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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 81 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 81/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - उषाः छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    तच्चि॒त्रं राध॒ आ भ॒रोषो॒ यद्दी॑र्घ॒श्रुत्त॑मम् । यत्ते॑ दिवो दुहितर्मर्त॒भोज॑नं॒ तद्रा॑स्व भु॒नजा॑महै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । चि॒त्रम् । राधः॑ । आ । भ॒र॒ । उषः॑ । यत् । दी॒र्घ॒श्रुत्ऽत॑मम् । यत् । ते॒ । दि॒वः॒ । दु॒हि॒तः॒ । म॒र्त॒ऽभोज॑नम् । तत् । रा॒स्व॒ । भु॒नजा॑महै ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तच्चित्रं राध आ भरोषो यद्दीर्घश्रुत्तमम् । यत्ते दिवो दुहितर्मर्तभोजनं तद्रास्व भुनजामहै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । चित्रम् । राधः । आ । भर । उषः । यत् । दीर्घश्रुत्ऽतमम् । यत् । ते । दिवः । दुहितः । मर्तऽभोजनम् । तत् । रास्व । भुनजामहै ॥ ७.८१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 81; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उषः) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! (यत्) यत् (दीर्घश्रुत्तमम्) घोरान्धकारमिवाज्ञानमस्ति (तत्) तद्भवान् निवर्त्य (चित्रम्, राधः, आ, भर) अनेकविधमुत्तमधनं प्रयच्छतु (यत्) यत् (ते) तव (दिवः, दुहितः) दूरवर्तिदेशानां हितं सामर्थ्यमस्ति, तेन (मर्तभोजनम्) मनुष्येभ्यो भोजनमेव धनं (रास्व) ददातु, यतः (तत्) तद्धनं (भुनजामहै) भोगे उपयुनजामहै ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उषः) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! (यत्) जो (दीर्घश्रुत्तमम्) घोर अन्धकाररूप अज्ञान है, (तत्) उसको आप दूर करके (चित्रं, राधः, आ, भर) नाना प्रकार का उत्तम धन प्रदान करें और (यत्) जो (ते) तुम्हारा (दिवः, दुहितः) दूर देशों में हित करनेवाला सामर्थ्य है, उससे (मर्तभोजनं) मनुष्यों का भोजनरूप धन (रास्व) दीजिये, ताकि (तत्) वह (भुनजामहै) हमारे उपभोग में आवे ॥५॥

    भावार्थ

    हे परमात्मन् ! आप महामोहरूप घोर अज्ञान का नाश करके हमें उत्तम ज्ञान की प्राप्ति करायें, जिससे हम अपने भरण-पोषण के लिए धन उपलब्ध कर सकें। हे भगवन् ! कोटानुकोटि ब्रह्माण्डों में आपका सामर्थ्य व्याप्त हो रहा है, आप हमारे पालनकर्ता और नाना प्रकार के ऐश्वर्य्यदाता हैं, कृपा करके हमारे भोजन के लिए अन्नादि धन दें, ताकि हम आपकी उपासना में प्रवृत्त रहें ॥५॥

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    विषय

    माता के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( उषः ) पापों को जला देने हारी ! हे कान्तिमति विदुषि ! हे प्रभुशक्ते ! तू हमें ( तत् ) वह ( चित्रम् ) अद्भुत, सञ्चय योग्य, ( राधः ) ऐश्वर्य ( आ भर ) प्रदान कर ( यत् दीर्घ-श्रुत्तमम् ) जो सब से अधिक दीर्घ काल तक श्रवण करने योग्य हो । हे ( दिवः दुहितः ) सूर्य की पुत्री उषावत् तेजस्वी पिता की कन्ये ! एवं तेजस्वी पुरुष की कामना पूर्ण करने हारी ! एवं दूर देश में विवाहिता होकर हितकारिणि ! ( यत् ते मर्त्त-भोजनम् ) जो तेरा मनुष्यों को पालन करने वाला सामर्थ्य है (तत्) वह तू हमें ( रास्व ) प्रदान कर, ( भुनजामहै ) हम उसी का भोग करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ उषा देवता॥ छन्दः—१ विराड् बृहती। २ भुरिग् बृहती। ३ आर्षी बृहती। ४,६ आर्षी भुरिग् बृहती, निचृद् बृहती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ऐश्वर्य दान

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (उषः) = हे विदुषि ! हे प्रभुशक्ते! तू हमें (तत्) = वह (चित्रम्) = अद्भुत, सञ्चय योग्य, (राधः) = ऐश्वर्य (आ भर) = दे (यत् दीर्घश्रुत्तमम्) = जो दीर्घ काल तक श्रवण योग्य हो। हे (दिवः दुहितः) = सूर्य की पुत्री (उषावत्) = तेजस्वी पिता की कन्ये! एवं तेजस्वी पुरुष की कामना पूर्ण करनेहारी ! (यत् ते मर्त्त भोजनम्) = जो तेरा मनुष्यों को पालन करनेवाला सामर्थ्य है (तत्) = वह तू हमें (रास्व) = दे, (भुनजामहै) = हम उसका भोग करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- विदुषी स्त्री अपने ज्ञान एवं धन को सुपात्रों में इतना बाँटे कि लोग दीर्घकाल तक स्मरण करें। यह दूसरों को पालन करने का गुण उसके यश को चिर स्थाई बना देगा।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O light of dawn, bear and bring for us that vision, wealth and competence of life, wonderful, various, versatile and infinite, heard over the longest time and widest space which, O light of self-refulgent heaven, is your gift to mortal humanity as food for the body, mind and soul. Give us that wealth of food for our benefit and enlightenment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे परमात्मा! तू महामोहरूपी घोर अज्ञानाचा नाश करून आम्हाला उत्तम ज्ञानाची प्राप्ती करव. ज्याद्वारे आम्ही आपल्या भरण-पोषणासाठी धन उपलब्ध करू शकू. हे भगवान! कोटी कोटी ब्रह्मांडात तुझे सामर्थ्य व्याप्त आहे. तू आमचा पालनकर्ता व विविध प्रकारचा ऐश्वर्यदाता आहेस. कृपा करून आमच्या भोजनासाठी अन्न इत्यादी धन दे. त्यामुळे आम्ही उपासनेत प्रवृत्त राहू. ॥५॥

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