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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 80/ मन्त्र 3
अश्वा॑वती॒र्गोम॑तीर्न उ॒षासो॑ वी॒रव॑ती॒: सद॑मुच्छन्तु भ॒द्राः । घृ॒तं दुहा॑ना वि॒श्वत॒: प्रपी॑ता यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठअश्व॑ऽवतीः । गोऽम॑तीः । नः॒ । उ॒षसः॑ । वी॒रऽव॑तीः । सद॑म् । उ॒च्छ॒न्तु॒ । भ॒द्राः । घृ॒तम् । दुहा॑नाः । वि॒श्वतः॑ । प्रऽपी॑ताः । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वावतीर्गोमतीर्न उषासो वीरवती: सदमुच्छन्तु भद्राः । घृतं दुहाना विश्वत: प्रपीता यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वऽवतीः । गोऽमतीः । नः । उषसः । वीरऽवतीः । सदम् । उच्छन्तु । भद्राः । घृतम् । दुहानाः । विश्वतः । प्रऽपीताः । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.८०.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 80; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनः सकाशात्सुखं प्रार्थ्यते।
पदार्थः
हे परमात्मन् ! भवान् (अश्वावतीः) सर्वगतीनामाश्रयः (गोमतीः) सर्वज्ञानानामाधारः (वीरवतीः) सर्वेषां शौर्यादिगुणानाञ्च आश्रयोऽस्ति, (नः) अस्मान् (उषसः) प्रकाशमानान् (भद्राः) श्रेयस्करगुणान् (सदम्) सर्वदा (उच्छन्तु) प्रापयतु, भवान् (विश्वतः) सर्वतः (घृतम्) हार्दम् (दुहानाः) उत्पादयन् (प्रपीताः) जगदाश्रयोऽस्ति (यूयम्) भवान् (नः) अस्मान् (स्वस्तिभिः) कल्याणवाग्भिः (सदा) निरन्तरं (पात) रक्षतु=पुनातु ॥३॥ इति श्रीमदार्य्यमुनिनोपनिबद्धे ऋक्संहिताभाष्ये सप्तममण्डले पञ्चमाष्टके पञ्चमोऽध्यायोऽशीतितमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब इस सूक्त के अन्त में परमात्मा के दिव्य गुणों का वर्णन करते हुए उससे स्वस्ति की प्रार्थना करते हैं।
पदार्थ
हे परमात्मन् ! आप (अश्वावतीः) सर्वगतियों का आश्रय (गोमतीः) सब ज्ञानों का आधार (वीरवतीः) सब वीरतादि गुणों का आश्रय हो, (नः) हमको (उषसः) प्रकाशवाले (भद्राः) भद्र गुण (सदं) सदा के लिए (उच्छन्तु) प्राप्त करायें, आप (विश्वतः) सब ओर से (घृतं) प्रेम को (दुहानाः) उत्पन्न करनेवाले (प्रपीताः) सबके आश्रयभूत हैं, (यूयम्) आप (नः) हमको (स्वस्तिभिः) कल्याणवाणियों से (सदा) सदा (पात) पवित्र करें ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा का वर्णन करते हुए यह कथन किया है कि जिस प्रकार वर्तिका=बत्ती सब ओर से स्नेह=चिकनाई को अपने में लीन करके प्रकाश करती है, इसी प्रकार सब प्रेमी पुरुषों को परमात्मा प्रकाश=ज्ञान प्रदान करते हैं। वही परमात्मा वीरता, धीरता, ज्ञान तथा गति आदि सब सद्गुणों का आधार और प्रेममय पुरुषों का एकमात्र गतिस्थान है ॥ उसी परमात्मा की दिव्य शक्ति से यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता, उसी की सत्ता का लाभकर स्थित रहता और अन्त में उसी में लय हो जाता है, इसी कारण उस शक्ति को इस मन्त्र में “प्रपीता” सबका आश्रयभूत कहा गया है और इसी भाव को महर्षि व्यास ने “स्वाप्ययात्” ॥१।१।९। ब्र० सू० ॥ में यह वर्णन किया है कि कोई पदार्थ नाश को प्राप्त नहीं होता, किन्तु सबका लय एकमात्र परमात्मा में होता है अर्थात् प्रथम प्रकृतिरूप कारण में सब पदार्थों का लय हो जाता और कारण प्रकृतिरूप में ब्रह्म में सदा विद्यमान रहता है, इसी प्रकार दूसरी जीवरूप प्रकृति भी जो अनादिकाल से विद्यमान है, वह भी प्रलयकाल में ब्रह्माश्रित रहती हैं। इस प्रकार चिदचिदीश्वर=चित् जीव अचित् प्रकृति और ब्रह्म, ये तीनों अनादि अनन्त हैं, यही वैदिक सिद्धान्त है, जिसका विशेष वर्णन उपनिषद्, गीता तथा ब्रह्मसूत्रादि ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक लिखा गया है ॥३॥ ऋग्वेद के ७वें मण्डल में ८०वाँ सूक्त और २७वाँ वर्ग समाप्त हुआ और पाँचवें अष्टक में पाँचवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥
विषय
पत्नी के गृहोचित शिष्टाचारों का वर्णन पक्षान्तर में उषा, सेना का वर्णन ।
भावार्थ
( अश्वावती: ) उत्तम अश्वों अर्थात् विद्यादि में निष्णात उत्तम पुरुषों से युक्त, ( गोमती: ) उत्तम वेदवाणियों से युक्त, ( वीरवतीः ) उत्तम पुत्रों से युक्त, ( भद्राः ) कल्याण देने वाली ( उषासः ) पति पुत्रादि को चाहने वाली देवियां ( नः सदम् उच्छन्तु ) हमें और हमारे घरों को सदा प्रकाशित करें । वे सदा ( घृतं दुहानाः ) घृतवत् स्नेह, जल आदि पुष्टिकारक पदार्थों की ( दुहानाः ) वृद्धि करती हुई स्वयं भी ( विश्वतः ) सब प्रकार से ( प्रपीताः ) सुख तृप्त, सन्तुष्ट, एवं दृष्ट पुष्ट होकर रहें । हे उत्तम देवियो ! ( यूयं स्वस्तिभिः सदा नः पात ) आप सब हमारी सदा उत्तम साधनों और शान्तिदायक यज्ञादि से रक्षा करो । इसी प्रकार राष्ट्र में सेनायें, शत्रुओं और दुष्टों को दग्ध करने से उषाएं है और प्रजाएं राजा की प्रिय होने से उषाएं हैं। वे अश्वगों, भूमि, वीर पुरुषों से युक्त, ऐश्वर्यवान् हो के तेज को बढ़ाती हुई सब प्रकार से प्रसन्न, तृप्त हों । इति सप्तविंशो वर्गः ॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१ त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत्त्रिष्टुप्॥ तृचं सूक्तम्॥
विषय
उत्तम गृहिणी
पदार्थ
पदार्थ- (अश्वावतीः) = अश्वों अर्थात् विद्यादि में निष्णात उत्तम पुरुषों से युक्त, (गोमती:) = देववाणियों युक्त, (वीरवती:) = उत्तम पुत्रों से युक्त, (भद्राः) = कल्याण देनेवाली (उषासः) = पतिपुत्रादि को चाहनेवाली देवियाँ (नः सदम् उच्छन्तु) = हमारे घरों को सदा प्रकाशित करें। वे (घृतं दुहाना:) = घृतवत् स्नेह, जल आदि पुष्टिकारक पदार्थों की वृद्धि करती हुई स्वयं भी (विश्वतः) = सब प्रकार से (प्रपीता:) = सन्तुष्ट, हृष्ट-पुष्ट होकर रहें। हे उत्तम देवियो! (यूयं स्वस्तिभिः सदा नः पात) = हमारी सदा उत्तम साधनों से पालना करो।
भावार्थ
भावार्थ- उत्तम गृहिणी अपने घरों को विद्वान् पुरुषों, सुसन्तानों व वेदवाणियों के द्वारा प्रकाशित करती हैं। वे घृत, दुग्ध, अन्न, जल आदि पदार्थों की सुव्यवस्था करके सबको स्वस्थ रखती हुई स्वयं भी हृष्ट पुष्ट रहती है। अगले सूक्त का भी ऋषि वसिष्ठ तथा उषा देवता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
May the blissful dawns every morning, abounding in light and dynamism, energy, fertility and procreation of the race in heroic generations, illuminate and energise our home and family, give us showers of water, milk and honey, and bless us with total fulfilment from all quarters of the world. O lights of dawn, protect and promote us with all peace, progress and happiness of the good life always all time.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमात्म्याचे वर्णन आहे. ज्या प्रकारे वर्तिका=वात सगळीकडून स्नेह= स्निग्धतेला आपल्यात लीन करून प्रकाश देते. त्याच प्रकारे सर्व प्रेमी पुरुषांना परमात्मा प्रकाश = ज्ञान देतो. तोच वीरता, धीरता, ज्ञान, गती इत्यादी सर्व गुणांचा आधार व प्रेममय पुरुषांचे एकमेव गतिस्थान आहे. ॥३॥
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