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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 43/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    ए॒वा नो॑ अग्ने वि॒क्ष्वा द॑शस्य॒ त्वया॑ व॒यं स॑हसाव॒न्नास्क्राः॑। रा॒या यु॒जा स॑ध॒मादो॒ अरि॑ष्टा यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । वि॒क्षु । आ । द॒श॒स्य॒ । त्वया॑ । व॒यम् । स॒ह॒सा॒ऽव॒न् । आस्क्राः॑ । रा॒या । यु॒जा । स॒ध॒ऽमादः॑ । अरि॑ष्टाः । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा नो अग्ने विक्ष्वा दशस्य त्वया वयं सहसावन्नास्क्राः। राया युजा सधमादो अरिष्टा यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। नः। अग्ने। विक्षु। आ। दशस्य। त्वया। वयम्। सहसाऽवन्। आस्क्राः। राया। युजा। सधऽमादः। अरिष्टाः। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 43; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे सहसावन्नग्ने ! त्वं विक्षु नो धनं दशस्य यतस्त्वया सह युजा वयं राया सधमाद आस्क्रा अरिष्टास्स्याम यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात तानेव वयमपि रक्षेमहि ॥५॥

    पदार्थः

    (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्मान् (अग्ने) विद्वन् (विक्षु) प्रजासु (आ) (दशस्य) देहि (त्वया) [त्वया] सह (वयम्) (सहसावन्) बहुबलयुक्त (आस्क्राः) समन्तादाहूताः (राया) धनेन (युजा) युक्तेन (सधमादः) समानस्थानाः (अरिष्टाः) अहिंसिताः (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) (सदा) (नः) अस्मान् ॥५॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो ! यूयमस्मान् विद्याः प्रदत्त येन वयं प्रजासूत्तमानि धनादीनि प्राप्य युष्मान् सततं रक्षेम ॥५॥ अत्र विश्वेदेवगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥ इति त्रिचत्वारिंशत्तमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सहसावन्) बहुबलयुक्त (अग्ने) विद्वान् ! आप (विक्षु) प्रजाजनों में (नः) हम लोगों को धन (दशस्य) देओ जिससे (त्वया) तुम्हारे साथ (युजा) युक्त (वयम्) हम लोग (राया) धन से (सधमादः) तुल्य स्थानवाले (आस्क्राः) सब ओर से बुलावें और (अरिष्टाः) अविनष्ट हों (यूयम्) तुम (स्वस्तिभिः) सुखों से (नः) हम लोगों की (सदा) सर्वदा (पात) रक्षा करो (एव) उन्हीं की हम लोग भी रक्षा करें ॥५॥

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! तुम हम को विद्या देओ, जिससे हम लोग प्रजाजनों में उत्तम धन आदि पाकर तुम्हारी सदैव रक्षा करें ॥५॥ इस सूक्त में विश्वेदेवों के गुण और कामों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तयालीसवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    उनका वेतनबद्ध धनक्रीत सा होना ।

    भावार्थ

    हे ( सहसावन् ) बलवन् ! हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! नायक ! तेजस्विन् ! तू ( एव ) अवश्य ( विक्षु ) प्रजाओं में ( आ दशस्य ) सब ओर दान कर। सबके प्रति उदार हो। ( त्वया युजा वयं ) तुझ सहयोगी से मिलकर हम ( आस्क्राः ) सब प्रकार से मानो खरीदे भृत्यवत् हों और ( अरिष्टाः सध-माद: ) अहिंसित, अपीड़ित और ( राया ) एक साथ ( सध-मादः ) प्रसन्न होकर रहें। हे विद्वान् वीर पुरुषो ! ( यूयं नः सदा स्वस्तिभिः पात ) धन से आप लोग हमें सदा उत्तम साधनों से रक्षित करो । इति दशमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्दः – १ निचृत्त्रिष्टुप् । ४ त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ५ भुरिक् पंक्तिः॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    लोक सेवक राजा

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (सहसावन्) = बलवन् ! हे (अग्ने) = ज्ञानवन् ! तू (एव) = अवश्य (विक्षु) = प्रजाओं में (आ दशस्य) = सब ओर दान कर। (त्वया युजा वयं) = तुझ से मिलकर हम (आस्क्रा:) = सब प्रकार से -मानो क्रय किये हुए भृत्यवत् हों, (अरिष्टाः सधमादः) = अहिंसित और (राया) = एक साथ (सधमादः) = प्रसन्न रहें। हे वीर पुरुषो! (यूयं नः सदा स्वस्तिभिः पात) = आप हमें सदा उत्तम साधनों से रक्षित करो।

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा अपनी प्रजाओं को उन्नति के लिए विकास की योजनाएँ चलाकर खूब दान दे तथा उत्तम साधनों से प्रजा की रक्षा करता हुआ उदार तथा लोकसेवक बनकर रहे। इससे प्रजा राष्ट्र भक्त बनी रहेगी। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ तथा देवता लिंगोक्ता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो! तुम्ही आम्हाला विद्या द्या, ज्यामुळे आम्ही प्रजेकडून उत्तम धन इत्यादी प्राप्त करून तुमचे सदैव रक्षण करू. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thus O lord of light, fire, power and constancy, Agni, bless us along with all peoples of the earth so that, O lord of challenge, patience and fortitude, committed as one with you and blest with wealth, honour and excellence, we may live happy and abide healthy and unhurt in the land and her yajnic order. O divinities of nature and humanity, pray protect and promote us all round with all good fortune for all time.

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