ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 4/ मन्त्र 9
त्वम॑ग्ने वनुष्य॒तो नि पा॑हि॒ त्वमु॑ नः सहसावन्नव॒द्यात्। सं त्वा॑ ध्वस्म॒न्वद॒भ्ये॑तु॒ पाथः॒ सं र॒यिः स्पृ॑ह॒याय्यः॑ सह॒स्री ॥९॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ग्ने॒ । व॒नु॒ष्य॒तः । नि । पा॒हि॒ । त्वम् । ऊँ॒ इति॑ । नः॒ । स॒ह॒सा॒ऽव॒न् । अ॒व॒द्यात् । सम् । त्वा॒ । ध्व॒स्म॒न्ऽवत् । अ॒भि । ए॒तु॒ । पाथः॑ । सम् । र॒यिः । स्पृ॒ह॒याय्यः॑ । स॒ह॒स्री ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने वनुष्यतो नि पाहि त्वमु नः सहसावन्नवद्यात्। सं त्वा ध्वस्मन्वदभ्येतु पाथः सं रयिः स्पृहयाय्यः सहस्री ॥९॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अग्ने। वनुष्यतः। नि। पाहि। त्वम्। ऊँ इति। नः। सहसाऽवन्। अवद्यात्। सम्। त्वा। ध्वस्मन्ऽवत्। अभि। एतु। पाथः। सम्। रयिः। स्पृहयाय्यः। सहस्री ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 4; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे सहसावन्नग्ने ! त्वं वनुष्यतो नि पाहि त्वमु अवद्यान्नो नि पाहि यतस्त्वा ध्वस्मन्वत् पाथः समभ्येतु सहस्री स्पृहयाय्यो रयिश्च समभ्येतु ॥९॥
पदार्थः
(त्वम्) (अग्ने) अग्निरिव विद्वन्राजन् सज्जन (वनुष्यतः) याचमानान् (नि) नित्यम् (पाहि) (त्वम्) (त्वम्) (उ) (नः) अस्मान् (सहसावन्) बहुबलेन युक्त (अवद्यात्) अधर्माचरणान्निन्द्यात् (सम्) (त्वा) त्वाम् (ध्वस्मन्वत्) ध्वस्तदोषविकारम् (अभि) (एतु) सर्वतः प्राप्नोतु (पाथः) अन्नम् [सम्] (रयिः) धनम् (स्पृहयाय्यः) स्पृहणीयः (सहस्री) असंख्यः ॥९॥
भावार्थः
हे राजन् ! यदि त्वं त्वत्तो रक्षणमिच्छतः प्रजाजनान् सततं रक्षेस्त्वं च निन्द्यादधर्माचरणात् पृथग्वर्त्तेत तर्ह्यतुले धनधान्ये त्वां प्राप्नुयाताम् ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सहसावन्) बहुत बल से युक्त (अग्ने) के तुल्य तेजस्वि विद्वन् ! (त्वम्) आप (वनुष्यतः) माँगनेवालों की (नि, पाहि) निरन्तर रक्षा कीजिये (उ) और (त्वम्) आप (अवद्यात्) निन्दित अधर्माचरण से (नः) हमारी निरन्तर रक्षा कीजिये जिससे (त्वा) आपको (ध्वस्मन्वत्) दोष और विकार जिसके नष्ट हो गये उस (पाथः) अन्न को (सम्, अभि, एतु) सब ओर से प्राप्त हूजिये (सहस्री) असंख्य (स्पृहयाय्यः) चाहने योग्य (रयिः) धन भी (सम्) सम्यक् प्राप्त होवे ॥९॥
भावार्थ
हे राजन् ! यदि आप से रक्षा चाहते हुए प्रजाजनों की निरन्तर रक्षा करें और आप स्वयं अधर्माचरण से पृथक् वर्त्तें तो आप को अतुल धनधान्य प्राप्त होवें ॥९॥
विषय
राजा से उत्तम आशंसा ।
भावार्थ
हे ( सहसावन् ) बलवन् ! राजन् ! हे (अग्ने ) अग्निवत् तेजस्विन् परंतप ! ( त्वं ) तू (नः ) हमें ( वनुष्यतः ) हिंसाकारी और ( अवद्यात् ) निन्दनीय कर्मों, पुरुषों और जन्तुओं से ( नि पाहि) निरन्तर रक्षा कर । ( ध्वस्मन्वत् ) दोषों से रहित (पाथः ) पथ और ( ध्वस्मन्-वत् पाथः ) शत्रुओं का नाश करने के सामर्थ्य वाला, राष्ट्रपालक बल ( त्वा सम् अभ्येतु) तुझे प्राप्त हो । ( स्पृहयाय्यः रयिः ) सब से चाहने योग्य धन भी (सहस्री ) सहस्रों की संख्या में, अपरिमित ( त्वा सम् अभ्येतु ) तुझे प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ३, ४, ७ भुरिक् पंक्ति: ।। ६ स्वराट् पंक्ति: । ८, ९ पंक्तिः । २, ५ निचृत्त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'वनुष्यतः अवद्यात्' निपाहि
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (वनुष्यतः) = हमारा हिंसन करनेवाले काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं से (निपाहि) = हमें बचाइये । हे (सहसावन्) = शत्रुओं को अभिभूत करनेवाले बलवाले प्रभो! (त्वं उ) = आप ही (नः) = हमें (अवद्यात्) = पाप से, निन्दनीय कर्मों से बचाइये। [२] हे प्रभो ! (त्वा) = आपके द्वारा, आपके अनुग्रह से (ध्वस्मन्वत्) = ध्वस्तदोष (पाथः) = अन्न (सं अभिएतु) = हमें सम्यक् प्राप्त हो, अर्थात् सात्त्विक अन्नों का ही प्रयोग करते हुए हम सात्त्विक मनवाले बनकर निर्दोष जीवनवाले हों। हमें वह (रयिः) = धन (सम्) = प्राप्त हो जो (स्पृहयाय्यः) = स्पृहणीय है तथा (सहस्त्री) = सहस्र संख्यावाला है, अर्थात् वह धन जो प्रशस्त मार्ग से कमाया गया है और पर्याप्त है।
भावार्थ
भावार्थ- हे परमात्मन्! आप हिंसक काम-क्रोध आदि शत्रुओं से हमें बचाएँ। पाप से हमारा रक्षण करें। आपके अनुग्रह से हमें ध्वस्तदोष सात्त्विक अन्न प्राप्त हो तथा स्पृहणीय पर्याप्त धन के हम स्वामी हों।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! जर रक्षण इच्छिणाऱ्या प्रजेचे निरंतर रक्षण केलेस व स्वतः अधर्माचरणापासून पृथक राहिलास तर तुला पुष्कळ धन प्राप्त होईल. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, brilliant commander of knowledge and power, protect the supplicants from the violent. O lord of power and patience, protect us from sin and evil, jealousy and calumny. May food and wealth of honest imperishable nature flow to you with noble and most desirable honour and excellence.
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