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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 27/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नू इ॑न्द्र रा॒ये वरि॑वस्कृधी न॒ आ ते॒ मनो॑ ववृत्याम म॒घाय॑। गोम॒दश्वा॑व॒द्रथ॑व॒द्व्यन्तो॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । इ॒न्द्र॒ । रा॒ये । वरि॑वः । कृ॒धि॒ । नः॒ । आ । ते॒ । मनः॑ । व॒वृ॒त्या॒म॒ । म॒घाय॑ । गोऽम॑त् । अश्व॑ऽवत् । रथ॑ऽवत् । व्यन्तः॑ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू इन्द्र राये वरिवस्कृधी न आ ते मनो ववृत्याम मघाय। गोमदश्वावद्रथवद्व्यन्तो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु। इन्द्र। राये। वरिवः। कृधि। नः। आ। ते। मनः। ववृत्याम। मघाय। गोऽमत्। अश्वऽवत्। रथऽवत्। व्यन्तः। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 27; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजप्रजाजनाः परस्परं किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! त्वं राये नो वरिवस्कृधि यत्ते मनोऽस्ति तन्मघाय वयं न्वाववृत्याम। गोमदश्वावद् रथवद्व्यन्तो यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात ॥५॥

    पदार्थः

    (नु) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (इन्द्र) धनोन्नतये प्रेरक (राये) धनाय (वरिवः) परिचरणम् (कृधि) कुरु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्माकमस्मभ्यं वा (आ) (ते) तव (मनः) चित्तम् (ववृत्याम) वर्त्तयेम (मघाय) धनाय (गोमत्) बहुगवादियुक्तम् (अश्वावत्) बह्वश्वसहितम् (रथवत्) प्रशस्तरथादियुक्तम् (व्यन्तः) प्राप्नुवन्तः (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) ॥५॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यथा वयं भवन्तं राज्योन्नतये प्रवर्त्तयेम तथा त्वमस्मान् धनप्राप्ये प्रवर्त्तय। सर्वे भवन्तः परमैश्वर्यं प्राप्यास्माकं रक्षणे सततं प्रयतन्तामिति ॥५॥ अत्रेन्द्रसेनेशराजोपदेशकदातृरक्षकप्रवर्त्तकगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सहसङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तविंशतितमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा प्रजाजन परस्पर क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) धन की उन्नति के लिये प्रेरणा देनेवाले ! आप (राये) धन के लिये (नः) हमारी (वरिवः) सेवा (कृधि) करो जो (ते) आप का (मनः) चित् है उसको (मघाय) धन के लिये हम लोग (नु) शीघ्र (आ, ववृत्याम) सब ओर से वर्तें (गोमत्) बहुत गो आदि वा (अश्वावत्) बहुत घोड़ों से युक्त वा (रथवत्) प्रशंसित रथ आदि युक्त धन को (व्यन्तः) प्राप्त होते हुए (यूयम्) तुम लोग (स्वस्तिभिः) उत्तम सुखों से (नः) हम लोगों की (सदा) सर्वदा (पात) रक्षा करो ॥५॥

    भावार्थ

    हे राजा ! जैसे हम लोग आपको राज्य की उन्नति के लिये प्रवृत्त करावें, वैसे हम लोगों को धन प्राप्ति के लिये प्रवृत्त कराओ। सब आप लोग परमैश्वर्य्य को प्राप्त होकर हमारी रक्षा में निरन्तर प्रयत्न करो ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, सेनापति, राजा, दाता, रक्षा करनेवाले और प्रवृत्ति करानेवाले के गुणों का और कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सत्ताईसवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    प्रजा का सेवक राजा ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( नु ) शीघ्र ही (राये ) ऐश्वर्य को प्राप्त करने और उसकी वृद्धि करने के लिये ( नः वरिवः कृधि ) हम प्रजाजनों की सेवा कर । प्रजा के ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये राजा भी प्रजा की सेवा करे । हम भी ( ते मनः ) तेरे मन को ( मघाय ) उत्तम आदर योग्य प्रशंसनीय उपाय से प्राप्त हुए धन के लिये ही (आ ववृत्याम) आकर्षण करें । आदरपूर्वक वार २ व्यवहार युक्त करें । हे विद्वान् वीर पुरुषो ! ( गोमत् ) गौओं और भूमियों से युक्त ( अश्ववत् ) अश्वों से युक्त, ( रथवत् ) रथों से सम्पन्न ऐश्वर्य का ( व्यन्तः ) उपभोग, रक्षण और प्राप्ति करते हुए ( यूयम् ) आप लोग ( स्वस्तिभिः ) उत्तम कल्याणकारी साधनों से (नः पात) हमारी रक्षा करें । इत्येकादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः – १, ५ विराट् त्रिष्टुप् । निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४ त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    राजा प्रजापालक हो

    पदार्थ

    पदार्थ-हे (इन्द्र) = ऐश्वर्यवन् ! तू (नु) = शीघ्र ही (राये) = ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये (नः वरिवः कृधि) = हम प्रजाजनों का कल्याण कर। हम भी (ते मनः) = तेरे मन को (मघाय) = धन के लिये (आ ववृत्याम) = आकर्षण करें। हे विद्वान् पुरुषो! (गोमत्) = गौओं, भूमियों से युक्त (अश्ववत्) = अश्वों से युक्त, (रथवत्) = रथों से सम्पन्न ऐश्वर्य का (व्यन्तः) = उपभोग करते हुए (यूयम्) = आप लोग (स्वस्तिभिः) = उत्तम साधनों से (नः पात) = हमारी रक्षा करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रजा को सुखी करना राजा का प्रथम कर्त्तव्य है। अतः राजा को योग्य है कि वह अन्न, धन, वस्त्र, निवास, व्यापार, स्वास्थ्य तथा शिक्षा की सुव्यवस्था करके प्रजा का विश्वास जीतकर उत्तमता के साथ पालन करे। अगले सूक्त का भी ऋषि वसिष्ठ और देवता इन्द्र ही है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! जसे आम्ही तुला राज्याच्या उन्नतीसाठी प्रवृत्त करतो तसे तू आम्हाला धनप्राप्तीसाठी प्रवृत्त कर. तुम्ही सर्व लोक परम ऐश्वर्य प्राप्त करून आमच्या रक्षणासाठी निरंतर प्रयत्न करा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, generous lord of munificence, we turn ourselves to you seeking your love and kindness to achieve the honour and treasures of life. Pray open the paths of advancement for us to wealth and victory of lands and cows, horses and chariots of the good life. O lord, O leading lights, be gracious and protect and promote us with all good fortune and well being for ever.

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