ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 37/ मन्त्र 6
क्ष॒त्राय॑ त्व॒मव॑सि॒ न त्व॑माविथ शचीपत॒ इन्द्र॒ विश्वा॑भिरू॒तिभि॑: । माध्यं॑दिनस्य॒ सव॑नस्य वृत्रहन्ननेद्य॒ पिबा॒ सोम॑स्य वज्रिवः ॥
स्वर सहित पद पाठक्ष॒त्राय॑ । त्व॒म् । अव॑सि । न । त्व॒म् । आ॒वि॒थ॒ । श॒ची॒ऽप॒ते॒ । इन्द्र॑ । विश्वा॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । माध्य॑न्दिनस्य । सव॑नस्य । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । अ॒ने॒द्य॒ । पिब॑ । सोम॑स्य । व॒ज्रि॒ऽवः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्षत्राय त्वमवसि न त्वमाविथ शचीपत इन्द्र विश्वाभिरूतिभि: । माध्यंदिनस्य सवनस्य वृत्रहन्ननेद्य पिबा सोमस्य वज्रिवः ॥
स्वर रहित पद पाठक्षत्राय । त्वम् । अवसि । न । त्वम् । आविथ । शचीऽपते । इन्द्र । विश्वाभिः । ऊतिऽभिः । माध्यन्दिनस्य । सवनस्य । वृत्रऽहन् । अनेद्य । पिब । सोमस्य । वज्रिऽवः ॥ ८.३७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 37; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of sacred word and irresistible action, with all your methods and policies of protection and progress you deploy your forces for the defence and advancement of the nation, not for your own personal security. O lord of awesome power and justice, destroyer of demonic violence and exploitation, come and taste the pleasure of our soma of peace and progress at the peak of our day’s achievement.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने आपल्या प्रजेचे क्षात्रबल वाढवावे व ते तसेच ठेवावे. अशा कर्मठ राजाला आपले रक्षण करण्याची चिंता करावी लागत नाही. ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (शचीपते) कर्मठ इन्द्र--राजा! अपनी (विश्वाभिः ऊतिभिः) सम्पूर्ण रक्षा क्रियाओं द्वारा (त्वम्) आप (क्षत्राय) क्षात्रबल को प्राप्त कराने हेतु (अवसि) अपनी प्रजा के संरक्षक हैं। (त्वम्) आपको (न आविथ) अपनी रक्षा कराने की आवश्यकता नहीं। शेष पूर्ववत्॥६॥
भावार्थ
राजा के लिए आवश्यक है कि अपनी प्रजा के क्षात्रबल को बढ़ाये और उसे बनाये रखे; ऐसे कर्मठ राजा को अपनी रक्षा की चिन्ता नहीं रहती॥६॥
विषय
एकराट् राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( शचीपते ) तू ( विश्वाभिः ऊतिभिः ) अपनी समस्त रक्षक शक्तियों से धनैश्वर्य और बल की वृद्धि के लिये ही ( अवसि ) रक्षा करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडतिजगती। २-६ नि चृज्जगती। ७ विराड् जगती॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
'निराधार, पर सर्वाधार' प्रभु
पदार्थ
हे (शचीपते) = सब प्रज्ञानों व कर्मों के स्वामिन्! (इन्द्र) = सर्वशत्रुविद्रावक प्रभो ! (त्वम्) = आप (विश्वाभिः ऊतिभिः) = सब रक्षणों के द्वारा आप (क्षत्राय) = बल की प्राप्ति के लिए (अवसि) = हमारा रक्षण करते हैं। (त्वं न आविथ) = आप किसी दूसरे से रक्षित नहीं किये जाते । अवशिष्ट मन्त्र भाग मन्त्र संख्या एक पर देखिए ।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु सबके रक्षक हैं। प्रभु का कोई अन्य रक्षक नहीं। निराधार प्रभु ही सर्वाधार हैं।
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