशस्थ जीव है, वह शरीर को धारण करके प्रकट होता, वृद्धि को प्राप्त होता और परिणाम को प्राप्त होता तथा हीन दशा को प्राप्त होता, पाप और पुण्य के फल का भोग करता है। द्वितीय परमेश्वर ध्रुव, निश्चल, सर्वज्ञ, कर्म्मफल के सम्बन्ध से रहित है, ऐसा तुम लोग निश्चय करो ॥४॥

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    विषय

    जीव का वर्णन । जीव नश्वर देहों में अमर : ज्योति । पक्षान्तर में नश्वर लोकों में ईश्वर तत्व ।

    भावार्थ

    जीव का वर्णन - हे विद्वान् पुरुषो ! (अयं हि ) यह ही ( प्रथमः होता ) सबसे उत्तम समस्त सुखों का ग्रहण करने और देने वाला है ( इमं पश्यत ) इसको साक्षात् किया करो। ( मर्त्येषु ) मर जाने वाले देहों में ( इदं अमृतं ज्योतिः ) यह कभी नाश न होने वाली 'ज्योति' है । अर्थात् यह चेतन ज्योति कभी नाश को प्राप्त नहीं होती । ( अयं ) यह (सः) वह ( अमर्त्यः ) कभी न मरने वाला, ( तन्वा वर्धमानः ) शरीर से बढ़ता हुआ ( ध्रुवः ) सदा स्थिर, नित्य होकर भी ( आ नि-सत्तः ) शरीर या गर्भ में स्थिर होकर ( जज्ञे ) जन्म लेता है। ईश्वर पक्ष में – वह सब का स्वामी, इन मरणधर्मा जीवों में ज्योति है । जो सर्वश्रेष्ठ 'होता' सब सुखों का दाता है वह ध्रुव, कूटस्थ, अमृत, (तन्वा ) अति विस्तृत ब्रह्माण्ड से भी कहीं बढ़ा हुआ है, ( आ नि सत्तः ) सर्वत्र व्यापक रूप से विद्यमान है । ( स जज्ञे ) वही समस्त संसार को पैदा करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः – १ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् पंक्ति: । ३, ४ पंक्ति: । ७ भुरिग्जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रथम होता

    पदार्थ

    [१] (अयम्) = ये प्रभु ही (प्रथमः होता) = सर्वप्रथम होता हैं, प्रभु इस सृष्टि-यज्ञ को करते हैं। (इमं पश्यत) = इन्हें ही देखने का यत्न करो । (इदम्) = यह प्रभु रूप (ज्योतिः) = ज्योति ही (मर्त्येषु) = मनुष्यों में (अमृतम्) = अमृत है। मरणधर्मा शरीरों से सम्बद्ध जीवों में प्रभु ही अमृत ज्योति हैं । [२] (अयं सः) = ये वे प्रभु ही (ध्रुव:) = ध्रुव जने हुए हैं और सब अस्थिर है। (आनिषत्तः) = ये प्रभु सर्वत्र निषण्ण हैं, विद्यमान हैं। (अमर्त्यः) = ये प्रभु मरणधर्मा नहीं हैं। (तन्वा वर्धमानः) = इन हमारे शरीरों से वृद्धि को प्राप्त होते से हैं। इन शरीरों का विकास प्रभु की व्यवस्था से ही होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु सर्वप्रथम होता [याज्ञिक] है, ये अमर-ज्योति हैं। सर्वव्यापक होते हुये हमारे शरीरों के वर्धन का कारण बनते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! या शरीरात दोन चेतन, एक आत्मा व दुसरा परमात्मा हे नित्य असतात. त्या दोन्हीत एक अल्प, अल्पज्ञ व अल्पदेशस्थ असा जीव असतो. तो शरीर धारण करून प्रकट होतो, वाढतो व परिणामी असतो तसेच हीन दशेलाही प्राप्त होतो. पाप-पुण्याचे फळ भोगतो. दुसरा परमेश्वर ध्रुव, निश्चल, सर्वज्ञ कर्मफलसंबंधरहित असतो. याचा तुम्ही विचारपूर्वक निश्चय करा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This supreme lord is the prime yajaka, giver and receiver. See and know this immortal light among the mortals. And this is that other, the individual soul, unshaken, immovable, firmly seated in the personality, immortal, growing in knowledge and vision and the body in which it is born.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    .The body has both, soul and God is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned men! behold that First (efficient cause), Giver of Peace and Bliss, Immortable, Immortal Light like the sun among the mortals. That is God. Behold also the another seated in the body and ever-working with it, manifesting (though not born) itself with the body. This is your immortal soul.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! in this body there are two conscious and eternal spirits called soul and God. One of them called Jeevātmā (soul) is limited in space (size. Ed.), knowledge and power, and it having received the body is manifested, grows, changes, decays and enjoys the fruits of its good or bad actions. The other Paramātāmā (God) is Eternal, Immortable, Omniscient, free from the fruit of actions. In fact, this is what you should know decidedly.

    Translator's Notes

    ज्योति: is from दयुत-दीप्तौ। द्युतोरिसिन्नादेश्चज: (उणादिकोषे 2, 111 ) इति इसिम् प्रत्यय: आदेश्च ज: This and other mantras clearly show that the Vedas do not support अद्वैतवाद or monism.

    Foot Notes

    (ज्योतिः) सूर्य्य इव स्वप्रकाशं चेतनं परमात्मानम् । = Self-refulgent conscious God like the sun. (होता) दाता-ग्रहीता । (होता) हु-दानादनयोः अदाने च (जुहो० )= Giver of Peace and Bliss and the fruit of actions of the souls and accepter of men's true devotion. (ज्योतिः) सूर्य्य इव स्वप्रकाशं चेतनं परमात्मानम् । = Self-refulgent conscious God like the sun. (होता) दाता-ग्रहीता । (होता) हु-दानादनयोः अदाने च (जुहो०) = Giver of Peace and Bliss and the fruit of actions of the souls and accepter of men's true devotion.

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