Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 85 के मन्त्र
1 2 3 4 5
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 85/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आप॑श्चि॒द्धि स्वय॑शस॒: सद॑स्सु दे॒वीरिन्द्रं॒ वरु॑णं दे॒वता॒ धुः । कृ॒ष्टीर॒न्यो धा॒रय॑ति॒ प्रवि॑क्ता वृ॒त्राण्य॒न्यो अ॑प्र॒तीनि॑ हन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आपः॑ । चि॒त् । हि । स्वऽय॑शसः । सदः॑ऽसु । दे॒वीः । इन्द्र॑म् । वरु॑णम् । दे॒वता॑ । धुरिति॒ धुः । कृ॒ष्टीः । अ॒न्यः । धा॒रय॑ति । प्रऽवि॑क्ताः । वृ॒त्राणि॑ । अ॒न्यः । अ॒प्र॒तीनि॑ । ह॒न्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपश्चिद्धि स्वयशस: सदस्सु देवीरिन्द्रं वरुणं देवता धुः । कृष्टीरन्यो धारयति प्रविक्ता वृत्राण्यन्यो अप्रतीनि हन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आपः । चित् । हि । स्वऽयशसः । सदःऽसु । देवीः । इन्द्रम् । वरुणम् । देवता । धुरिति धुः । कृष्टीः । अन्यः । धारयति । प्रऽविक्ताः । वृत्राणि । अन्यः । अप्रतीनि । हन्ति ॥ ७.८५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 85; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    भोः सेनानीः ! (हि) निश्चयेन (आपः, चित्) सर्वत्र व्याप्य (स्वयशसः) स्वकीयेन यशसा (सदःसु) उपासनीयस्थानेषु (देवीः) दिव्यशक्तिसम्पन्नं (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं (वरुणम्) विश्वं स्वशक्त्यावस्थापयन्तं परमात्मानं (देवता) सम्प्रार्थ्य तदीयदिव्यशक्तिं (धुः) सन्धार्य (अन्यः) कश्चित् (कृष्टीः) प्रजाः (धारयति) दधाति, यः (प्रविक्ताः) भिन्नप्रकृतिकानां मनुष्याणां कर्माणि बुध्यते (अन्यः) अन्यः कश्चित् (वृत्राणि) मेघवत् नभोमण्डले प्रसृतान् (अप्रतीनि) वशीकर्तुमशक्यान् (हन्ति) हिनस्ति) ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे सेनाधीश ! (हि) निश्चय करके (आपः, चित्) सर्वत्र व्यापक होकर (स्वयशसः) अपने यश से (सदःसु) उपासनीय स्थानों में (देवीः) दिव्यशक्तिसम्पन्न (इन्द्रं) परमैश्वर्य्यवान् (वरुणं) सबको स्वशक्ति में रखनेवाले परमात्मा की (देवता) दिव्यशक्तियों को (धुः) धारण करके (अन्यः) कोई (कृष्टीः) प्रजा को (धारयति) धारण करता है, जो (प्रविक्ताः) भिन्न-भिन्न प्रकार के मनुष्यों के कर्मों को जानता है, (अन्यः) अन्य (वृत्राणि) मेघों के समान नभोमण्डल में फैले हुए (अप्रतीनि) वश में न आनेवाले शत्रुओं का (हन्ति) हनन करता है ॥३॥

    भावार्थ

    जो पुरुष परमात्मशक्तियों को धारण करके भिन्न-भिन्न कर्मों के ज्ञाता हैं, वे परमैश्वर्य्ययुक्त परमात्मा की उपासना करते हुए न्यायाधीश के पद पर स्थित होते हैं और जो युद्धविद्याविशारद होते हैं, वे आकाशस्थ शत्रु की सेना को मेघमण्डल के समान अपने प्रबल वायुसदृश वेग से छिन्न-भिन्न करते हैं अर्थात् दिव्यशक्तिसम्पन्न राजपुरुष न्यायाधीश बनकर प्रजा में उत्पन्न हुए दोषों को नाश करके उसको धर्मपथ पर चलाते और दूसरे सेनाधीश बनकर वश में न आनेवाले शत्रुओं को विजय करके प्रजा में शान्ति फैलाते हुए परमात्मा की आज्ञा का पालन करते हैं ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    इन्द्र, वरुण राजा के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( स्व-यशसः ) अपने धनैश्वर्य के द्वारा यश प्राप्त करने वाली ( देवीः ) दानशील, ( देवता ) मानुष प्रजाएं ( सदः सु) सभा भवनों वा उत्तम २ पदों पर ( इन्द्रं वरुणं धुः ) ऐश्वर्यवान् और श्रेष्ठ पुरुष को अच्छी प्रकार मान-आदरपूर्वक स्थापित करें। उन दोनों में से ( एकः ) एक इन्द्र नाम अध्यक्ष ( प्रविक्ताः ) अच्छी प्रकार सुविभक्त ( कृष्टीः धारयति ) बलवान् हलाकर्षित भूमियों को वृषभ या मेघ के समान प्रजाओं को धारण करता है और ( अन्यः ) दूसरा वरुण शत्रुवारक अध्यक्ष ( अप्रतीनि वृत्राणि ) अप्रत्यक्ष शत्रुओं को भी दण्डित करे। अर्थात् इन्द्र, वरुण दोनों में से एक का काम प्रजा को विभक्त कर शासनव्यवस्था करना और दूसरे का काम दुष्टों का दमन करना है। १. दीवानी, २. फौजदारी विभाग।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ इन्द्रावरुणौ देवते। छन्दः—१, ४ आर्षी त्रिष्टुप् । २, ३, ५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    इन्द्र और वरुण का कार्य विभाजन

    पदार्थ

    पदार्थ- (स्व-यशसः) = अपने धनैश्वर्य से यशस्वी, (देवी:) = दानशील, (देवता:) = मानुष-प्रजाएँ (सदः सु सभा) = भवनों वा उत्तम पदों पर (इद्रं वरुणं धुः) = ऐश्वर्यवान् और श्रेष्ठ पुरुष को स्थापित करें। उन दोनों में से (एकः) = एक इन्द्र नाम अध्यक्ष (प्रविक्ताः) = अच्छी प्रकार विभक्त (कृष्टी: धारयति) = हलाकर्षित भूमियों को मेघ तुल्य प्रजाओं को धारण करे और (अन्य:) = दूसरा वरुण, शत्रुवारक अध्यक्ष (अप्रतीनि वृत्राणि) = छिपे शत्रुओं को दण्डित करे। इन्द्र का काम प्रजा को विभक्त कर शासनव्यवस्था करना और वरुण का काम दुष्टों का दमन है।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा अपने राज्य की सुव्यवस्था के लिए सम्पूर्ण राज्य को छोटे-छोटे वर्गों-क्षेत्रों में बाँट का सुन्दर प्रशासन की व्यवस्था करे तथा सेनापति राष्ट्र के बाहरी तथा आन्तरिक शत्रुओं का दमन करके राष्ट्र की रक्षा करे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Intelligent and brilliant people in their own right of quality and social prestige select, appoint and consecrate Indra and Varuna, brilliant and noble authorities, in their offices and assemblies. One of them, Varuna, manages the different orders of people, the other, Indra, destroys forces of darkness and enmity who refuse to be managed otherwise.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष परमात्मशक्तीला धारण करून भिन्न भिन्न कर्मांचे ज्ञाते असतात. ते परम ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वराची उपासना करतात व न्यायाधीश बनतात. जे बुद्धिविशारद असतात व जसा प्रबल वायू मेघमंडलाला वेगाने छिन्न भिन्न करतो. तसे ते शत्रू सेनेला छिन्न भिन्न करतात. अर्थात, दिव्यशक्ती संपन्न राजपुरुष, न्यायाधीश बनून प्रजेतील दोषांना नष्ट करून त्यांना धर्मपथावर चालवितात व दुसरे सेनाधीश बनून वशमध्ये न राहणाऱ्या शत्रूंवर विजय प्राप्त करून प्रजेमध्ये शांती पसरवून परमात्म्याच्या आज्ञेचे पालन करतात. ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top