ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 43/ मन्त्र 2
प्र य॒ज्ञ ए॑तु॒ हेत्वो॒ न सप्ति॒रुद्य॑च्छध्वं॒ सम॑नसो घृ॒ताचीः॑। स्तृ॒णी॒त ब॒र्हिर॑ध्व॒राय॑ सा॒धूर्ध्वा शो॒चींषि॑ देव॒यून्य॑स्थुः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठप्र । य॒ज्ञः । ए॒तु॒ । हेत्वः॑ । न । सप्तिः॑ । उत् । य॒च्छ॒ध्व॒म् । सऽम॑नसः । घृ॒ताचीः॑ । स्तृ॒णी॒त । ब॒र्हिः । अ॒ध्व॒राय॑ । सा॒धु । ऊ॒र्ध्वा । शो॒चींषि॑ । दे॒व॒ऽयूनि॑ । अ॒स्थुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यज्ञ एतु हेत्वो न सप्तिरुद्यच्छध्वं समनसो घृताचीः। स्तृणीत बर्हिरध्वराय साधूर्ध्वा शोचींषि देवयून्यस्थुः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठप्र। यज्ञः। एतु। हेत्वः। न। सप्तिः। उत्। यच्छध्वम्। सऽमनसः। घृताचीः। स्तृणीत। बर्हिः। अध्वराय। साधु। ऊर्ध्वा। शोचींषि। देवऽयूनि। अस्थुः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 43; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः कीदृशा भवेयुरित्याह ॥
अन्वयः
हे समनसो विद्वांसो ! यान् युष्मान् यज्ञ एतु ते यूयं हेत्वस्सप्तिर्न सर्वान् प्रोद्यच्छध्वं यस्योर्ध्वा देवयूनि शोचींष्यस्थुस्तस्मादध्वराय यूयं घृताचीर्बहिश्च साधु स्तृणीत ॥२॥
पदार्थः
(प्र) प्रकर्षे (यज्ञः) विज्ञानमयः सङ्गन्तुमर्हः (एतु) प्राप्नोतु (हेत्वः) प्रवृद्धो वेगवान् (न) इव (सप्तिः) अश्वः (उत्) (यच्छध्वम्) उद्यमिनः कुरुत (समनसः) सज्ञानाः समानमनसः (घृताचीः) या घृतमुदकमञ्चन्ति ता रात्रीः। घृताचीति रात्रिनाम। (निघं०१.७)। (स्तृणीत) आच्छादयत (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (अध्वराय) अहिंसामयाय यज्ञाय (साधु) समीचीनतया (ऊर्ध्वा) ऊर्ध्वं गन्तॄणि (शोचींषि) तेजांसि (देवयूनि) देवान् दिव्यान् गुणान् कुर्वन्ति (अस्थुः) तिष्ठन्ति ॥२॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । हे गृहस्था ! येन वायूदकौषधयः पवित्रा जायन्ते तं यज्ञं सततमनुतिष्ठन्तु यज्ञधूमेनान्तरिक्षमाच्छादयत, हे अतिथयो ! यूयं सर्वान् मनुष्यान् सारथिरश्वानिव धर्मकृत्येषूद्यमिनः कृत्वैषामालस्यं दूरीकुरुत यदेतान् सकला श्रीः प्राप्नुयात् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (समनसः) समान ज्ञान वा समान मनवाले विद्वानो ! जिन आप लोगों को (यज्ञः) विज्ञानमय सङ्ग करने योग्य व्यवहार (एतु) प्राप्त हो वे आप लोग (हेत्वः) अच्छे बड़े हुए वेगवान् (सप्तिः) घोड़ा के (न) समान सब को (प्र, उत्, यच्छध्वम्) अतीव उद्यमी करो जिसके (ऊर्ध्वा) ऊपर जानेवाले (देवयूनि) दिव्य उत्तम गुणों को करते हुए (शोचींषि) तेज (अस्थुः) स्थिर होते हैं उससे (अध्वराय) अहिंसामय यज्ञ के लिये आप (घृताचीः) रात्रियों और (बर्हिः) अन्तरिक्ष को (साधु) समीचीनता से (स्तृणीत) आच्छादित करो ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे गृहस्थो ! जिससे वायु, जल और ओषधि पवित्र होती हैं, उस यज्ञ का निरन्तर अनुष्ठान करो, यज्ञ धूम से अन्तरिक्ष को ढाँपो। हे अतिथियो ! तुम सब मनुष्यों को सारथि, घोड़ों को जैसे, वैसे धर्म कामों में उद्यमी कर इनका आलस्य दूर करो, जिससे इनको समस्त लक्ष्मी प्राप्त हो ॥२॥
विषय
अग्निहोत्र की ज्वालाओं के समान सहयोग का उपदेश।
भावार्थ
( हेत्वः सप्तिः न ) वेगवान् अश्व के समान ( यज्ञः प्र एतु ) यज्ञ प्राप्त हो, वह उत्तम रीति से चले । हे विद्वान् लोगो ! आप लोग ( समनसः ) एकचित्त होकर ( घृताचीः उद्यच्छध्वम् ) घृत से युक्त स्त्रुवे उठाओ । अथवा आप लोग एक चित्त होकर (उद्यच्छध्वम् ) उद्यम करो । और आप लोग ( घृताचीः ) जलों से युक्त मेघमालाओं को ( बर्हिः ) आकाश में ( स्तृणीत ) आच्छादित करो । ( साधु ) अच्छी प्रकार ( अध्वराय ) यज्ञ की ( देवयूनि ) दीप्तियुक्त ( शोचींषि ) ज्वालाएं ( ऊर्ध्वा अस्थुः ) ऊंचे उठें । ( २ ) ( यज्ञः ) पूज्य राजा अश्व के समान बलवान् होकर प्राप्त हो, आप लोग एकचित्त ( घृताचीः ) तेजस्विनी सेनाओं को उठाओ। (बर्हिः स्तृणीत ) राष्ट्र, प्रजाजन का विस्तार करो ( देवयूनि शोचींषि ) विजयेच्छु पुरुषों की ज्वालाएं ( अध्वराय ) राष्ट्र के पालनरूप यज्ञ के लिये वा शत्रु से न हिंसित होने के लिये खूब उठ खड़ी हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्दः – १ निचृत्त्रिष्टुप् । ४ त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ भुरिक् पंक्तिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
यज्ञ द्वारा वर्षा
पदार्थ
पदार्थ- हमें (हेत्वः सप्तिः न) = वेगवान् अश्व तुल्य (यज्ञः प्र एतु) = यज्ञ प्राप्त हो । हे विद्वानो ! आप (समनसः) = एकचित्त होकर (घृताचीः उद्यच्छध्वम्) = घृत-युक्त स्रुवे उठाओ, वा एकचित्त होकर उद्यम करो, आप (घृताचीः) = जल-युक्त मेघमालाओं को (बहिः) = आकाश में (स्तृणीत) = आच्छादित करो। (साधु) = अच्छी प्रकार (अध्वराय) = यज्ञ की (देवयूनि) = दीप्तियुक्त (शोचींषि) = ज्वालाएँ ऊर्ध्वा (अस्थुः) = ऊँचे उठें।
भावार्थ
भावार्थ- विद्वान् लोग राष्ट्र में यज्ञ विज्ञान को तेजी से बढ़ावें। ये विद्वान् यज्ञों के बड़ेबड़े आयोजनों में जाकर एकाग्रचित्त होकर घृत से भरे स्रुवों द्वारा आहुतियाँ देकर यज्ञ की ज्वालाओं को ऊँचे उठावे जिससे जलों से युक्त मेघमालाएँ आकाश में आच्छादित होकर भूमि को तृप्त करें।
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे गृहस्थानो! यज्ञाचे निरंतर अधिष्ठान करा, त्यामुळे जल व औषध पवित्र होते. यज्ञाच्या धुराने अंतरिश आच्छादित करा. हे अतिथींनो! सारथी जसा घोड्याला वेगवान करतो तसे सर्व माणसांना धर्मकार्यात उद्यमी बनवून त्यांचा आळस दूर करा. ज्यामुळे त्यांना लक्ष्मी प्राप्त होईल. ॥ २ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let the yajna expand and rise like a tempestuous flying horse, and you, altogether of one mind, fill the ladle full, raise it and offer the oblation into the yajna of love, peace and non-violence to cover the sky with fragrance. Let the bright and blissful flames rise high to the divinities.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal