ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 93/ मन्त्र 5
सं यन्म॒ही मि॑थ॒ती स्पर्ध॑माने तनू॒रुचा॒ शूर॑साता॒ यतै॑ते । अदे॑वयुं वि॒दथे॑ देव॒युभि॑: स॒त्रा ह॑तं सोम॒सुता॒ जने॑न ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । यत् । म॒ही इति॑ । मि॒थ॒ती इति॑ । स्पर्ध॑माने॒ इति॑ । त॒नू॒ऽरुचा॑ । शूर॑ऽसाता । यतै॑ते । अदे॑वऽयुम् । वि॒दथे॑ । दे॒व॒युऽभिः॑ । स॒त्रा । ह॒त॒म् । सो॒म॒ऽसुता॑ । जने॑न ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं यन्मही मिथती स्पर्धमाने तनूरुचा शूरसाता यतैते । अदेवयुं विदथे देवयुभि: सत्रा हतं सोमसुता जनेन ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । यत् । मही इति । मिथती इति । स्पर्धमाने इति । तनूऽरुचा । शूरऽसाता । यतैते । अदेवऽयुम् । विदथे । देवयुऽभिः । सत्रा । हतम् । सोमऽसुता । जनेन ॥ ७.९३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 93; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे विद्वांसः ! (सोमसुता) शुक्लबुद्धेरुत्पादयित्र्याः ओषध्याः (जनेन) निर्मात्रा जनेन वयं भवतः सत्कुर्मः (यत् एते) यतो भवन्तः (शूरसाता) शौर्यप्रधानयज्ञं रचयितारः (तनूरुचा) तनुमात्रपोषकेण सह (स्पर्धमाने) इर्ष्यितारः सन्ति (मही) महति (मिथती) युद्धे निपुणाश्च (विदथे) यज्ञे (सम्, सत्रा, हितम्) अविद्यादोषरहितं (अदेवयुम्) परमात्मस्वभावं (देवयुभिः) ज्ञानिजनसङ्गत्या प्राप्ताश्च ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे विद्वानों ! (सोमसुता) सौम्यस्वभाव को उत्पन्न करनेवाले ओषधियों को जाननेवाले (जनेन) मनुष्य द्वारा हम आपका सत्कार करते हैं, (यत्) जो आप (शूरसाता) वीरतारूपी यज्ञों के रचयिता हैं, (तनूरुचा) केवल तनुपोषक लोगों के साथ (स्पर्धमाने) स्पर्धा करनेवाले हैं, (मही) बड़े-बड़े (मिथती) युद्धों में आप निपुण हैं, (विदथे) आध्यात्मिक यज्ञों में (सं, सत्रा, हतं) अविद्यादिदोष रहित (अदेवयुम्) परमात्मा के स्वभाव को (देवयुभिः) ज्ञानी पुरुषों की सङ्गति से आप प्राप्त हैं ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में आध्यात्मिक ज्ञान का उपदेश किया है कि हे विद्वान् पुरुषो ! तुम लोग आहार-व्यवहार द्वारा सौम्यस्वभाव बनानेवाले विद्वानों का सङ्ग करो तथा जो पुरुष ज्ञानयोगी हैं, उनकी सङ्गति में रह कर अपने आपको परमात्मपरायण बनाओ ॥५॥
विषय
अग्रणी नायकों, वीरों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यत् ) जब ( मही ) बड़ी २ ( मिथती ) एक दूसरे को मारती और ललकारती हुईं ( तनू-रुचा ) अपने विस्तृत शरीर के तेज से ( स्पर्धमाने ) एक दूसरे से बढ़ने के निमित्त स्पर्धा कराने वाली दो स्त्रियों या वरवधू के समान परस्पर स्पर्धा करती हुई दो सेनाएं ( शूर-साता ) वीरों के संग्राम में ( सं-यतेते ) परस्पर विजय का यत्न करती हैं उनमें, हे इन्द्र अग्नि ! वीरों और अग्रणी नायक जनो ! आप दोनों ( विदथे ) संग्राम में ( देवयुभिः ) दानशील, वृत्तिदाता राजा के प्रिय पक्ष वाले वीर पुरुषों के साथ मिलकर ( अदेवयुं ) राजा के अप्रिय, शत्रु जन को (सोमसुता जनेन) ऐश्वर्य अन्नादि के उत्पन्न करने वाले प्रजाजन के साथ मिलकर ( वृत्रा हतम् ) विघ्नकारी शत्रुओं को एक साथ मारो । इति पञ्चदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ।। छन्दः –१, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २,५ आर्षी त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, ७ विराट् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
कृतज्ञ नायक
पदार्थ
पदार्थ - (यत्) = जब (मही) = बड़ी-बड़ी (मिथती) = परस्पर ललकारती हुईं (तनू रुचा) = शरीर के तेज से (स्पर्धमाने) = एक दूसरे से बढ़ने की दो स्त्रियों के समान स्पर्द्धालु दो सेनाएँ (शूर-साता) = वीरों के संग्राम में (सं-यतेते) = विजय का यत्न करती हैं उनमें, हे इन्द्र, अग्नि! वीरों और (अग्रणी) = नायक जनो! आप दोनों (विदथे) = संग्राम में (देवयुभिः) = वृत्तिदाता राजा के पक्षवाले वीर पुरुषों के साथ मिलकर (अदेवयुं) = राजा के अप्रिय, शत्रु जन को (सोमसुता जनेन) = अन्नादि के उत्पादक प्रजाजन के का यश के साथ मिलकर (वृत्रा हतम्) = विघ्नकारी शत्रुओं को मारो।
भावार्थ
भावार्थ- जब युद्ध क्षेत्र में दो शत्रुसेनाएँ परस्पर विजय के लिए प्रयासरत हों उस समय सेनानायक जन तथा वीर सैनिक अपने राजा व राष्ट्र के प्रति कृतज्ञ होकर, प्रजाजनों के साथ मिलकर शत्रु सेना को हराने का प्रयत्न करें तथा शत्रु सेना को मारें।
इंग्लिश (1)
Meaning
When two great forces, contesting against each other in the battle of the brave, fight with their bodily might and lustre, then, O warrior, devoted joining with the forces dedicated to divinity in the strife, destroy the impious power with righteous arms. Save the devotees of soma and divinity with your knowledge and application of knowledge in action.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात आध्यात्मिक ज्ञानाचा उपदेश केलेला आहे. विद्वान पुरुषांनो! तुम्ही लोक आहार व्यवहाराद्वारे सौम्य स्वभाव बनविणाऱ्या विद्वानांचा संग करा व जे पुरुष ज्ञानयोगी आहेत त्यांच्या संगतीत राहून स्वत:ला परमात्मपरायण बनवा. ॥५॥
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