ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
वि यस्य॑ ते पृथि॒व्यां पाजो॒ अश्रे॑त्तृ॒षु यदन्ना॑ स॒मवृ॑क्त॒ जम्भैः॑। सेने॑व सृ॒ष्टा प्रसि॑तिष्ट एति॒ यवं॒ न द॑स्म जु॒ह्वा॑ विवेक्षि ॥४॥
स्वर सहित पद पाठवि । यस्य॑ । ते॒ । पृ॒थि॒व्याम् । पाजः॑ । अश्रे॑त् । तृ॒षु । यत् । अन्ना॑ । स॒म्ऽअवृ॑क्त । जम्भैः॑ । सेना॑ऽइव । सृ॒ष्टा । प्रऽसि॑तिः । ते॒ । ए॒ति॒ । यव॑म् । न । द॒स्म॒ । जु॒ह्वा॑ । वि॒वे॒क्षि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि यस्य ते पृथिव्यां पाजो अश्रेत्तृषु यदन्ना समवृक्त जम्भैः। सेनेव सृष्टा प्रसितिष्ट एति यवं न दस्म जुह्वा विवेक्षि ॥४॥
स्वर रहित पद पाठवि। यस्य। ते। पृथिव्याम्। पाजः। अश्रेत्। तृषु। यत्। अन्ना। सम्ऽअवृक्त। जम्भैः। सेनाऽइव। सृष्टा। प्रऽसितिः। ते। एति। यवम्। न। दस्म। जुह्वा। विवेक्षि ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सा विद्युत्कीदृशी कथं प्रकटनीयेत्याह ॥
अन्वयः
हे दस्म विद्वन् ! यां जुह्वा यवं न विद्युद्विद्यां विवेक्षि सा ते सृष्टा प्रसितिः सती सेनेवैति यद्याजम्भैरन्ना समवृक्त यस्य ते विद्युद्रूपस्याग्नेः पाजः पृथिव्यां तृषु व्यश्रेत्तां त्वं विजानीहि ॥४॥
पदार्थः
(वि) (यस्य) (ते) तस्या विद्युतः। अत्र पुरुषव्यत्ययः। (पृथिव्याम्) (पाजः) बलम्। पाज इति बलनाम। (निघं०२.९) (अश्रेत्) श्रयति (तृषु) क्षिप्रम् (यत्) (अन्ना) अन्नानि (समवृक्त) सम्यग्वृङ्क्ते (जम्भैः) गात्रविक्षेपैः (सेनेव) (सृष्टा) सम्प्रयुक्ता (प्रसितिः) प्रकर्षं बन्धनम् (ते) तव (एति) (यवम्) अन्नविशेषम् (न) इव (दस्म) दुःखोपक्षयितः (जुह्वा) होमसाधनेन (विवेक्षि) व्याप्नोषि ॥४॥
भावार्थः
ये विद्वांसो विद्युद्विद्यां जानन्ति त उत्तमा सेनेव शत्रून् सद्यो जेतुं शक्नुवन्ति यथा घृतादिनाऽग्निः प्रदीप्यते तथा घर्षणादिना विद्युत्प्रदीपनीया ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह विद्युत् कैसी है और कैसे प्रकट करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (दस्म) दुःखों के नाश करनेहारे विद्वन् ! जिस (जुह्वा) होमसाधन से (यवम्) यवों को (न) जैसे, वैसे विद्युद्विद्या को (विवेक्षि) व्याप्त होते हो वह (ते) तुम्हारी (सृष्टा) प्रयुक्त क्रिया (प्रसितिः) प्रबल बन्धन होती हुई (सेनेव) सेना के तुल्य (एति) प्राप्त होती है और (यत्) जो (जम्भैः) गात्रविक्षेपों से (अन्ना) अन्नों को (समवृक्त) अच्छे प्रकार वर्जित करता अर्थात् शरीर से छुड़ाता है (यस्य) जिस (ते) उस विद्युत् के (पाजः) बल को (पृथिव्याम्) पृथिवी में (तृषु) शीघ्र (वि, अश्रेत्) आश्रय करता है, उसको तुम जानो ॥४॥
भावार्थ
जो विद्वान् लोग विद्युद्विद्या को जानते हैं, वे उत्तम सेना के तुल्य शत्रुओं को शीघ्र जीत सकते हैं। जैसे घी आदि से अग्नि प्रज्वलित होता, वैसे घर्षण आदि से विद्युत् अग्नि प्रकट करना चाहिये ॥४॥
विषय
जठराग्निवत् राजा का राष्ट्र शासन का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार अग्नि (पाजः तृषु वि अश्रेत् ) शीघ्र ही पृथिवी में विविध दिशाओं में फैल जाता है, जैसे जाठराग्नि ( जम्भैः अन्ना सम् अवृक्त ) दाता द्वारा अन्नों को ग्रहण कर समस्त शरीर में फैला देता है, जैसे अग्नि की ( प्रसितिः) ज्वाला या विद्युत् की ( प्रसितिः) उत्तम जकड़ या आकर्षण ( सेना इव ) सेना के समान फैलता है और जैसे वह ( जुह्वा ) ज्वाला से चमकता वा यवादिकों को भस्म करता है। उसी प्रकार हे राजन् ! सेनापते ! ( यस्य ते ) जिस तेरा (पाजः ) बल ( तृषु ) अतिशीघ्र ( पृथिव्याम् वि अश्रेत्) इस पृथिवी पर विविध प्रकार से विराजता है, ( यत् ) जो (जम्भैः ) अन्नों को दांतों के समान हिंसाकारी शस्त्रों अस्त्रों के बल से अन्नवत् भोग्य देशों को ( सम् अवृक्त ) पृथक् २ विभक्त करता है । ( ते प्रसितः ) तेरा उत्तम प्रबन्ध, व्यवस्था ( सेना इव सृष्टा ) सेना के समान ही उत्तम व्यवस्थित होकर ( एति ) प्राप्त होता है । वह तू ( जुह्वा ) अपनी वाणी से ( यवं ) यव को मुख के समान खाद्य या बिनाश्य शत्रु का हे ( दस्म ) शत्रुनाशक ! ( विवेक्षि ) नाश करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषि: ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ९, १० विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः ।। । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
प्रभु का तेज व ज्ञान ज्वाला
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (यस्य ते) = जिन आपका (पाजः) = बल (पृथिव्याम्) = इस शरीररूप पृथिवी में (तृषु) = शीघ्र ही (अश्रेत्) = आश्रय करता है, (यद्) = जब कि यह उपासक (जम्भैः) = अपने दाँतों से (अन्ना) = अन्नों को ही (सं अवृक्त) = [खादति] खाता है। शरीर-पोषण के लिये अन्नों का ही प्रयोग करनेवाला यह उपासक अपने में प्रभु की शक्ति का अनुभव करने लगता है। [२] हे प्रभो ! उस समय (ते) = आपकी (प्रसितिः) = ज्ञान की ज्वाला, सृष्टा सेना (इव) = शत्रु के प्रति आक्रमण के लिये आज्ञा दी गयी सेना के समान (एति) = काम-क्रोध-लोभ आदि पर आक्रमण करती है। हे (दस्म) = दर्शनीय प्रभो ! (यवं न) = यव के समान- बुराई को दूर करनेवाले व अच्छाई को हमारे साथ मिलानेवाले के समान (जुह्वा) = अपनी ज्ञान-ज्वाला से (विवेक्षि) = हमारे हृदयों को व्याप्त करते हैं। आपका प्रादुर्भाव होते ही सब वासना समूह विलीन हो जाती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम सात्त्विक अन्नों का ही सेवन करते हैं तो प्रभु का तेज हमारे शरीर में आश्रय करता है। उस समय प्रभु की ज्ञान-ज्वाला में सब वासनाएँ भस्म हो जाती हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वान विद्युत विद्या जाणतात ते उत्तम सेनेप्रमाणे शत्रूंना जिंकू शकतात. जसा तुपाने अग्नी प्रज्वलित होतो तसा घर्षणाने विद्युत अग्नी प्रकट केला पाहिजे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Your power and force spreads in and all over the earth instantly as you consume the inputs by the jaw-like motion of your flames and release the energy. The radiation of energy moves like a fighting force forward on the advance when, O mighty power, you receive the materials and convert them into energy as grain is converted into vitality.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal