ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 97/ मन्त्र 5
तमा नो॑ अ॒र्कम॒मृता॑य॒ जुष्ट॑मि॒मे धा॑सुर॒मृता॑सः पुरा॒जाः । शुचि॑क्रन्दं यज॒तं प॒स्त्या॑नां॒ बृह॒स्पति॑मन॒र्वाणं॑ हुवेम ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । आ । नः॒ । अ॒र्कम् । अ॒मृता॑य । जुष्ट॑म् । इ॒मे । धा॒सुः॒ । अ॒मृता॑सः । पु॒रा॒ऽजाः । शुचि॑ऽक्रन्दम् । य॒ज॒तम् । प॒स्त्या॑नाम् । बृह॒स्पति॑म् । अ॒न॒र्वाण॑म् । हु॒वे॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमा नो अर्कममृताय जुष्टमिमे धासुरमृतासः पुराजाः । शुचिक्रन्दं यजतं पस्त्यानां बृहस्पतिमनर्वाणं हुवेम ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । आ । नः । अर्कम् । अमृताय । जुष्टम् । इमे । धासुः । अमृतासः । पुराऽजाः । शुचिऽक्रन्दम् । यजतम् । पस्त्यानाम् । बृहस्पतिम् । अनर्वाणम् । हुवेम ॥ ७.९७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(बृहस्पतिम्) विश्वेश्वरं (अनर्वाणम्) इन्द्रियगोचरं (तम्, हुवेम) तं ज्ञानेन प्राप्नुयाम (शुचिक्रन्दम्) शुद्धस्तोत्रं (अर्कम्) स्वप्रकाशं (यजतम्) यष्टव्यम् (अमृताय, जुष्टम्) अमृताय हेतवे सेवितम्, यं (अमृतासः) मुक्तिभाजः (पुराजाः) प्राचीनाः (इमे) इमे देवाः (पस्त्यानाम्, नः) गृहस्थेषु अस्मासु (आधासुः) धारितवन्तः ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(बृहस्पतिम्) सबके स्वामी (अनर्वाणम्) जो इन्द्रिय-अगोचर है, (तं हुवेम) उसको हम ज्ञान द्वारा प्राप्त हों। (शुचिक्रन्दम्) जिसके पवित्र स्तोत्र हैं, (अर्कम्) जो स्वतःप्रकाश है, (यजतम्) जो यजनार्ह है, (अमृताय, जुष्टम्) जो अमृतमय है, जिसको (अमृतासः) मुक्ति सुख के भजनेवाले (पुराजाः) प्राचीन (इमे) इन देवों ने (पस्त्यानाम्, नः) गृहस्थों हम लोगों को (आधासुः) धारण कराया है ॥५॥
भावार्थ
जो परमात्मा स्वतःप्रकाश और जन्ममरणादि धर्मरहित है अर्थात् नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव है, उसको हम अपने शुद्ध अन्तःकरण में धारण करें। तात्पर्य यह है कि जब मन मल-विक्षेपादि दोषों से रहित हो जाता है, तब उसे ब्रह्म की अवगति अर्थात् ब्रह्मप्राप्ति होती है और ब्रह्मप्राप्ति के अर्थ यहाँ ज्ञानद्वारा प्राप्ति के है, देशान्तर प्राप्ति के नहीं। इस बात को भलीभाँति निम्नलिखित मन्त्र में वर्णन किया गया है ॥५॥
विषय
प्रार्थना स्तुति।
भावार्थ
( नः ) हमारे (पुराजा:) पूर्व काल में नाना जन्मों में उत्पन्न ( इमे ) ये ( अमृतासः ) अविनाशी जीवगण ( अमृताय ) दीर्घ जीवन के लिये ( अर्कम् ) अन्न के समान ( अमृताय ) अमृत, मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये ( जुष्टं ) प्रेम से सेवनीय ( अर्कं ) अर्चना योग्य ( तम् ) इसी प्रभु परमेश्वर को ( धासुः ) धारण करें । और ( पस्त्यानां ) गृहों, वा गृहस्थों के समान देह रूप गृहों में रखने वाले जीवों के ( यजतम् ) उपासनीय, ( शुचि-क्रन्दं ) गुरु वा न्यायकर्त्ता के समान शुद्ध, निर्दोष वचन कहने वाले, ( अनर्वाणम् ) अन्य अश्वादि की अपेक्षा न करने वाले स्वयंगामी रथवत् ( अनर्वाणं ) निरपेक्ष, स्वयं जगत् के सञ्चालक, अहिंसक ( बृहस्पतिम् ) बड़े २ सूर्यादि के भी पालक प्रभु को हम ( हुवेम ) स्तुति करें, उसी को दुःख में याद करें । इत्येकविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १ इन्द्रः। २,४—८ बृहस्पतिः। ३,९ इन्द्राब्रह्मणस्पती। १० इन्द्राबृहस्पती देवते। छन्दः—१ आर्षी त्रिष्टुप्। २, ४, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ५, ६, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
मोक्ष के लिए जीवन मिला है
पदार्थ
पदार्थ- (न:) = हमारे (पुराजा:) = पूर्व काल में नाना जन्मों में उत्पन्न (इमे) = ये (अमृतासः) = अविनाशी जीवगण (अमृताय) = दीर्घ जीवन के लिये (अर्कम्) = अन्न के समान (अमृताय) = मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये (जुष्टं) = प्रेम से सेवनीय (अर्कं) = अर्चना योग्य (तम्) = उस परमेश्वर को (धासुः) = धारण करें और (पस्त्यानां) = गृहस्थों के समान देह रूप गृहों में रहनेवाले जीवों के (यजतम्) = उपासनीय, (शुचिक्रन्द्रं) = न्यायकर्त्ता के समान शुद्ध, निर्दोष वचन कहनेवाले, (अनर्वाणम्) = अश्वादि की अपेक्षा न करनेवाले स्वयंगामी रथ तुल्य जगत्-सञ्चालक, (बृहस्पतिम्) = बड़े-बड़े सूर्यादि के भी पालक प्रभु की हम (हुवेम) = स्तुति करें।
भावार्थ
भावार्थ- नाना जन्मों में किए गए कर्मों के आधार पर परमेश्वर दीर्घ जीवन, अन्नादि भोग तथा मानव देह प्रदान करता है। वह जीवों को मोक्ष-सुख देने के लिए ही मानव देह देता है इसलिए उस प्रभु की स्तुति नित्य किया करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
That self-refulgent adorable Brhaspati, lord sustainer and ruler of the vast world, loved and worshipped for the attainment of the immortal state of bliss, may these Sages of primeval and original vision reveal to us and bring us close to it. That same Brhaspati, incomprehensible supreme lord all loving and enemy to none, celebrated in the purity of divine hymns of the Veda, sole object of the worship and yajnic homage of our citizens in our homes, we invoke and adore.
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमेश्वर स्वयंप्रकाशी असून, जन्ममरण इत्यादी धर्मानीरहित आहे, अर्थात नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव, आहे त्याला आम्ही शुद्ध अंत:करणात धारण करावे. तात्पर्य हे, की जेव्हा मन मल,विक्षेप इत्यादी दोषांनी रहित होते तेव्हा त्याला ब्रह्माची अवगती (ज्ञान) अर्थात ब्रह्मप्राप्ती होते. ब्रह्मप्राप्तीचा अर्थ येथे ज्ञानाद्वारे प्राप्ती आहे. देशांतर प्राप्ती नव्हे. निम्नलिखित मंत्रातही हेच प्रकट केलेले आहे. ॥५॥
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