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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 3/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    निर्यत्पू॒तेव॒ स्वधि॑तिः॒ शुचि॒र्गात्स्वया॑ कृ॒पा त॒न्वा॒३॒॑ रोच॑मानः। आ यो मा॒त्रोरु॒शेन्यो॒ जनि॑ष्ट देव॒यज्या॑य सु॒क्रतुः॑ पाव॒कः ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    निः । यत् । पू॒ताऽइ॑व । स्वऽधि॑तिः । शुचिः॑ । गात् । स्वया॑ । कृ॒पा । त॒न्वा॑ । रोच॑मानः । आ । यः । मा॒त्रोः । उ॒शेन्यः॑ । जनि॑ष्ट । दे॒व॒ऽयज्या॑य । सु॒ऽक्रतुः॑ । पा॒व॒कः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निर्यत्पूतेव स्वधितिः शुचिर्गात्स्वया कृपा तन्वा३ रोचमानः। आ यो मात्रोरुशेन्यो जनिष्ट देवयज्याय सुक्रतुः पावकः ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निः। यत्। पूताऽइव। स्वऽधितिः। शुचिः। गात्। स्वया। कृपा। तन्वा। रोचमानः। आ। यः। मात्रोः। उशेन्यः। जनिष्ट। देवऽयज्याय। सुऽक्रतुः। पावकः ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 9
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः कीदृशो राजा मन्तव्य इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यद्यः पूतेव स्वधितिः शुचिर्नि गाद्यः स्वया कृपा तन्वा रोचमानो मात्रोरुशेन्यः पावक इव सुक्रतुर्देवयज्यायऽऽजनिष्ट स एवाऽत्र प्रशंसनीयो भवेत् ॥९॥

    पदार्थः

    (निः) (नितराम्) (यत्) यः (पूतेव) पवित्रेव (स्वधितिः) वज्रः (शुचिः) पवित्रः (गात्) प्राप्नोति (स्वया) स्वकीयया (कृपा) कृपया (तन्वा) शरीरेण (रोचमानः) प्रकाशमानः (आ) (यः) (मात्रोः) जननिपालिकयोः (उशेन्यः) कमनीयः (जनिष्ट) जायते (देवयज्याय) देवानां समागमाय (सुक्रतुः) उत्तमप्रज्ञः (पावकः) पावक इव प्रकाशितयशाः ॥९॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यं वज्रवद्दृढं वह्निवत्पवित्रं कृपालुं दर्शनीयशरीरं विद्वांसं धर्मात्मानं विजानीयुस्तमेवेषां राजानं मन्यन्ताम् ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को कैसा राजा मानना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यत्) जो (पूतेव) पवित्रता के तुल्य (स्वधितिः) वज्र (शुचिः) पवित्र पुरुष (नि, गात्) निरन्तर प्राप्त होता है (यः) जो (स्वया) अपनी (कृपा) कृपा से (तन्वा) शरीर करके (रोचमानः) प्रकाशमान (मात्रोः) जननी और धात्री में (उशेन्यः) कामना के योग्य (पावकः) अग्नि के तुल्य प्रकाशित यशवाले (सुक्रतुः) उत्तम प्रज्ञावाले (देवयज्याय) बुद्धिमानों के समागम के लिये (आ, जनिष्ट) प्रकट होता है, वही इस जगत् में प्रशंसा के योग्य होवे ॥९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जिसको वज्र के समान दृढ़, अग्नि के समान पवित्र, कृपालु, दर्शनीय शरीर, विद्वान् धर्मात्मा जानो, उसी को इनमें से राजा मानो ॥९॥

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    विषय

    शस्त्रधारा के तुल्य राजा की शक्ति।

    भावार्थ

    ( यत् ) जो ( पूता इव स्वधितिः) शुद्ध स्वच्छ शस्त्र की धार के समान ( शुचिः ) कान्तियुक्त, (निर्गात् ) अपने गृह से निकले, और ( स्वया कृपा ) अपनी कृपा, वा सामर्थ्य और ( तन्वा ) देह से ( रोचमानः ) अग्निवत् तेज से चमकता है, ( यः ) जो ( मात्रोः ) माता पिता के बीच ( उशेन्यः ) कामना करने योग्य पुत्र के समान ( आ जनिष्ट ) स्नेहपूर्वक अरणियों के बीच अग्नि के समान ही प्रकट होता है, वह ( सु-क्रतुः ) उत्तम कर्मों को करता हुआ (पावकः) अग्नि वत् पवित्र करने वाला होकर ( देव-यज्याम् ) विद्वानों के आदर तथा सत्संग के लिये यत्नशील रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ९, १० विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः ।। । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    पूता स्वधितिः इव

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब (पूता स्वधितिः इव) = पवित्र परशु के समान, खूब तीक्ष्ण परशु के समान, (शुचिः) = वे पवित्र प्रभु (निर्गात्) = प्रकृति के महान् संवरण से बाहिर आ जाते हैं, अर्थात् जब एक उपासक इस हिरण्मय पात्र के आवरण को हटाकर प्रभु का दर्शन करता है तो प्रभु उसके जीवन में (स्वया) = अपनी कृपा-शक्ति से, सामर्थ्य से तथा (तन्वा) = शक्तियों के विस्तार से (रोचमानः) = दीप्त होते हैं। यह उपासक प्रभु की शक्ति से दीप्त होता हुआ विस्तृत सामर्थ्यवाला होता है और यह सब वासनाओं को कुल्हाड़े से काट डालता है। [२] (यः) = जो (उशेन्यः) = कमनीय प्रभु हैं, वे (सुक्रतुः) = उत्तम शक्ति व प्रज्ञानवाले हैं, (पावकः) = हमें पवित्र करनेवाले हैं। (मात्रोः) = ये प्रभु 'विद्या व श्रद्धा' रूप दो माताओं से आजनिष्ट सर्वत्र प्रादुर्भूत होते हैं। (देवयज्याय) = ये प्रभु देववृत्ति के व्यक्तियों के साथ संगतिकरणवाले होते हैं। अर्थात् देववृत्ति के व्यक्तियों को प्राप्त होते हैं। वस्तुतः प्रभु सम्पर्क में ही दिव्यगुणों की उत्पत्ति होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु 'पवित्र परशु' के समान हैं। उपासक के अन्दर शक्ति व गुणों के विस्तार से दीप्त होते हैं। विद्या व श्रद्धा के मेल से प्रभु का प्रकाश होता है। ये उत्तम शक्ति व प्रज्ञानवाले पावक प्रभु हमारे साथ दिव्यगुणों का सम्पर्क करते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जो वज्राप्रमाणे दृढ, अग्नीप्रमाणे पवित्र, कृपाळू, दर्शनीय शरीराचा, विद्वान, धर्मात्मा असेल तर त्यालाच राजा माना. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, refulgent ruler of the world, emerging like fire from its mother source of arani woods or like heat and light from earth and heaven, arises from the land and her people and goes forward blazing like a thunderbolt of crystal, pure and purifying, bright by the grace of his body and mind, illuminating, sanctifying, dedicated to the service of divine nature and noble humanity.

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