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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिक्बृहती स्वरः - मध्यमः

    ययो॒रधि॒ प्र य॒ज्ञा अ॑सू॒रे सन्ति॑ सू॒रय॑: । ता य॒ज्ञस्या॑ध्व॒रस्य॒ प्रचे॑तसा स्व॒धाभि॒र्या पिब॑तः सो॒म्यं मधु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ययोः॑ । अधि॑ । प्र । य॒ज्ञाः । अ॒सू॒रे । सन्ति॑ । सू॒रयः॑ । ता । य॒ज्ञस्य॑ । अ॒ध्व॒रस्य॑ । प्रऽचे॑तसा । स्व॒धाभिः॑ । या । पिब॑तः । सो॒म्यम् । मधु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ययोरधि प्र यज्ञा असूरे सन्ति सूरय: । ता यज्ञस्याध्वरस्य प्रचेतसा स्वधाभिर्या पिबतः सोम्यं मधु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ययोः । अधि । प्र । यज्ञाः । असूरे । सन्ति । सूरयः । ता । यज्ञस्य । अध्वरस्य । प्रऽचेतसा । स्वधाभिः । या । पिबतः । सोम्यम् । मधु ॥ ८.१०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 10; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (ययोः) ययोरश्विनोः (यज्ञाः, प्र, अधि) यज्ञाः अधिकाः प्रवर्तन्ते (असूरे) विद्यारहितप्रदेशे (सूरयः, सन्ति) विद्वांसो निवसन्ति (अध्वरस्य, यज्ञस्य, प्रचेतसा) हिंसारहितयज्ञानां ज्ञातारौ (ता, स्वधाभिः) तौ स्तुतिभिरायातम् (या) यौ (सोम्यम्, मधु, पिबतः) सोमसम्बन्धिरसं पिबतः ॥४॥

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    विषयः

    पुनरपि राजकर्त्तव्यमाह ।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! ययोः=अश्विनोः=पुण्यकृतयो राज्ञोः । अधि=उपरि । यज्ञाः=सर्वाणि शुभकर्माणि । प्रभवन्ति=आश्रिताः सन्ति । ययोः । सूरयः=विद्वांसो जनाः । असूरे=प्राक् सूर्य्योदयाद् उत्थिताः । सन्ति=भवन्ति । यद्वा । ययोः । असूरे=असूर्य्येऽपि । देशे=उत्तरीयध्रुवनिकट- प्रदेशेऽपि । सूरयो=विद्वांसो जनाः प्रजात्वेन सन्ति । यौ ता=तौ । अध्वरस्य=हिंसाप्रत्यवायरहितस्य । यज्ञस्य= शुभकर्मणः । प्रचेतसा=प्रकृष्टज्ञातारौ स्तः । तौ । स्वधाभिः= स्वधायिनीभिः=स्वरक्षिकाभिः प्रजाभिः सह । सोम्यम्= सोममिलितं मधु पिबतः ॥४ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (ययोः) जिनके (यज्ञाः, प्र, अधि) यज्ञ अधिक प्रवृत्त होते हैं (असूरे) विद्यारहित देश में (सूरयः, सन्ति) जिनके विद्वान् बसते हैं (अध्वरस्य, यज्ञस्य, प्रचेतसा) हिंसारहित यज्ञों के जाननेवाले (ता) वे दोनों (स्वधाभिः) स्तुति द्वारा आवें (या) जो (सोम्यम्, मधु, पिबतः) सोम के मधुर रस को पीते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    हे सभाध्यक्ष तथा सेनाध्यक्ष ! विद्यारहित प्रदेशों में विद्याप्रचार का सुप्रबन्ध उन देशों में वास करनेवाले विद्वानों द्वारा करावें और हिंसारहित यज्ञों में सहायक होकर उनको पूर्ण करें ॥४॥

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    विषय

    फिर भी राजकर्तव्य कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! (ययोः) जिन पुण्यकृत राजा और अमात्य के (अधि) ऊपर (यज्ञाः) सब ही शुभकर्म (प्रभवन्ति) आश्रित हैं जिनके (सूरयः) विद्वान् जन (असूरे) सूर्य्योदय के पूर्व ही उठकर अपने कृत्य में लगते हैं, यद्वा जिनके (असूरे) सूर्य्यरहित उत्तरीय ध्रुवादि प्रदेश में भी (सूरयः) विद्वान् जन प्रजा हैं और जो (ता) वे ही (अध्वरस्य) हिंसा पापरहित (यज्ञस्य) शुभकर्म के (प्रचेतसा) अच्छे प्रकार ज्ञाता हैं, वे ही (स्वधाभिः) स्वरक्षिका प्रजाओं के साथ (सोम्यम्+मधु) सोमयुक्त मधु को (पिबतः) पीते हैं ॥४ ॥

    भावार्थ

    जो राजा कर्मचारियों के साथ शुभकर्मों की रक्षा करते, जिनकी प्रजाएँ प्रातःकाल ही उठकर अपने-२ कार्य्य में लग जाते, जो यज्ञतत्त्वों को जानते, वे ही राजा प्रजा के मध्य माननीय होते हैं ॥४ ॥

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    विषय

    जितेन्द्रिय स्त्रीपुरुषों के कर्त्तव्य । वेग से जाने वाले साधनों से सम्पन्न पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( ययोः अधि ) जिन दोनों स्त्री पुरुषों के ऊपर ( यज्ञा: ) यज्ञ, उत्तम कर्म और ( असूरे ) सूर्यरहित, अन्धकार युक्त काल या देश में भी ( ययोः अधि ) जिन के अधीन वा जिनपर नाना ( सूरयः ) विद्वान् आश्रय पाते वा अध्यक्ष हैं। ( या ) जो दोनों ( स्वधाभिः ) अन्नों सहित ( सोम्यं मधु पिबतः ) ओषधिरस युक्त मधुर जल मधु आदि मधुर पदार्थ का पान करते हैं ( ता ) वे दोनों ( प्र-चेतसा ) उत्तम विद्वान्, शुभ-चित्तवान् होकर ( अध्वरस्य यज्ञस्य ) हिंसा रहित वा अक्षय यज्ञ के ( स्वधाभिः ) अन्नादि से करने वाले हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथ: काण्व ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, ५ आर्ची स्वराड् बृहती। २ त्रिष्टुप्। ३ आर्ची भुरिगनुष्टुप्। ४ आर्चीभुरिक पंक्तिः। ६ आर्षी स्वराड् बृहती॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'यज्ञ स्तवन सोमरक्षण व आत्मधारण शक्ति'

    पदार्थ

    [१] वे प्राणापान (ययोः अधि) = जिन में (यज्ञाः) = यज्ञ (प्र सन्ति) = प्रकर्षेण निवास करते हैं जिनकी साधना के होने पर (असूरे) = स्तोतृरहित स्थान में भी (सूरयः) = स्तोता लोग (सन्ति) = हो जाते हैं। अर्थात् ये प्राणापान हमें यज्ञों में प्रवृत्त करते हैं और इनकी साधना के द्वारा हमारे में स्तुति की वृत्ति उत्पन्न होती है। [२] (ता) = वे प्राणापान (अध्वरस्य यज्ञस्य) = हिंसारहित यज्ञों के (प्रचेतसा) = प्रकर्षेण चेतानेवाले होते हैं। (यः) = जो प्राणापान (स्वधाभिः) = आत्मधारण शक्तियों के हेतु से (सोम्यं मधु) = सोम सम्बन्धी मधु का (पिबतः) = पान करते हैं। शरीर में सोम को सुरक्षित करके ये प्राणापान ही हमें आत्मधारण शक्ति प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना के होने पर जीवन में 'यज्ञ, प्रभु-स्तवन, सोमरक्षण व आत्मधारण शक्ति' का प्रादुर्भाव होता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The Ashvins’ yajnas are specially performed even in the lands of the agnostics where they shine boldly and brilliantly. They are specialists of the yajnic programmes of creation and production without violence and they come in response to invocations and yajnic offerings and drink the sweets of soma.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे सभाध्यक्षा व सेनाध्यक्षा, अविद्या असलेल्या प्रदेशात विद्याप्रचाराचा चांगला प्रबंध त्या देशात निवास करणाऱ्या विद्वानाद्वारे करवावा व हिंसारहित यज्ञात सहायक बनून तो पूर्ण करावा. ॥४॥

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