ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 1
य॒ज्ञे दि॒वो नृ॒षद॑ने पृथि॒व्या नरो॒ यत्र॑ देव॒यवो॒ मद॑न्ति । इन्द्रा॑य॒ यत्र॒ सव॑नानि सु॒न्वे गम॒न्मदा॑य प्रथ॒मं वय॑श्च ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञे । दि॒वः । नृ॒ऽसद॑ने । पृ॒थि॒व्याः । नरः॑ । यत्र॑ । दे॒व॒ऽयवः॑ । मद॑न्ति । इन्द्रा॑य । यत्र॑ । सव॑नानि । सु॒न्वे । गम॑त् । मदा॑य । प्र॒थ॒मम् । वयः॑ । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञे दिवो नृषदने पृथिव्या नरो यत्र देवयवो मदन्ति । इन्द्राय यत्र सवनानि सुन्वे गमन्मदाय प्रथमं वयश्च ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञे । दिवः । नृऽसदने । पृथिव्याः । नरः । यत्र । देवऽयवः । मदन्ति । इन्द्राय । यत्र । सवनानि । सुन्वे । गमत् । मदाय । प्रथमम् । वयः । च ॥ ७.९७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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विषय - अथ प्रसङ्गसङ्गति से ब्रह्मणस्पति विद्या के पति परमात्मा का वर्णन करते हैं।
पदार्थ -
(यत्र, यज्ञे) जिस यज्ञ में (देवयवः) देव ईश्वर परमात्मा को चाहनेवाले (नरः) मनुष्य (मदन्ति) आनन्द को प्राप्त होते हैं और (नृषदने) जिस यज्ञ में (दिवः) द्युलोक से (पृथिव्याः) पृथिवी पर (गतम्) विद्वान् लोग विमानों द्वारा आते हैं और जिस यज्ञ में (वयः) ब्रह्म के जिज्ञासु (प्रथमम्) सबसे पहले (मदाय) ब्रह्मानन्द के लिये आकर उपस्थित होते हैं, उसमें (इन्द्राय) “इन्द्रतीतीन्द्रः परमात्मा” परमात्मा की (सवनानि) उपासनायें (सुन्वे) करूँ ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासु जनों ! तुम उपासनारूप यज्ञों में परस्पर मिल कर उपासना करो और द्युलोक द्वारा विमानों पर आये हुये विद्वानों का आप भली भाँति सत्कार करें। यहाँ जो ‘सुन्वे’ उत्तम पुरुष का एकवचन देकर जीव की ओर से प्रार्थना कथन की गयी है, यह शिक्षा का प्रकार है, अर्थात् जीव की ओर से यह परमात्मा का वचन है। यही प्रकार “अग्निमीळे पुरोहितम्” ऋक् १, १ १। “मैं परमात्मा की स्तुति करता हूँ” इत्यादि मन्त्रों में भी दर्शाया गया है। इससे यह सन्देह सर्वथा निर्मूल है कि यह वाक्य जीवनिर्मित है, ईश्वरनिर्मित नहीं, क्योंकि उपासना प्रार्थना के विषय में सर्वत्र जीव की ओर से प्रार्थना बतलायी गयी हैं। अन्य उत्तर इसका यह भी कि ग्रन्थ में पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष दोनों ही ग्रन्थकर्त्ता की ओर से होते हैं, फिर भी पूर्वपक्ष अन्य की ओर से और उत्तरपक्ष ग्रन्थकर्त्ता की तरफ से कथन किया जाता है। यही प्रकार यहाँ भी है और ऋग्वेद के दशवें मण्डल के अन्त में “सङ्गच्छध्वम् संवदध्वं” ॥ ऋ. मं. १० सू. १९१-२ ॥ यह तुम्हारा मन्तव्य और कर्तव्य एक सा हो और “समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः” ॥ ऋ, १०।१।९१।४॥ तुम्हारा भाषण और तुम्हारे हृदय एक से हों, इस स्थल में ईश्वर ने अपनी ओर से विधिवाद को स्पष्ट कर दिया, जिसमें गन्धमात्र भी सन्देह नहीं ॥१॥
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विषयः - अथ प्रसङ्गसङ्गत्या विद्यापतिर्ब्रह्मणस्पतिर्वर्ण्यते।
पदार्थः -
(यत्र यज्ञे) यस्मिन्यज्ञे (देवयवः) ईश्वरं कामयमानाः (नरः) मनुष्याः (मदन्ति) हृष्यन्ति तथा च (नृषदने) यत्र यज्ञे (दिवः) द्युलोकात् (पृथिव्याः) पृथिव्यां (गमत्) विद्वांस आयान्ति, यत्र च (वयः) ब्रह्मणो जिज्ञासवः (प्रथमम्) प्राक् (मदाय) ब्रह्मानन्दायोपतिष्ठन्ते, तत्र (इन्द्राय) परमात्मने (सवनानि) उपासनाः (सुन्वे) कुर्याम् ॥१॥
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Meaning -
Where in the yajna in the house of assembly, leading lights of humanity from the earth and leading lights of life from heaven join and rejoice in pursuit of divinity, and where the exhilarating essences of soma are distilled for celebration in honour of Indra, lord of the world, there let us join and pray, and may the lord arrive in the first and foremost manifestations of divinity for young and old.
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भावार्थ - परमात्मा उपदेश करतो, की हे जिज्ञासू लोकांनो! तुम्ही उपासनारूपी यज्ञात परस्पर मिळून उपासना करा व द्युलोकातून विमानाद्वारे आलेल्या विद्वानांचा चांगल्या प्रकारे सत्कार करा. ‘सुन्वे’ उत्तम पुरुषाचे एकवचन वापरून जीवाकडून प्रार्थना म्हटलेली आहे हा उपदेशाचा प्रकार आहे. अर्थात, जीवाकडून हे परमेश्वराचे वचन आहे. हाच प्रकार ‘अग्निमीळे पुरोहितम्’ ऋक् १,१,१ मी परमेश्वराची स्तुती करतो इत्यादी मंत्रांत दर्शविलेला आहे. त्यामुळे संशय सर्वथा निर्मूल आहे, की हे वाक्य जीवनिर्मित आहे, ईश्वरनिमित नाही. कारण उपासना प्रार्थनेच्या विषयात जीवाकडून सर्वत्र प्रार्थना सांगितलेली आहे.
टिप्पणी -
याचे दुसरे उत्तर, हे की ग्रंथात पूर्व पक्ष व उत्तर पक्ष दोन्हीही ग्रंथकारांकडूनच असतात. तरीही पूर्वपक्ष एकाकडून व उत्तर पक्ष ग्रंथकाराकडून सांगितला जातो. येथेही असाच प्रकार आहे. ऋग्वेदाच्या दहाव्या मंडलाच्या शेवटी ‘संगच्छध्वम् संवदध्वं’ ऋ. मं. १० सू १९१-२ ॥ तुमचे मंतव्य व कर्तव्य एकसारखे असावे व ‘समानी व आकूति: समाना हृदयानि व:’ ॥ ऋ. १०/१/९१/४॥ तुमची वाणी व हृदय एक असावे. याठिकाणी ईश्वराने आपल्याकडून विधिवाद स्पष्ट केलेला आहे. जो नि:संशय आहे. ॥१॥
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