ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 23/ मन्त्र 3
यु॒जे रथं॑ ग॒वेष॑णं॒ हरि॑भ्या॒मुप॒ ब्रह्मा॑णि जुजुषा॒णम॑स्थुः। वि बा॑धिष्ट॒ स्य रोद॑सी महि॒त्वेन्द्रो॑ वृ॒त्राण्य॑प्र॒ती ज॑घ॒न्वान् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठयु॒जे । रथ॑म् । गो॒ऽएष॑णम् । हरि॑ऽभ्याम् । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । जु॒जु॒षा॒णम् । अ॒स्थुः॒ । वि । बा॒धि॒ष्ट॒ । स्यः । रोद॑सी॒ इति॑ । म॒हि॒ऽत्वा । इन्द्रः॑ । वृ॒त्राणि॑ । अ॒प्र॒ति । ज॒घ॒न्वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युजे रथं गवेषणं हरिभ्यामुप ब्रह्माणि जुजुषाणमस्थुः। वि बाधिष्ट स्य रोदसी महित्वेन्द्रो वृत्राण्यप्रती जघन्वान् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठयुजे। रथम्। गोऽएषणम्। हरिऽभ्याम्। उप। ब्रह्माणि। जुजुषाणम्। अस्थुः। वि। बाधिष्ट। स्यः। रोदसी इति। महिऽत्वा। इन्द्रः। वृत्राणि। अप्रति। जघन्वान् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 23; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः किं कृत्वा वीराः सङ्ग्रामे गच्छेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे सेनेश ! यथेन्द्रो महित्वा रोदसी प्रकाशयति तथायं ब्रह्माणि जुजुषाणं रथं वीरा उपास्थुर्येन शूरवीराः शत्रून् विबाधिष्ट तमप्रति जघन्वान् स्योऽहं गवेषणं रथं हरिभ्यां युजे वृत्राणि प्राप्नुयाम् ॥३॥
पदार्थः
(युजे) युनज्मि (रथम्) प्रशस्तं यानम् (गवेषणम्) गां भूमिं प्रापकम् (हरिभ्याम्) अश्वाभ्याम् (उप) धनधान्यानि (जुजुषाणम्) सेवमानम् (अस्थुः) तिष्ठन्तु (वि) (बाधिष्ट) बाधयन्तु (स्यः) सः (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (महित्वा) महिम्ना (इन्द्रः) सूर्यः (वृत्राणि) धनानि (अप्रति) अप्रत्यक्षेऽपि (जघन्वान्) हन्ता ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे शूरवीरा ! यदा भवन्तो युद्धाय गच्छेयुस्तदा सर्वां सामग्रीमलंकृत्य यान्तु येन शत्रूणां बाधा सद्यः स्याद्विजयैश्वर्यं च प्राप्नुयात् ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर क्या करके वीर संग्राम में जावें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे सेनेश ! जैसे (इन्द्रः) सूर्य (महित्वा) अपने महान् परिमाण से (रोदसी) आकाश और पृथिवी को प्रकाशित करता है, वैसे जिस (ब्रह्माणि) धन धान्य पदार्थों को (जुजुषाणम्) सेवते हुए (रथम्) प्रशंसनीय रथ को वीरजन (उपास्थुः) उपस्थित होते हैं जिससे शूरवीर जन शत्रुओं को (वि, बाधिष्ट) विविध प्रकार से विलोवें पीड़ा दें उसको (अप्रति) अप्रत्यक्ष अर्थात् पीछे भी (जघन्वान्) मारनेवाला (स्यः) वह मैं (गवेषणम्) भूमि पर पहुँचानेवाले रथ को (हरिभ्याम्) हरणशील घोड़ों से (युजे) जोड़ता हूँ जिससे (वृत्राणि) धनों को प्राप्त होऊँ ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे शूरवीरो ! जब आप लोग युद्ध के लिये जावें तब सामग्री को पूरी करके जावें, जिससे शत्रुओं को शीघ्र बाधा पीड़ा हो और विजय को भी प्राप्त हो ॥३॥
विषय
सेनापति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( हरिभ्यां रथं ) जिस प्रकार दो अश्वों से रथ को जोड़ा जाता है उसी प्रकार मैं भी ( हरिभ्याम् ) दो उत्तम विद्वान् पुरुषों से ( रथम् ) सुख देने वाले राष्ट्र को (युजे ) युक्त करूं और समस्त प्रजा वर्ग ( ब्रह्माणि जुजुषाणम् ) नाना धनों को प्राप्त करने वाले ऐश्वर्यवान् पुरुष को ( उप अस्थुः ) आश्रय लेते हैं । वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष ही ( महित्वा) अपने महान् सामर्थ्य से ( रोदसी ) शत्रु को रुलाने वाली उभय पक्ष की सेनाओं को ( वि बाधिष्ट ) विविध प्रकार से वश करे । और वह (अप्रति) बे-मुकाबला होकर ( वृत्राणिजघन्वान् ) शत्रुओं को नाश करे और धनों को प्राप्त करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, ६ भुरिक् पंक्ति: । ४ स्वराट् पंक्ति:। २, ३ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
वैदिक विद्वान् पुरुषों से राष्ट्र ऐश्वर्यवान् बनता है
पदार्थ
पदार्थ - (हरिभ्यां रथं) = जैसे दो अश्वों से रथ को जोड़ा जाता है वैसे मैं (हरिभ्याम्) = दो विद्वान् पुरुषों से (रथम्) = राष्ट्र को (युजे) = युक्त करूँ। समस्त प्रजा वर्ग (ब्रह्माणि जुजुषाणम्) = धनों को प्राप्त करनेवाले पुरुष का (उप अस्थुः) = आश्रय लेते हैं। वह (इन्द्रः) = ऐश्वर्यवान् पुरुष ही (महित्वा) = सामर्थ्य से (रोदसी) = शत्रु को रुलानेवाली उभय पक्ष की सेनाओं को (वि बाधिष्ट) = विविध प्रकार से वश में करे और वह शत्रु (अप्रति) = हताश होकर (वृत्राणि जघन्वान्) = राष्ट्र विघातक तत्त्वों का नाश करे।
भावार्थ
भावार्थ- वेदज्ञ विद्वान् वेदोपदेश द्वारा कृषि एवं शिल्प विद्या का ज्ञान देकर राष्ट्र को ऐश्वर्य सम्पन्न बनावें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे शूरवीरांनो ! जेव्हा तुम्ही युद्धासाठी जाता तेव्हा संपूर्ण सामानासह जावे. ज्यामुळे शत्रूंना ताबडतोब बाधा निर्माण होऊन तुम्ही विजयी व्हाल. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I ride the chariot of worship in pursuit of the light of truth harnessing the two carriers of mind and intellect alongwith the senses. My prayers reach the lord of love who accepts the supplicant with grace. The lord pervades both heaven and earth with his might, prevents evil, and destroys the demons of sin and darkness which we cannot even perceive with our human eyes of ordinary vision.
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