ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 96/ मन्त्र 5
ये ते॑ सरस्व ऊ॒र्मयो॒ मधु॑मन्तो घृत॒श्चुत॑: । तेभि॑र्नोऽवि॒ता भ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठये । ते॒ । स॒र॒स्वः॒ । ऊ॒र्मयः॑ । मधु॑ऽमन्तः । घृ॒त॒ऽश्चुतः॑ । तेभिः॑ । नः॒ । अ॒वि॒ता । भ॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये ते सरस्व ऊर्मयो मधुमन्तो घृतश्चुत: । तेभिर्नोऽविता भव ॥
स्वर रहित पद पाठये । ते । सरस्वः । ऊर्मयः । मधुऽमन्तः । घृतऽश्चुतः । तेभिः । नः । अविता । भव ॥ ७.९६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 96; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ ज्ञानं स्रोतोरूपेण वर्ण्यते।
पदार्थः
(सरस्वः) हे सरस्वः ! (ये, ते) ये तव (मधुमन्तः) मधुराः (घृतश्चुतः) मसृणाः अनेकस्रोतसः (ऊर्मयः) वीचयः (तेभिः) तैः (नः) अस्माकं (अविता) रक्षिता (भव) एधि ॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
अब ज्ञान को स्रोतरूप से वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(सरस्वः) हे सरस्वः “मतुवसो रु संबुद्धौ छन्दसि” (ये) जो (ते) तुम्हारी (ऊर्मयः) लहरें हैं, (मधुमन्तः) वे बड़ी मीठी (घृतश्चुतः) और जिनमें से नाना प्रकार के स्रोत बह रहे हैं, “घृतमिति उदकनामसु पठितम्।” निघ० १।१२॥ (तेभिः) उनसे (नः) हमारे (अविता) तुम रक्षक (भव) बनो ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यों ! ब्रह्मविद्यारूपी सरित् की लहरें अत्यन्त मीठी है और आप विद्याप्राप्ति के लिये सदैव यह विनय किया करें कि वह विद्या अपने विचित्र भावों से आपकी रक्षक बने ॥५॥
विषय
ज्ञानवान् प्रभु सरस्वान् से प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( सरस्वः ) उत्तम ज्ञान और बलशालिन् ! ( ते ) तेरे (ये) जो ( मधुमन्तः ) मधुर आनन्द, जल, अन्नादि युक्त और ( घृतश्चुतः ) प्रकाश, स्नेह और जलप्रदान करने वाले ( ऊर्मयः ) उत्तम तरङ्गवत् उत्कृष्ट मार्ग से जाने वाले विद्वान्, सूर्य, पवन, मेघादि हैं ( तेभिः ) उनसे तू ( नः ) हमारा (अविता ) रक्षक (भव ) हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १—३ सरस्वती। ४—६ सरस्वान् देवता॥ छन्द:—१ आर्ची भुरिग् बृहती। ३ निचृत् पंक्तिः। ४, ५ निचृद्गायत्री। ६ आर्षी गायत्री॥
Bhajan
वैदिक मन्त्र
ये तेसरस्व ऊर्मयो मधुयन्तो घृतश्चुत: ।
तेभिर्नोषऽसविता भव।। ऋ ॰ ७.९६.५
वैदिक भजन ११
राग छायानट
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर
ताल कहरवा ८ मात्रा
हे पर्जन्य हे मेघ तू भरा रस से
तू सरस्वान है
तेरी वर्षा की मनभावनी
निर्मल सी फुहारें निष्काम हैं
है पर्जन्य.............
हे पवन तू रसीला है
मन्द- मन्द बहती है लहर
आल्हादायक मधुमय
तेरा स्पर्श बड़ा है प्रवर
जलकणों से युक्त देता है सुख
संतृप्त का मिलता दान है
हे पर्जन्य.......
हे प्रभु परमेश्वर हितु
तुम भी हो रसवान्
तुम्हरे रस की गंगा में
ऋषि करते हैं स्नान
अनुभव बताते रसो वै स:
दिव्याश रस ये अमृत समान है
हे पर्जन्य........
जिन्हें मिलता है यह दिव्य रस
वे पाते हैं आनन्द
ब्रह्मानन्द अतुलनीय है
इसकी महिमा है अनन्त
इसकी लहर है दिव्य
अति सुखद शान्त
ऋषियों के पास प्रमाण है
हे पर्जन्य..........
धन धान्य व भौतिक सुख
कहलाता है मनुष्यानन्द
मिले ऐसे जो सौ आनन्द
कहलाता गन्धर्वानन्द
ऐसे सौ आनद है पितरानन्द
ऋषियों का कहा अनुध्यान है ।।
है पर्जन्य............
भाग२
सौ पितर-आनन्द मिलकर
कहलाता आजान- देवानन्द
ऐसे सौ आनंद मिलकर
बनता है देव कर्मानन्द
फिर सौ आनन्द का है इन्दिरानन्द
ऋषियों का साधित यह ज्ञान है।।
हे पर्जन्य........
सौ इन्दिरानन्द मिलकर
बनता बृहस्पत्यानन्द
सौ बृहस्पति आनन्द से
बनता है प्रजापत्यानन्द
सौ प्रजापति का आनन्द
ब्रह्मानन्द का ही धाम है।
हे पर्जन्य..........
कितना महान है ब्रह्मानन्द
आत्मा का है पूर्ण आनन्द
रसागार है यह प्रभु का
आत्मा बनता है प्रपन्न
हे सरस्वान् दो आनन्द प्रदान
इसका वरद सुखद पवि स्नान है।।
हे पर्जन्य...........
१०.९.२०२३
२१.४५ रात्रि
सरस्वान= रस से भरा
आह्लाद= प्रसन्नता से ओत-प्रोत
संतृप्ति= संतोष
रसो वै स:= वह रस से भरा है
अतुलनीय= जिसे तोला ना जा सके
अनुध्यान=चिन्तन
साधित= साधा हुआ, सिद्ध किया हुआ
रसागार = रसों का खजाना
प्रपन्न= शरणागत, पहुंचा हुआ
वरद= वरदायक
पवि = शुद्ध, निर्मल
🕉🧘♂️
द्वितीय श्रृंखला का १३७ वां वैदिक भजन और अब तक का क्रमशः ११४४ वां वैदिक भजन
🕉🧘♂️ वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं❗🙏
Vyakhya
सरस्वान् की सरस लहरियॉं + English
हे पर्जन्य! हे बादल! तू सरस्वान है, रस से भरा हुआ है। तेरी वर्षा की फुहारें बड़ी मधुर मनभावनी और निर्मल, शीतल, जल को भूमि पर लाने वाली हैं। नित्य बरसात में गगन में छाने वाला तू उनके द्वारा हमारी रक्षा करता रह।
हे पवन ! तू भी सरस्वान है, रसीला है। तेरी जलकणों से युक्त मन्द! मन्द लहरियॉं बड़ी ही मधुमयअल्हाददायक तथा शक्ति प्रदान करने वाली हैं। उनसे तू हमें सुख- संतृप्ति प्रदान करता रह।
हे परमेश प्रभु ! तुम भी सरस्वान् हो, रसमय हो। तुम्हारे रस की गंगा में स्नान करने वाले ऋषि ने अपना अनुभव बताते हुए ठीक ही कहा है--'रसो वै स:'। जो तुम्हारे दिव्य रस की अनुभूति का लेता है वह आनन्दी हो जाता है। तुमसे मिलने वाले ब्रह्मानंद रस की परिभाषा करना असंभव है,वह अवरणीय है, अतुलनीय है। फिर भी ऋषि गणना करते हुए कहते हैं-- यदि किसी सर्वांगसुन्दर,सुदृढ़, बलिष्ठ युवक को धन-धान्य से परिपूर्ण सारी पृथ्वी मिल जाए तब उसे जो आनंन्द होता है वह मानुष आनन्द है। ऐसे सौ आनंद मिलकर एक मनुष्य-गन्धर्वों का आनन्द बनता है। ऐसे ऐसे सौआनन्द मिलकर एक देव गंधर्वों का आनन्द बनता है। ऐसे- ऐसे सौ आनद मिलकर एक चिर लोक- पितरों का आनन्द होता है। ऐसे-ऐसे सौ आनन्द मिलकर एक आजान देवों का आनन्द होता है। ऐसे ऐसे सो आनन्द मिलकर एक कर्मदेवों का आनन्द होता है। ऐसे- ऐसे आनन्द मिलकर एक देवों का आनन्द होता है। ऐसे ऐसे सौ आनन्द मिलकर एक इन्द्र का आनन्द होता है। ऐसे ऐसे सौ आनन्द मिलकर एक बृहस्पति का आनन्द होता है। फिर ऐसे- ऐसे सो आनन्द मिलकर एक प्रजापति का आनन्द होता है। पुनः प्रजापति के सौ आनन्द मिलकर एक ब्रह्मानद बनता है ।
तो कितना महान है ब्रह्मानन्द ! हे रसागार प्रभु! तुम्हारा उपासक तुम्हारे दिव्या मधुर आल्हादक शान्तिप्रद आनद रस की लहरियों से उतरंगित एवं एवं चमत्कृत होकर कृत कृत्य हो जाता है। हे सरस्वान प्रभु! अपने दिव्य आनन्दरस की लहरियां हमें भी प्राप्त कराओ हमें भी अपना सखा बनाकर हमारी अंगुली पड़कर अपनी उन आनन्द की तरंगिणियों में तैराकर डूबकियां लगाकर कृतार्थ करो।
विषय
रक्षक ईश्वर
पदार्थ
पदार्थ - हे (सरस्वः) = ज्ञान और बलशालिन् ! (ते) = तेरे (ये) जो (मधुमन्तः) = जल, अन्नादि युक्त (घृतच्युतः) = स्नेह और जल (प्रदाता उर्मयः) = उतम तरङ्गवत् उत्कृष्ट मार्ग से जानेवाले विद्वान्, सूर्यमेघादि हैं (तेभिः) = उनसे तू (नः) = हमारा (अविता) = रक्षक (भव) = हो ।
भावार्थ
भावार्थ- ईश्वर उत्तम ज्ञान, बल, अन्न, जल, नदी, सूर्य, मेघ आदि को रचकर हमारी रक्षा करता है। इनके बिना जीवों के जीवन नहीं चल सकते।
इंग्लिश (1)
Meaning
O divine ocean of the eternal flow of existence and the cosmic light of omniscience, be our light giver and saviour with waves of the honey sweets of nectar and the radiance of light divine.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे माणसांनो! ब्रह्मविद्यारूपी सरितेच्या लहरी अत्यंत मधुर असतात व तुम्ही विद्याप्राप्तीसाठी सदैव विनयी बनल्यास विद्या आपल्या वैचित्र्यपूर्ण भावांनी तुमची रक्षक होईल. ॥५॥
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