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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 37/ मन्त्र 2
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    से॒हा॒न उ॑ग्र॒ पृत॑ना अ॒भि द्रुह॑: शचीपत॒ इन्द्र॒ विश्वा॑भिरू॒तिभि॑: । माध्यं॑दिनस्य॒ सव॑नस्य वृत्रहन्ननेद्य॒ पिबा॒ सोम॑स्य वज्रिवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    से॒हा॒नः । उ॒ग्र॒ । पृत॑नाः । अ॒भि । द्रुहः॑ । श॒ची॒ऽप॒ते॒ । इन्द्र॑ । विश्वा॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । माध्य॑न्दिनस्य । सव॑नस्य । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । अ॒ने॒द्य॒ । पिब॑ । सोम॑स्य । व॒ज्रि॒ऽवः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सेहान उग्र पृतना अभि द्रुह: शचीपत इन्द्र विश्वाभिरूतिभि: । माध्यंदिनस्य सवनस्य वृत्रहन्ननेद्य पिबा सोमस्य वज्रिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सेहानः । उग्र । पृतनाः । अभि । द्रुहः । शचीऽपते । इन्द्र । विश्वाभिः । ऊतिऽभिः । माध्यन्दिनस्य । सवनस्य । वृत्रऽहन् । अनेद्य । पिब । सोमस्य । वज्रिऽवः ॥ ८.३७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 37; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of blazing might and glory of word and action, challenger of the forces of jealousy and enmity, wielder of the thunderbolt of justice and punishment, destroyer of the demon of darkness and evil, want and suffering, adorable beyond reproach, come with all your modes and means of protection and promotion and taste the soma of our mid-day height of yajnic action.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाला आपल्या विद्वत्तेद्वारे ब्राह्मबल टिकविले पाहिजे व आपल्या प्रभावाद्वारे द्वेष करणाऱ्या माणसांना पराभूत केले पाहिजे. ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (उग्र) उग्र (शचीपते) प्रजापति व कर्मनिष्ठ (इन्द्र) राजन्! आप (विश्वाभिः ऊतिभिः) अपनी सारी रक्षणादि क्रियाओं के द्वारा (अभिद्रुहः) द्रोह करने वाले (पृतनाः) लोगों को (सेहानः) परास्त करें। शेष पूर्ववत्॥२॥

    भावार्थ

    राजा के लिए जहाँ अपनी विद्वत्ता के द्वारा ब्राह्मबल बनाये रखना चाहिये, वहाँ उसे अपने प्रभाव के द्वारा द्वेषी जनों को पराजित भी करना चाहिये॥२॥

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    विषय

    एकराट् राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( शचीपते इन्द्र ) शक्तिशालिन् ! मतिमन् ! ऐश्वर्यशालिन् ! तू ( विश्वाभिः अतिभिः ) समस्त शक्तियों से ( द्रुहः पृतनाः ) द्रोह करने वाले मनुष्यों को ( अभि सेहानः ) पराजित करके अथवा ( द्रुहः अभि सेहान: ) द्रोहियों को पराजित और ( पृतनाः अभि सेहानः ) सामान्य मनुष्य प्रजाओं को अन्नादि से तृप्त करता हुआ, हे ( उग्र ) बलवन् ! हे ( अनेद्य ) अनिन्द्य ! प्रशंसनीय ! हे वज्रिवः शक्तिशालिन् ! हे ( वृत्रहन् ) दुष्ट, विघ्नकर्त्ताओं के नाशक ! तू ( माध्यन्दिनस्य सवनस्य सोमस्य पिब ) मध्य दिन के सूर्यवत् शासन और ऐश्वर्य का उपभोग और पालन कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडतिजगती। २-६ नि चृज्जगती। ७ विराड् जगती॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'द्रोग्ध्री सेनाओं के पराजेता' प्रभु

    पदार्थ

    हे उग्र उद्गूर्ण बलवाले, (शचीपते) = कर्मों व प्रज्ञानों के स्वामिन्! (इन्द्रः) = शत्रुविद्रावक प्रभो आप( विश्वाभिः ऊतिभिः) = सब रक्षणों के द्वारा (अभिद्रुहः) = हमारे शरीरों व मनों का करनेवाली (पृतनाः) = रोग व वासनारूप शत्रु सैन्यों का (सेहान:) = पराभव करनेवाले होइये । मन्त्रभाग मन्त्र संख्या एक पर द्रष्टव्य है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे रोग व वासनारूप शत्रुओं का पराभव करते हैं।

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