ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 79/ मन्त्र 2
व्य॑ञ्जते दि॒वो अन्ते॑ष्व॒क्तून्विशो॒ न यु॒क्ता उ॒षसो॑ यतन्ते । सं ते॒ गाव॒स्तम॒ आ व॑र्तयन्ति॒ ज्योति॑र्यच्छन्ति सवि॒तेव॑ बा॒हू ॥
स्वर सहित पद पाठवि । अ॒ञ्ज॒ते॒ । दि॒वः । अन्ते॑षु । अ॒क्तून् । विशः॑ । न । युक्ताः॑ । उ॒षसः॑ । य॒त॒न्ते॒ । सम् । ते॒ । गावः॑ । तमः॑ । आ । व॒र्त॒य॒न्ति॒ । ज्योतिः॑ । य॒च्छ॒न्ति॒ । स॒वि॒ताऽइ॑व । बा॒हू इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
व्यञ्जते दिवो अन्तेष्वक्तून्विशो न युक्ता उषसो यतन्ते । सं ते गावस्तम आ वर्तयन्ति ज्योतिर्यच्छन्ति सवितेव बाहू ॥
स्वर रहित पद पाठवि । अञ्जते । दिवः । अन्तेषु । अक्तून् । विशः । न । युक्ताः । उषसः । यतन्ते । सम् । ते । गावः । तमः । आ । वर्तयन्ति । ज्योतिः । यच्छन्ति । सविताऽइव । बाहू इति ॥ ७.७९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 79; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! भवान् (दिवः अन्तेषु) द्युपर्यन्तप्रदेशेषु (अक्तून्) सूर्य्यादिप्रकाशैः (न) सदृशः (विशः अञ्जते) सर्वाः प्रजाः प्रकटयन् (वि) सम्यक् (उषसः युक्ताः) प्रकाशिताः (यतन्ते) करोति (ते गावः) तव ज्ञानस्वरूपप्रकाशः (तमः) अज्ञानस्वरूपान्धकारं (आ) सम्यक् (वर्तयन्ति) नाशयति (सविता इव बाहू) सूर्यरश्मिवत् (ज्योतिः) तव तेजः (सम् यच्छन्ति) सर्वं भासयति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! आप (दिवः अन्तेषु) द्युलोकपर्यन्त प्रदेशों में (अक्तून्) सूर्यादि प्रकाशों के (न) समान (विशः अञ्जते) सम्पूर्ण प्रजाओं को प्रकट करते (वि) भले प्रकार (उषसः युक्ताः) प्रकाशयुक्त (यतन्ते) कर रहे हैं, (ते गावः) तुम्हारा ज्ञानरूप प्रकाश (तमः) अज्ञानरूप तम को (आ) भले प्रकार (वर्तयन्ति) दूर करता है, (सविता इव बाहू) सूर्य्य की किरणों के समान (ज्योतिः) तुम्हारी ज्योति (सं यच्छन्ति) सबको प्रकाशित करती है ॥२॥
भावार्थ
हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप द्युलोकपर्य्यन्त सम्पूर्ण प्रजाओं को अपनी दिव्य ज्योति से प्रकाशित कर रहे हैं अर्थात् आप अपने ज्ञानरूप तप से प्रजाओं को रचकर सूर्य्य की किरणों के समान अज्ञानरूप तम को छिन्न-भिन्न करके मनुष्यों को ज्ञानयुक्त बनाते हैं, जैसा कि “यस्य ज्ञानमयं तपः” इत्यादि उपनिषद्वाक्यों में उसी मन्त्र को आश्रय करके कहा है कि उस परमात्मा का ज्ञान ही एक प्रकार का तप है, उसी ज्ञानरूप तप से परमात्मा इस ब्रह्माण्ड की रचना करके सबको यथावस्थित नियम में चला रहे हैं ॥२॥
विषय
नववधुओं के उज्ज्वल दीपकों और सूर्यकिरणों के तुल्य कर्त्तव्य । पति-पत्नी का शरीर में दो बाहुओं के तुल्य कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( उषसः ) प्रभात वेलाएं जिस प्रकार ( दिवः अन्तेषु ) आकाश के प्रान्त भागों में ( अक्तून् वि अञ्जते ) रात्रि-भागों या प्रकाशों को प्रकट करती हैं उसी प्रकार ( उषसः ) कामनायुक्त नववधुएं ( अन्तेषु ) प्रान्त भागों में विद्यमान ( विशः न ) राजा की प्रजाओं के समान ( दिवः अन्तेषु ) दिन के अन्त में रात्रि के कालों में ( अक्तून् ) अपने विशेष उज्ज्वल गृह के दीपकों को प्रकाशित करती हैं। और ( युक्ताः यतन्ते ) नियुक्त भृत्यजनों के समान नववधुएं भी ( युक्ताः ) पति की आज्ञा में रहकर ( यतन्ते ) गृहकार्य करती हैं । हे नववधू ! जिस प्रकार ( गावः तमः आवर्त्तयन्ति ) किरणें अन्धकार को दूर कर देती हैं और ( ज्योतिः यच्छन्ति ) प्रकाश देती हैं, वे ( सूर्यस्य बाहू इव ) सूर्य की बाहुओं के समान होते हैं उसी प्रकार हे नववधू ! ( ते ) तेरी ( गावः ) वाणियां भी ( तमः सम् आ वर्त्तयन्ति ) शोकादि दुःख को अच्छी प्रकार करें और (ज्योतिः ) प्रकाशवत् स्फूर्ति, उत्साह को प्रदान करें । हे ( उषः ) नववधू ! तू भी ( सविता इव) प्रजा-उत्पादक पति के समान ही होकर ( बाहू ) एक शरीर में दो बाहुओं के समान तुम दोनों मिल कर रहो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ उषा देवता॥ छन्दः—१, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ३ विराट् त्रिष्टुप् । ५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
नव वधू का व्यवहार
पदार्थ
पदार्थ- (उषसः) = प्रभात वेलाएँ जैसे (दिवः अन्तेषु) = आकाश के प्रान्त भागों में (अक्तून् वि अञ्जते) = रात्रि-भागों या प्रकाशों को प्रकट करती हैं वैसे ही (उषसः) = कामनायुक्त नव वधुएँ (अन्तेषु) = प्रान्त भागों में विद्यमान (विशः न) = प्रजाओं के समान (दिवः अन्तेषु) = दिन के अन्त में, (अक्तून्) = उज्ज्वल गृह-दीपकों को प्रकाशित करती हैं और (युक्ता यतन्ते) = नियुक्त भृत्यजनों के समान नववधुएँ पति की आज्ञा रहकर गृह कार्य करती हैं। हे नववधू ! जैसे (गावः तमः आवर्त्तयन्ति) = किरणें अन्धकार दूर करती हैं और (ज्योतिः यच्छन्ति) = प्रकाश देती हैं, वे (सूर्यस्य बाहू इव) = सूर्य की बाहुओं के समान हैं वैसे ही (ते) = तेरी (गावः) = वाणियाँ (तमः सम् आ वर्त्तयन्ति) = शोकादि दुःख दूर करें और (ज्योतिः) = प्रकाशवत् स्फूर्ति दें। हे (उषः) = नववधू । तू भी (सविता इव) = प्रजोत्पादक पति के तुल्य हो, बाहू एक शरीर में दो बाहुओं के तुल्य तुम दोनों मिलकर रहो।
भावार्थ
भावार्थ - नव वधू पति के घर में आकर अपने सद्गुणों का प्रकाश करे। पति की आज्ञा का पालन करती हुई घर के कार्यों को कुशलता से करे। मीठी वाणी व मधुर व्यवहार से सबको प्रसन्न करती हुई उत्तम सन्तान को उत्पन्न करे तथा समस्त कार्यों में पति का हाथ बँटावे ।
इंग्लिश (1)
Meaning
The lights of the dawn radiate their rays and fill the space from earth to the bounds of heaven. Together they radiate in succession and act like a divine force in unison. Constantly those radiations turn out the darkness and, like the circuitous operations of solar radiation, they give light and life to the world in sequence.
मराठी (1)
भावार्थ
हे प्रकाशस्वरूप परमात्मा! तू द्युलोकापर्यंत संपूर्ण प्रजेला आपल्या दिव्य ज्योतीने प्रकाशित करतोस. तू आपल्या ज्ञानरूपी तपाने प्रजेची निर्मिती करून सूर्याच्या किरणांप्रमाणे अज्ञानरूपी तमाला छिन्नभिन्न करून माणसांना ज्ञानी करतोस. ‘यस्य ज्ञानमयं तप:’ इत्यादी उपनिषदात म्हटलेले आहे, की त्या परमेश्वराचे ज्ञानच एक प्रकारचे तप आहे. त्या ज्ञानरूपी तपाने परमात्मा या ब्रह्मांडाची रचना करून सर्वांना व्यवस्थित नियमाने चालवितो ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal