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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 37/ मन्त्र 5
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    क्षेम॑स्य च प्र॒युज॑श्च॒ त्वमी॑शिषे शचीपत॒ इन्द्र॒ विश्वा॑भिरू॒तिभि॑: । माध्यं॑दिनस्य॒ सव॑नस्य वृत्रहन्ननेद्य॒ पिबा॒ सोम॑स्य वज्रिवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्षेम॑स्य । च॒ । प्र॒ऽयुजः॑ । च॒ । त्वम् । ई॒शि॒षे॒ । श॒ची॒ऽप॒ते॒ । इन्द्र॑ । विश्वा॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । माध्य॑न्दिनस्य । सव॑नस्य । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । अ॒ने॒द्य॒ । पिब॑ । सोम॑स्य । व॒ज्रि॒ऽवः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्षेमस्य च प्रयुजश्च त्वमीशिषे शचीपत इन्द्र विश्वाभिरूतिभि: । माध्यंदिनस्य सवनस्य वृत्रहन्ननेद्य पिबा सोमस्य वज्रिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्षेमस्य । च । प्रऽयुजः । च । त्वम् । ईशिषे । शचीऽपते । इन्द्र । विश्वाभिः । ऊतिऽभिः । माध्यन्दिनस्य । सवनस्य । वृत्रऽहन् । अनेद्य । पिब । सोमस्य । वज्रिऽवः ॥ ८.३७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 37; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, mighty ruler presiding over the nation, master of divine eloquence and decisive action, with all your safeguards, precautions and tactical actions you govern and promote our consolidated assets, investments and acquisitions safely and positively. O lord of thunderous power, implacable law and inevitable justice, O destroyer of evil, suffering and poverty, adorable beyond question and criticism, come and taste the pleasure and progress of our yajnic programme at the peak of the day’s success.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कर्मठ राजा आपल्या अध्यक्षतेखाली प्रजेच्या योगक्षेमाचा निष्पादक असतो तो अयोग्य रीतीने प्रजेला ऐश्वर्य साधन देत नाही किंवा अयोग्य रूपाने त्याला संरक्षण देत नाही. ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (शचीपते) कर्मठ शासक! आप अपनी (विश्वाभिः) समग्र (ऊतिभिः) रक्षणादि क्रियाओं से (क्षेमस्य) प्राप्त ऐश्वर्य को अक्षय रखने के (च) और उसकी (प्रयुजः) प्राप्ति कराने के (ईशिषे) प्रमुख हैं। शेष पूर्ववत्॥५॥

    भावार्थ

    कर्मठ राजा अपने नेतृत्व में ही प्रजा के योग-क्षेम को सम्पन्न करता है। वह अनुचित रीति से न प्रजा को ऐश्वर्यसाधन करने देता है और न अनुचित रूप से उसे संरक्षण प्रदान करता है॥५॥

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    विषय

    एकराट् राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( शचीपते ) शक्तिशालिन् ! ( त्वम् ) तू ( क्षेमस्य च ईशिषे ) क्षेम अर्थात् प्रजाओं के रक्षा करने में समर्थ है और ( प्रयुजः च ईशिषे ) उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त कराने और उनको प्राप्त हुए नाना ऐश्वर्यों का भी स्वामी है। शेष पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडतिजगती। २-६ नि चृज्जगती। ७ विराड् जगती॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'योगक्षेम के ईश' प्रभु

    पदार्थ

    हे (शचीपते) = सब प्रज्ञानों व कर्मों के स्वामिन्! (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! ये आप (विश्वाभिः ऊतिभिः) = सब रक्षणों के द्वारा (क्षेमस्य च) = क्षेम के प्राप्त वस्तुओं के रक्षण के (च) = तथा (प्रयुजः) = प्रयोग के अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के (ईशिषे) = ईश हैं। आप ही सबके योगक्षेम को सिद्ध करते हैं। अवशिष्ट मन्त्र भाग मन्त्र संख्या एक पर देखिए ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सम्पूर्ण योगक्षेम के ईश प्रभु ही हैं। मनुष्य को यह सोचकर निःशंक भाव से कर्तव्य कर्मों में लगे रहना चाहिए।

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