ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 93/ मन्त्र 6
इ॒मामु॒ षु सोम॑सुति॒मुप॑ न॒ एन्द्रा॑ग्नी सौमन॒साय॑ यातम् । नू चि॒द्धि प॑रिम॒म्नाथे॑ अ॒स्माना वां॒ शश्व॑द्भिर्ववृतीय॒ वाजै॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माम् । ऊँ॒ इति॑ । सु । सोम॑ऽसुति॑म् । उप॑ । नः॒ । आ । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । सौ॒म॒न॒साय॑ । या॒त॒म् । नु । चि॒त् । हि । प॒रि॒म॒म्नाथे॒ इति॑ प॒रि॒ऽम॒म्नाथे॑ । अ॒स्मान् । आ । वा॒म् । शश्व॑त्ऽभिः । व॒वृ॒ती॒य॒ । वाजैः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमामु षु सोमसुतिमुप न एन्द्राग्नी सौमनसाय यातम् । नू चिद्धि परिमम्नाथे अस्माना वां शश्वद्भिर्ववृतीय वाजै: ॥
स्वर रहित पद पाठइमाम् । ऊँ इति । सु । सोमऽसुतिम् । उप । नः । आ । इन्द्राग्नी इति । सौमनसाय । यातम् । नु । चित् । हि । परिमम्नाथे इति परिऽमम्नाथे । अस्मान् । आ । वाम् । शश्वत्ऽभिः । ववृतीय । वाजैः ॥ ७.९३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 93; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्राग्नी) हे ज्ञानविज्ञानविद्यावेत्तारः ! (नः) अस्माकम् (इमाम्) इदं (सोमसुतिम्) विज्ञानविद्याया यन्त्रनिर्माणस्थानं (सौमनसाय) अस्मन्मनः प्रसादाय (उपयातम्) आगत्य पश्यत (हि) यतः (अस्मान्) अस्मान्सर्वान् (आ) सम्यक् (नु, चित्) निश्चयेन (सु, परिमम्नाथे) आत्मसात्कुर्वन्ति भवन्तः, वयं च (वाजैः) उपयुक्तसत्कारैः (शश्वद्भिः) अनेकैः (ववृतीय) निमन्त्रयामः (वाम्) युष्मान् ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्राग्नी) ज्ञान-विज्ञान विद्याओं के ज्ञाता विद्वानों ! (नः) हमारे (इमां) इस (सोमसुतिं) विज्ञानविद्या के यन्त्रनिर्माणस्थान को (सौमनसाय) हमारे मन की प्रसन्नता के लिए (उपयातं) आकर दृष्टिगोचर करें, (हि) क्योंकि (अस्मान्) हमको (आ) सब प्रकार से (नु, चित्) निश्चय करके (सु, परिमम्नाथे) आप अपनाते हैं और (वां) आपको हम लोग (वाजैः) आपके योग्य सत्कारों से (शश्वद्भिः) निरन्तर (ववृतीय) निमन्त्रित करते हैं ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे यजमानो ! आप लोग ज्ञान-विज्ञान के ज्ञाता विद्वानों को अपनी विज्ञानशालाओं में बुलाएँ, क्योंकि ज्ञान तथा विज्ञान से बढ़कर मनुष्य के मन को प्रसन्न करनेवाली संसार में कोई अन्य वस्तु नहीं, इसलिए तुम विद्वानों की सत्सङ्गति से मन के (सौमनस्य) अर्थात् विज्ञानादि भावों को बढ़ाओ, यही मनुष्यजन्म का सर्वोपरि फल है। सायणाचार्य्य ने यहाँ (मन्त्र) के अर्थ मेरे ही यज्ञ में आने के किये हैं, सो ठीक नहीं, क्योंकि यज्ञान्त में ऋत्विगादि विद्वान् और यजमान मिलकर परमात्मा से पापनिवृत्त्यर्थ यह प्रार्थना करें ॥६॥
विषय
अग्रणी नायकों, वीरों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्राग्नी ) ऐश्वर्यवन् ! हे विद्वन् ! अग्रणी नायक जनो! आप दोनों ( नः ) हमारी ( इमाम् ) इस ( सोम-सुतिम् ) अन्न ओषधि आदि के द्वारा किये यज्ञ को ( सौमनसाय ) उत्तम मन बनाये रखने के लिये ( सु-आ-यातम् ) आदरपूर्वक आइये । ( नू चित् हि ) आप लोग कभी भी ( अस्मान् परि मम्नाथे ) हमें त्याग कर अन्य को न मानें । मैं प्रजाजन (वां) आप दोनों को ( वाजैः शश्वद्भिः ) बहुत अन्नों और ऐश्वर्यों से ( आ ववृतीय ) आदरपूर्वक सम्भान करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ।। छन्दः –१, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २,५ आर्षी त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, ७ विराट् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विद्वान् यज्ञों में जावें
पदार्थ
पदार्थ - हे (इन्द्राग्नी) = ऐश्वर्यवन् ! हे विद्वन्! आप दोनों (नः) = हमारे (इमाम्) = इस (सोमसुतिम्) = अन्न आदि द्वारा किये यज्ञ को (सौमनसाय) = उत्तम मन बनाये रखने के लिये (सु-आयातम्) = आदर पूर्वक आइये। (नू चित् हि) = आप कभी भी (अस्मान् परि मम्नाथे) = हमें त्यागकर अन्य को न मानें। मैं (प्रजाजन वां) = आप दोनों को (वाजैः शश्वद्भिः) = बहुत ऐश्वर्यों से (आ ववृतीय) = सम्मानित करूँ।
भावार्थ
भावार्थ- विद्वान् जन प्रजा जनों द्वारा किए जानेवाले यज्ञों में जावें और अपने उपदेशों के द्वारा उनके अन्तःकरणों को पवित्र बनावें। प्रजाजन इन विद्वानों का अन्न-धन आदि से सम्मान करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra and Agni, lords of action and light of knowledge, come and grace this soma yajna of ours for the joy and fulfilment of our heart. After all you accept us as your own and never neglect us. Therefore I constantly invoke and invite you with homage and yajnic gifts of never failing order and value.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे यजमानांनो! तुम्ही ज्ञान-विज्ञानाचे ज्ञाते असलेल्या विद्वानांना आपल्या विज्ञान शाळेत बोलवा. कारण ज्ञान-विज्ञानापेक्षा माणसाच्या मनाला प्रसन्न करणारी कोणतीही वस्तू जगात नाही. त्यासाठी विद्वानांच्या संगतीने मनाच्या सौमनस्य अर्थात विज्ञान इत्यादींची वृद्धी करा. हेच मनुष्य जन्माचे सर्वोत्कृष्ट फळ आहे. ॥६॥
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