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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 36/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    प्र ब्रह्मै॑तु॒ सद॑नादृ॒तस्य॒ वि र॒श्मिभिः॑ ससृजे॒ सूर्यो॒ गाः। वि सानु॑ना पृथि॒वी स॑स्र उ॒र्वी पृ॒थु प्रती॑क॒मध्येधे॑ अ॒ग्निः ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ब्रह्म॑ । ए॒तु॒ । सद॑नात् । ऋ॒तस्य॑ । वि । र॒श्मिऽभिः॑ । स॒सृ॒जे॒ । सूर्यः॑ । गाः । वि । सानु॑ना । पृ॒थि॒वी । स॒स्रे॒ । उ॒र्वी । पृ॒थु । प्रती॑कम् । अधि॑ । आ । ई॒धे॒ । अ॒ग्निः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र ब्रह्मैतु सदनादृतस्य वि रश्मिभिः ससृजे सूर्यो गाः। वि सानुना पृथिवी सस्र उर्वी पृथु प्रतीकमध्येधे अग्निः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। ब्रह्म। एतु। सदनात्। ऋतस्य। वि। रश्मिऽभिः। ससृजे। सूर्यः। गाः। वि। सानुना। पृथिवी। सस्रे। उर्वी। पृथु। प्रतीकम्। अधि। आ। ईधे। अग्निः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 36; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्यः किं कुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    अग्निरिव विद्वान् यथा सूर्यो रश्मिभिः पृथु प्रतीकं गाश्च विससृजे अध्येधे यथोर्वी पृथिवी सानुना विसस्रे तथा भवान् ऋतस्य सदनात् ब्रह्म प्रैतु ॥१॥

    पदार्थः

    (प्र) (ब्रह्म) धनम् (एतु) प्राप्नोतु (सदनात्) स्थानात् (ऋतस्य) सत्यस्य (वि) (रश्मिभिः) किरणैः (ससृजे) सृजति (सूर्यः) सविता (गाः) रश्मीन् (वि) (सानुना) शिखरेण सह (पृथिवी) (सस्रे) सरति गच्छति (उर्वी) बहुपदार्थयुक्ता (पृथु) विस्तीर्णम् (प्रतीकम्) प्रतीतिकरम् (अधि) (आ) (ईधे) प्रकाशयति (अग्निः) अग्निरिव विद्वान् ॥१॥

    भावार्थः

    यो जगदीश्वरः स्वप्रकाशः सूर्यादीनां प्रकाशको निर्माता जगत्प्रकाशनार्थमग्निं सूर्यलोकञ्च रचयति तमुपास्य सत्याचारेण मनुष्या ऐश्वर्यं प्राप्नुवन्तु ॥१॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    अब नव ऋचावाले छत्तीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्य क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (अग्निः) अग्नि के समान विद्वान् जन जैसे (सूर्यः) सूर्य (रश्मिभिः) किरणों से (पृथु) विस्तृत (प्रतीकम्) प्रतीति करनेवाले पदार्थ (गाः) किरणों को (वि, सृसजे) विविध प्रकार रचता वा छोड़ता वा (अधि, आ, ईधे) अधिकता से प्रकाशित होता है और जैसे (उर्वी) बहुपदार्थयुक्त (पृथिवी) पृथिवी (सानुना) शिखर के साथ (वि, सस्रे) विशेषता से चलती है, वैसे आप (ऋतस्य) सत्य के (सदनात्) स्थान से (ब्रह्म) धन को (प्र, एतु) अच्छे प्रकार प्राप्त हो ॥१॥

    भावार्थ

    जो जगदीश्वर आप ही प्रकाशमान और सूर्यादिकों का प्रकाश करने वा बनानेवाला जगत् के प्रकाश के लिये अग्नि और सूर्यलोक को रचता है, उसी की उपासना कर सत्य आचरण से मनुष्य ऐश्वर्य को प्राप्त होवें ॥१॥

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विश्वेदेवांचे कर्म व गुण यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जो जगदीश्वर स्वतः प्रकाशवान, सूर्य इत्यादींचा प्रकाशक, निर्माता, जगाच्या प्रकाशासाठी अग्नी व सूर्यलोक निर्माण करतो त्याची उपासना करून सत्याचरणाने माणसांनी ऐश्वर्य प्राप्त करावे. ॥ १ ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let the knowledge of existence arise from the divine centre of universal truth : the sun radiates light with its rays and illuminates the earths, the wide earth moves on with her peaks of mountains, and fire rises and blazes over the vedi, symbol of cosmic yajna.

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