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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मां वां॑ मित्रावरुणा सुवृ॒क्तिमिषं॒ न कृ॑ण्वे असुरा॒ नवी॑यः। इ॒नो वा॑म॒न्यः प॑द॒वीरद॑ब्धो॒ जनं॑ च मि॒त्रो य॑तति ब्रुवा॒णः ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माम् । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । सु॒ऽवृ॒क्तिम् । इष॑म् । न । कृ॒ण्वे॒ । अ॒सु॒रा॒ । नवी॑यः । इ॒नः । वा॒म् । अ॒न्यः । प॒द॒वीः । अद॑ब्धः । जन॑म् । च॒ । मि॒त्रः । य॒त॒ति॒ । ब्रु॒वा॒णः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमां वां मित्रावरुणा सुवृक्तिमिषं न कृण्वे असुरा नवीयः। इनो वामन्यः पदवीरदब्धो जनं च मित्रो यतति ब्रुवाणः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम्। वाम्। मित्रावरुणा। सुऽवृक्तिम्। इषम्। न। कृण्वे। असुरा। नवीयः। इनः। वाम्। अन्यः। पदवीः। अदब्धः। जनम्। च। मित्रः। यतति। ब्रुवाणः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कं भजेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे असुरा मित्रावरुणा ! योऽन्यः पदवीरदब्धो मित्र इनो ब्रुवाणः सन् वां जनञ्च नवीयः प्रापयितुं यतति वामिमां सुवृक्तिं सत्यां वाचमिषन्न प्र यच्छति यामहं परोपकाराय कृण्वे तां युवामहं च नित्यं भजेम ॥२॥

    पदार्थः

    (इमाम्) (वाम्) युवयोः (मित्रावरुणा) प्राणोदानाविवाध्यापकोपदेशकौ (सुवृक्तिम्) सुष्ठु वर्जन्ति दुःखानि यया ताम् वाचं (इषम्) इच्छामन्नं वा (न) इव (कृण्वे) करोमि (असुरा) यावसुषु रमेते तौ (नवीयः) अतिशयेन नवीनम् (इनः) ईश्वरः (वाम्) युवयोः (अन्यः) (पदवीः) यः पदं व्येति सः (अदब्धः) अहिंसितः (जनम्) (च) (मित्रः) सखा (यतति) यतते। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (ब्रुवाणः) उपदिशन् ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! भवन्तो यस्सर्वेभ्यः पृथक् सर्वव्यापी सर्वसुहृज्जगदीश्वरः सर्वेषां हिताय सदा वर्तते तमेवोपास्य मोक्षपदवीं प्राप्नुवन्तु ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य किस को सेवें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (असुरा) प्राणों में रमते हुए (मित्रावरुणा) प्राण और उदान के समान अध्यापक और उपदेशको ! जो (अन्यः) और जन (पदवी) पद को प्राप्त होता और (अदब्धः) अहिंसित (मित्रः) सखा (इनः) ईश्वर (ब्रुवाणः) उपदेश करता हुआ (वाम्) तुम दोनों को (जनम्, च) और जन को भी (नवीयः) अत्यन्त नवीन व्यवहार की प्राप्ति कराने का (यतति) यत्न कराता तथा (वाम्) तुम दोनों की (इमाम्) इस प्रत्यक्ष (सुवृक्तिम्) जिससे सुन्दरता से दुःखों की निवृत्ति करते हैं उस सत्य वाणी को (इषम्) इच्छा वा अन्न के (न) समान देता है, जिसको कि मैं परोपकार के लिये (कृण्वे) सिद्ध करता हूँ, उस को मैं और तुम नित्य सेवें ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप जो सब के लिये अलग सर्वव्यापी सब का मित्र जगदीश्वर सब के हित के लिये सदैव प्रवृत्त है, उसी की उपासना कर मोक्ष पद को प्राप्त होवें ॥२॥

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    विषय

    मित्रवरुण, प्राण उदान, माता पितावत् सभा-सेनाध्यक्ष और प्रभु और जीव ।

    भावार्थ

    हे ( मित्रा वरुणा ) मित्र वरुण, स्नेह युक्त और दुःखवारक शरीर में प्राण उदान और गृह में माता पितावत् सभा सेनाध्यक्ष जनो ! हे ( असुरा ) बलवान् जनो ! मैं ( वां ) आप दोनों की (नवीयः ) अति नवीन, स्तुत्य ( सुवृक्तिम् ) दुःख अज्ञान के निवारक ( इषम् ) इच्छा वा अन्न को करूं । (वाम् ) आप दोनों में से ( अन्यः ) एक तो ( इनः ) स्वामी ( पदवीः ) पद को प्राप्त ( अदब्धः ) अविनाशी है । ( मित्रः ) सर्वस्नेही (ब्रुवाणः ) उपदेश करता हुआ (जनं च यतति ) प्रत्येक जन को उद्यम कराता है । इसी प्रकार मित्र परमेश्वर है और वरुण जीव है । परमेश्वर जगत् का स्वामी, परम पद रूप से ज्ञानी, अविनाशी, सर्वोपदेष्टा है । दूसरा जीव भी प्राणों का स्वामी होने से 'इन', ज्ञान प्राप्त करने से पदवी, प्रत्येक जन्तु को सञ्चालित करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषि: ।। विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – २ त्रिष्टुप् । ३, ४, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । ८, ९ विराट् त्रिष्टुप् । ५ पंक्तिः । १, ७ भुरिक् पंक्तिः ॥

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    विषय

    मित्रा वरुण का वर्णन

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (मित्रा-वरुणा) = स्नेह-युक्त और दुःखवारक, शरीर में प्राण, उदान और सभा, सेनाध्यक्ष जनो! हे (असुरा) = बलवान् जनो! मैं (वां) = आप दोनों की (नवीयः) = नवीन, (सुवृक्तिम्) = दुःखनिवारक (इषम्) = इच्छा (वा) = अन्न को प्राप्त करूँ । (वाम्) = आप दोनों में से (अन्यः) = एक (इनः) = स्वामी (पदवीः) = पद को प्राप्त (अदब्धः) = अविनाशी है, (मित्रः) = सर्वस्नेही (ब्रुवाणः) = उपदेश करता हुआ (जनं च यतति) = प्रत्येक जन को उद्यम कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- राष्ट्र में राजसभा का अध्यक्ष राजा तथा सेना का अध्यक्ष सेनापति ये दोनों बलवान् होवें। इन दोनों में राजा तो स्वामी है अतः वह राष्ट्र में दुःख तथा अज्ञान के निवारण व उत्तम अन्न की व्यवस्था करे। सेनाध्यक्ष अपनी प्रिय सेना के सैनिकों को निरन्तर उद्यम कराता रहे। इस प्रकार से ये दोनों मिलकर राष्ट्र को सुदृढ़ करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो सर्वांहून पृथक, सर्वव्यापी, सर्वांचा मित्र जगदीश्वर सर्वांच्या हितासाठी सदैव प्रवृत्त असतो त्याचीच उपासना करून मोक्षपद प्राप्त करा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, sun and cosmic energy and intelligence, both givers of life energy to the living world, I offer this new song of adoration as homage to you. One of you, Varuna, is resistless, all pervasive and coexistent with every stage of life’s evolution, and the other, Mitra, the sun, as a friend enjoins humanity to the life of activity proclaiming its rise as direct presence.

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