ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
इन्द्रो॒ राजा॒ जग॑तश्चर्षणी॒नामधि॒ क्षमि॒ विषु॑रूपं॒ यदस्ति॑। ततो॑ ददाति दा॒शुषे॒ वसू॑नि॒ चोद॒द्राध॒ उप॑स्तुतश्चिद॒र्वाक् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑ । राजा॑ । जग॑तः । च॒र्ष॒णी॒नाम् । अधि॑ । क्षमि॑ । विषु॑ऽरूपम् । यत् । अस्ति॑ । ततः॑ । द॒दा॒ति॒ । दा॒शुषे॑ । वसू॑नि । चोद॑त् । राधः॑ । उप॑ऽस्तुतः । चि॒त् । अ॒र्वाक् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो राजा जगतश्चर्षणीनामधि क्षमि विषुरूपं यदस्ति। ततो ददाति दाशुषे वसूनि चोदद्राध उपस्तुतश्चिदर्वाक् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः। राजा। जगतः। चर्षणीनाम्। अधि। क्षमि। विषुऽरूपम्। यत्। अस्ति। ततः। ददाति। दाशुषे। वसूनि। चोदत्। राधः। उपऽस्तुतः। चित्। अर्वाक् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 27; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा सूर्यो जगतोऽधि क्षमि प्रकाशते तथेन्द्रो राजा चर्षणीनां मध्ये प्रकाशते यदत्र विषुरूपं व्याप्तस्वरूपं धनमस्ति ततो दाशुषे वसूनि ददाति उपस्तुतश्चिदिवार्वाक्सर्वान् राधः प्रति चोदत् स एव राज्यं कर्त्तुमर्हेत् ॥३॥
पदार्थः
(इन्द्रः) शत्रूणां विदारकः (राजा) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमानः (जगतः) संसारस्य मध्ये (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम् (अधि) उपरि (क्षमि) पृथिव्याम् (विषुरूपम्) व्याप्तस्वरूपम् (यत्) (अस्ति) (ततः) तस्मात् (ददाति) (दाशुषे) दात्रे (वसूनि) धनानि (चोदत्) प्रेरयेत् (राधः) धनम् (उपस्तुतः) समीपे प्रशंसितः (चित्) इव (अर्वाक्) योऽधोऽञ्चति सः ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये हि राजादयः सूर्यवद्राष्ट्रे प्रकाशितदण्डाः सुखप्रदातारः सन्ति ते हि सर्वं सुखं प्राप्नुवन्ति ॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य (जगतः) संसार के बीच (अधि, क्षमि) पृथिवी पर प्रकाशित होता है, वैसे (इन्द्रः) शत्रुओं का विदीर्ण करनेवाला (राजा) विद्या और नम्रता से प्रकाशमान राजा (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के बीच प्रकाशित होता (यत्) जो जो (विषुरूपम्) व्याप्तरूप धन (अस्ति) है (ततः) उससे (दाशुषे) देनेवाले के लिये (वसूनि) धनों को (ददाति) देता और (उपस्तुतः) समीप में प्रशंसा को प्राप्त हुए (चित्) के समान (अर्वाक्) नीचे प्राप्त होनेवाला सबको (राधः) धन के प्रति (चोदत्) प्रेरणा देवे, वही राज्य करने के योग्य होता है ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो राजा आदि जन सूर्य के सम्मान राज्य में दण्ड प्रकाश किये और सुख के देनेवाले होते हैं, वे ही सब सुख पाते हैं ॥३॥
पदार्थ
पदार्थ = ( इन्द्रः ) = परमेश्वर ( जगतः ) = सारे जगत् का और ( चर्षणीनाम् ) = मनुष्यों का ( क्षमि अधि ) = पृथिवी में ( यत् ) = जो ( वि सु-रूपम् ) = अनेक प्रकार का सुन्दर पदार्थ समुदाय ( अस्ति ) = है उसका ( राजा ) = प्रकाशक और स्वामी है ( ततः ) = उस पदार्थ समूह से ( दाशुषे ) = दाता मनुष्य को ( वसूनि ) = अनेक प्रकार के धनों को ( ददाति ) = देता है, ( चित् ) = यदि ( अर्वाक् ) = प्रथम वह ( राध: ) = धन का ( चोदत् ) = प्रेरक ( उपस्तुतः ) = स्तुति किया गया हो ।
भावार्थ
भावार्थ = जो यह सब स्थावर जंगम संसार है, इस सबका प्रकाशक और स्वामी परमेश्वर है, वह सब को उनके कर्मानुसार अनेक प्रकार के धनादि सुन्दर पदार्थ प्रदान करता है । सब मनुष्यों को चाहिये कि उस प्रभु की वेदानुकूल स्तुति प्रार्थना उपासनादि करें, इसलिए अनेक सुन्दर पदार्थों की प्राप्ति के लिए भी, हमें जगत्पति की प्रार्थनादि करनी चाहिये ।
विषय
राजा के अधिकार ।
भावार्थ
( इन्द्रः ) शत्रुओं का नाशक पुरुष (राजा) सूर्यवत् तेजस्वी, विद्या विनय से प्रकाशित और ( जगतः ) जगत् या जंगम संसार और ( चर्षणीनाम् ) मनुष्यों का भी स्वामी हो । ( अधि क्षमि ) पृथिवी पर ( यत् ) जो भी ( विषु-रूपं ) विविध प्रकार का धन है वह भी उसी का है । (ततः) उसमें से ही वह ( दाशुषे ) दानशील पुरुष को भी ( वसूनि ददाति ) नाना धन देता है । वह ( उप-स्तुतः ) प्रशंसित होकर ( अर्वाक् ) हमें प्राप्त होकर ( राधः चोदत् ) धन प्राप्त करने की प्रेरणा करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, ५ विराट् त्रिष्टुप् । निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४ त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
प्रजा दानशील हो
पदार्थ
पदार्थ- (इन्द्रः) = शत्रु-नाशक पुरुष (राजा) = सूर्यवत् तेजस्वी, और (जगत:) = जंगम संसार और (चर्षणीनाम्) = मनुष्यों का स्वामी हो। (अधि क्षमि) = पृथिवी पर (यत्) = जो (विषु-रूपं) = विविध प्रकार का धन है वह उसी का है। (ततः) = उसमें से वह (दाशुषे) = दानशील पुरुष को (वसूनि ददाति) = धन देता है। वह (उप-स्तुतः) = प्रशंसित (अर्वाक्) = हमें प्राप्त होकर (राधः चोदत्) = धन प्राप्ति की प्रेरणा करे।
भावार्थ
भावार्थ- दान से धन की वृद्धि होती है ऐसा जानकर सभी मनुष्यों को दानशील चाहिए। परमेश्वर दानशील के धन की पर्याप्त वृद्धि करता है। -
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे राजे इत्यादी सूर्याप्रमाणे राज्यात दंडाची व्यवस्था करतात व सुखी करतात तेच सुख प्राप्त करतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra is the sovereign ruler of the moving world and her people on the earth. Whatever various and manifold wealth there is on the earth, he alone is the master mler. And therefrom he gives profusely of wealth, honour and excellence to the generous man of charity, inspires our potential strength and success, and when he is closely adored in meditation, he reveals his presence to our direct vision and experience.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal