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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 23/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    आप॑श्चित्पिप्युः स्त॒र्यो॒३॒॑ न गावो॒ नक्ष॑न्नृ॒तं ज॑रि॒तार॑स्त इन्द्र। या॒हि वा॒युर्न नि॒युतो॑ नो॒ अच्छा॒ त्वं हि धी॒भिर्दय॑से॒ नि वाजा॑न् ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आपः॑ । चि॒त् । पि॒प्युः॒ । स्त॒र्यः॑ । न । गावः॑ । नक्ष॑न् । ऋ॒तम् । ज॒रि॒तारः॑ । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । या॒हि । वा॒युः । न । नि॒ऽयुतः॑ । नः॒ । अच्छ॑ । त्वम् । हि । धी॒ऽभिः । दय॑से । वि । वाजा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपश्चित्पिप्युः स्तर्यो३ न गावो नक्षन्नृतं जरितारस्त इन्द्र। याहि वायुर्न नियुतो नो अच्छा त्वं हि धीभिर्दयसे नि वाजान् ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आपः। चित्। पिप्युः। स्तर्यः। न। गावः। नक्षन्। ऋतम्। जरितारः। ते। इन्द्र। याहि। वायुः। न। निऽयुतः। नः। अच्छ। त्वम्। हि। धीऽभिः। दयसे। वि। वाजान् ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 23; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सेनापतीशः कीदृशान् योद्धॄन् रक्षेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! ये वीरा आपश्चिद्गमयन्तस्तर्यो गावो न पिप्युस्ते जरितार ऋतं नक्षंस्तैस्सह वायुर्न त्वं याहि हि त्वं धीभिर्नियुतो वाजान्नोऽच्छ विदयसे तस्माद्वयं तवाज्ञां नोल्लङ्घयामः ॥४॥

    पदार्थः

    (आपः) जलानि (चित्) इव (पिप्युः) वर्धयेयुः (स्तर्यः) आच्छादिताः (न) इव (गावः) किरणाः (नक्षन्) व्याप्नुवन्ति (ऋतम्) सत्यम् (जरितारः) स्तावकाः (ते) तव (इन्द्र) सर्वसेनेश (याहि) (वायुः) पवनः (न) इव (नियुतः) निश्चितान् (नः) अस्मान् (अच्छ) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (त्वम्) (हि) यतः (धीभिः) प्रज्ञाभिः (दयसे) कृपां करोषि (वि) (वाजान्) वेगवतः ॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे सेनाध्यक्षेश ! यदि भवान्सुपरीक्षिताञ्छूरवीरान् संरक्ष्य सुशिक्षाय कृपयोन्नीय शत्रुभिस्सह योधयेत्तर्ह्येते सूर्यकिरणवत्तेजस्विनो भूत्वा वायुवत्सद्यो गत्वा शत्रूँस्तूर्णं विनाशयेयुः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर सेनापति का ईश वीर कैसे युद्ध करनेवालों को रक्खे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सर्व सेनापति ! जो वीरजन (आपः) जलों के (चित्) समान सेनाजनों को चलाते हुए (स्तर्यः) ढँपी हुई (गावः) किरणों के (न) समान (पिप्युः) बढ़ावें और (ते) आप की (जरितारः) स्तुति करनेवाले जन (ऋतम्) सत्य को (नक्षन्) व्याप्त होते हैं उनके साथ (वायुः) पवन के (न) समान (त्वम्) आप (याहि) जाइये (हि) जिससे (धीभिः) उत्तम क्रियाओं से (नियुतः) निश्चित किये हुए (वाजान्) वेगवान् (नः) हम लोगों की (अच्छ) अच्छे प्रकार (वि, दयसे) विशेषता से दया करते हो, इससे हम लोग तुम्हारी आज्ञा को न उल्लङ्घन करें ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे सेनाध्यक्ष पति ! यदि आप सुरक्षित शूरवीर जनों की अच्छे प्रकार रक्षा कर अच्छी शिक्षा देकर और कृपा से उन्नति कर शत्रुओं के साथ युद्ध करावें तो ये सूर्य की किरणों के समान तेजस्वी होकर पवन के समान शीघ्र जा शत्रुओं को शीघ्र विनाशें ॥४॥

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    विषय

    आप्त विद्वान् प्रजाओं के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( स्तर्यः गावः न ) जिस प्रकार सुरक्षित गौएं गृहस्थ को (पिप्युः ) बढ़ाती हैं ( आपः चित्) और जिस प्रकार जलवत् देह में बहती रक्तधाराएं शरीर की वृद्धि करती हैं। उसी प्रकार ( आपः ) आप्त विद्वान् और प्रजाएं (स्तर्यः) शत्रु हिंसक और देश की रक्षा करने वाली सेनाएं तथा ( गावः ) गौएं, वा भूमियें भी देश को ( पिप्युः ) बढ़ाती, समृद्ध करती हैं । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ( जरितार: ) विद्वान् उपदेष्टा और शत्रुओं की जीवन हानि करने वाले वीर पुरुष ( ते ऋतं रक्षन् ) तेरे सत्य न्याय, ऐश्वर्य आदि को प्राप्त करें । ( त्वं ) तू ( नः ) हमारे ( नियुतः ) लक्षों प्रजाजनों को, नियुक्त भृत्यों को, तथा (नियुतः) अश्व-सैन्यों को भी ( वायुः) वायु अर्थात् प्राणवत् प्रिय होकर, वा वायु के समान बल से शत्रु को उखाड़ने में समर्थ होकर ( अच्छ याहि ) प्राप्त हो । और ( धीभिः ) अपने कर्मों और सम्मतियों से ( वाजान् ) ऐश्वर्यों को ( वि दयसे ) विविध प्रकार से दे और ( वाजान् वि दयसे ) वेगवान् अश्वों को विविध प्रकार से पालन कर, और संग्रामों को कर । ज्ञानवान् पुरुषों पर ( वि दयसे ) विशेष दया कृपा कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, ६ भुरिक् पंक्ति: । ४ स्वराट् पंक्ति:। २, ३ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वायु के समान शत्रु को उखाड़ फैंको

    पदार्थ

    पदार्थ-(स्तर्यः गावः न) = जैसे गौएँ गृहस्थ को (पिप्युः) = बढ़ाती हैं (आपः चित्) = और जैसे रक्तधाराएँ शरीर की वृद्धि करती हैं, वैसे ही (आप:) = विद्वान् और प्रजाएँ (स्तर्य:) = शत्रुहिंसक और देश की रक्षक सेनाएँ तथा (गावः) = गौएँ भी देश को (पिप्युः) = समृद्ध करती हैं। हे इन्द्र ऐश्वर्यवन् ! (जरितार:) = विद्वान् उपदेष्टा और शत्रुओं की जीवन-हानि करनेवाले वीर (ते ऋतं रक्षन्) = तेरे सत्य, न्याय को प्राप्त करें। (त्वं) = तू (नः) = हमारे (नियुतः) = लक्षों प्रजाजनों तथा (अश्व) = सैन्यों को भी (वायुः) = प्राणवत् प्रिय, वा वायु तुल्य बल से शत्रु को उखाड़ने में समर्थ होकर (अच्छ याहि) = प्राप्त हो और (धीभिः) = अपने कर्मों और सम्मतियों से (वाजान्) = ऐश्वर्यों को (वि दयसे) = विविध प्रकार से दे और (वाजान् वि दयसे) = वेगवान् अश्वों को पालन कर और ज्ञानवान् पुरुषों पर (वि दयसे) = विशेष कृपा कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- जैसे तेज हवा बड़े-बड़े वृक्षों को धराशायी कर देती है उसी प्रकार वेदज्ञ विद्वान् द्वारा प्रशिक्षित सेना शत्रुओं को पराजित करने में समर्थ होती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे सेनाध्यक्षा ! जर तू सुपरीक्षित शूरवीरांचे चांगल्या प्रकारे रक्षण करून त्यांच्यावर कृपा करून शत्रूबरोबर युद्ध करविलेस तर सूर्याच्या किरणांप्रमाणे तेजस्वी बनून वायूप्रमाणे शीघ्रतेने शत्रूंचा तात्काळ विनाश करशील. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of light and action, just as waters flow and rays of light radiate over darkness, so let your celebrants, men of holy action, rise and attain to the light of truth. O lord of the cosmic chariot, come like the wind to your servants of action with grace since you bless us with mercy and with gifts of intelligence, vision and the light of divinity.

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