ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 85/ मन्त्र 2
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स्पर्ध॑न्ते॒ वा उ॑ देव॒हूये॒ अत्र॒ येषु॑ ध्व॒जेषु॑ दि॒द्यव॒: पत॑न्ति । यु॒वं ताँ इ॑न्द्रावरुणाव॒मित्रा॑न्ह॒तं परा॑च॒: शर्वा॒ विषू॑चः ॥
स्वर सहित पद पाठस्पर्ध॑न्ते । वै । ऊँ॒ इति॑ । दे॒व॒ऽहूये॑ । अत्र॑ । येषु॑ । ध्व॒जेषु॑ । दि॒द्यवः॑ । पत॑न्ति । यु॒वम् । तान् । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णौ॒ । अ॒मित्रा॑न् । ह॒तम् । परा॑चः । शर्वा॑ । विषू॑चः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्पर्धन्ते वा उ देवहूये अत्र येषु ध्वजेषु दिद्यव: पतन्ति । युवं ताँ इन्द्रावरुणावमित्रान्हतं पराच: शर्वा विषूचः ॥
स्वर रहित पद पाठस्पर्धन्ते । वै । ऊँ इति । देवऽहूये । अत्र । येषु । ध्वजेषु । दिद्यवः । पतन्ति । युवम् । तान् । इन्द्रावरुणौ । अमित्रान् । हतम् । पराचः । शर्वा । विषूचः ॥ ७.८५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 85; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथान्यायकारिणः शत्रून् पराजेतुमुपदिशति।
पदार्थः
(इन्द्रावरुणौ) हे इन्द्रावरुणौ ! युवां (अमित्रान्) शत्रून् (पराचः) पराजित्य (शर्वा, विषूचः) हिंसकशस्त्रेण तान् कुटिलगतीन् (हतम्) हिंस्तं तथा (देवहूये) अस्मिन्देवासुरसङ्ग्रामे (येषु, ध्वजेषु) यासु पताकासु (दिद्यवः, पतन्ति) विपक्षैः क्षिप्तानि शस्त्राणि पतन्ति (वै) निश्चयेन (अत्र) तत्र तादृशस्थले ता रक्षतां तथा च ये (युवम्) भवन्तौ प्रति (स्पर्धन्ते) ईर्ष्यन्ति तान् (ऊ) सम्यक् हतम् ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अन्यायकारी शत्रुओं को परास्त करने का उपदेश करते हैं।
पदार्थ
(इन्द्रावरुणौ) हे इन्द्र तथा वरुण ! तुम (अमित्रान्) शत्रुसेना को (पराचः) पराजय करके (शर्वा, विषूचः) हिंसक शस्त्रों से (हतं) उनको हनन करो और (देवहूये) इस देवासुर-संग्राम में (येषु, ध्वजेषु) जिन ध्वजाओं में (दिद्यवः, पतन्ति) शत्रुओं के फेंके हुए शस्त्र गिरते हैं, (वै) निश्चय करके (अत्र) उन स्थलों में ध्वजाओं की रक्षा करो और जो (युवं) तुम दोनों से (स्पर्धन्ते) ईर्षा करते हैं, उनका (ऊ) भलीभाँति हनन करो ॥२॥
भावार्थ
इन्द्र=विद्युत् की शक्ति जाननेवाला, वरुण=जलयानों की विद्या जाननेवाला, हे विद्युत् तथा जलीय विद्याओं के जाननेवाले सेनाध्यक्षो ! तुम असुरसेना के हनन करने के लिए सदा उद्यत रहो और युद्ध करते हुए अपनी सेना के झण्डों की बड़े प्रयत्न से रक्षा करो और अपने साथ ईर्षा करनेवालों को सदा परास्त करते रहो, ताकि कोई अन्यायकारी पुरुष तुम्हें कभी दबाकर अन्याय न कर सके, यह तुम्हारे लिए ईश्वरीय आदेश है ॥२॥
विषय
इन्द्र, वरुण राजा के कर्तव्य ।
भावार्थ
( अत्र ) इस ( देव-हूये ) मनुष्यों के परस्पर स्पर्धा और ललकार के अवसर रूप संग्राम में लोग ( स्पर्धन्ते उ वा ) परस्पर स्पर्द्धा करते हैं तब ( येषु ध्वजेषु ) जिन ध्वजाओं पर ( दिद्यवः पतन्ति ) चमकती विजुलियों के समान हमारे शस्त्र पड़ते हैं हे ( इन्द्रा वरुणा ) शत्रुहन्तः हे शत्रुवारक ! ( युवं ) तुम दोनों ( तान् अमित्रान् ) उन शत्रुओं को (हतम् ) मारो और ( विषूचः पराचः शर्वा ) विरुद्ध पक्ष के शत्रुओं को शत्रुहिंसक शस्त्रसेना से दूर मार भगा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ इन्द्रावरुणौ देवते। छन्दः—१, ४ आर्षी त्रिष्टुप् । २, ३, ५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
विषय
राष्ट्र ध्वज की रक्षा
पदार्थ
पदार्थ- (अत्र) = इस (देव) = हूये मनुष्यों के (स्पर्धा) = रूप संग्राम में लोग (स्पर्धन्ते उ वा) = स्पर्द्धा करते हैं तब (येषु ध्वजेषु) = जिन ध्वजाओं पर (दिद्यवः पतन्ति) = चमकती बिजलियों के समान वे पड़ते हैं, हे (इन्द्रा-वरुणा) = शत्रुहन्तः ! हे शत्रुवारक! (युवं) = तुम दोनों (तान् अमित्रान्) = उन शत्रुओं को (हतम्) = मारो और (विषूचः पराचः शर्वा) = शत्रुओं को हिंसक शस्त्रों से दूर भगाओ।
भावार्थ
भावार्थ- शत्रुसेना यदि राष्ट्र ध्वज को काटकर गिराने का प्रयत्न करे तो राजा और सेनापति शस्त्रास्त्रों का प्रयोग करके उन शत्रुओं को मार गिरावे तथा राष्ट्र ध्वज की रक्षा करे।
इंग्लिश (1)
Meaning
And those who fight and oppose us in this struggle of the social order, and in those battles in which the enemy weapons fall upon our flags of honour, all those enemies and crooked adversaries, O Indra and Varuna, pray frustrate and destroy with the force and justice of the social order.
मराठी (1)
भावार्थ
इंद्र = विद्युतची शक्ती जाणणारा, वरुण = जहाजाची विद्या जाणणारा, हे विद्युत व जलीय विद्या जाणणाऱ्या सेनाध्यक्षांनो! तुम्ही असुर सेनेचे हनन करण्यासाठी सदैव तत्पर राहा व युद्ध करीत आपल्या सेनेच्या झेंड्याचे प्रयत्नपूर्वक रक्षण करा. आपल्याबरोबर ईर्षा करणाऱ्यांना सदैव पराजित करा. त्यामुळे कोणी अन्यायकारी पुरुष तुमच्यावर कधी अन्याय करता कामा नये. हा तुमच्यासाठी ईश्वरीय आदेश आहे. ॥२॥
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