ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 65/ मन्त्र 10
दा॒ता मे॒ पृष॑तीनां॒ राजा॑ हिरण्य॒वीना॑म् । मा दे॑वा म॒घवा॑ रिषत् ॥
स्वर सहित पद पाठदा॒ता । मे॒ । पृष॑तीनाम् । राजा॑ । हि॒र॒ण्य॒ऽवीना॑म् । मा । दे॒वाः॒ । म॒घऽवा॑ । रि॒ष॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
दाता मे पृषतीनां राजा हिरण्यवीनाम् । मा देवा मघवा रिषत् ॥
स्वर रहित पद पाठदाता । मे । पृषतीनाम् । राजा । हिरण्यऽवीनाम् । मा । देवाः । मघऽवा । रिषत् ॥ ८.६५.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 65; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 47; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 47; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra is the giver of golden gifts of lands and cows and he is the ruler and controller of the golden gifts of divinity. O divinities of heaven and earth, may Indra never be neglected, and may Indra never neglect and hurt us.
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांची प्रिय वस्तू गौ आहे, कारण थोड्याशा परिश्रमाने ती खूप उपकार करते. स्वच्छन्दपणे वनात चरून पुष्कळ दूध देते पशूप्राप्तीसाठी ही प्रार्थना केली जाते व जे लोक धन जन ज्ञान इत्यादीनी हीन आहेत, ते समजतात की, आमच्यावर त्याची कृपा नाही त्यासाठी ‘मघवा (परमात्मा) रूष्ट होता कामा नये’ ही प्रार्थना आहे. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
इन्द्रः खलु । मे=मम । दाता भवतु । यतः सः । पृषतीनां=नानावर्णानां गवां राजास्ति । कीदृशीनाम्− हिरण्यवीनाम्=हिरण्यवद्धितकारिणीनाम् । हे देव ! मघवेन्द्रः । अस्माकमुपरि । मा रिषत्=रुष्टो मा भूत् ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
इन्द्रनामी परमात्मा (मे+दाता) मेरा दाता है या वह मेरा दाता होवे, क्योंकि वह (हिरण्यवीनाम्) सुवर्णवत् हितकारिणी (वृषतीनाम्) नाना वर्णों की गायों अन्यान्य पशुओं तथा धनों का (राजा) शासक स्वामी है । (देवाः) हे विद्वान् जनो ! जिससे (मघवा) वह परम धनसम्पन्न परमात्मा हम प्राणियों पर (मा+रिषत्) रुष्ट न होवे, ऐसी शिक्षा और अनुग्रह हम लोगों पर करो ॥१० ॥
भावार्थ
मनुष्यों की प्रिय वस्तु गौ है, क्योंकि थोड़े ही परिश्रम से वह बहुत उपकार करती है । स्वच्छन्दतया वन में चरकर बहुत दूध देती है । अतः इस पशु की प्राप्ति के लिये अधिक प्रार्थना आती है और जो जन धन-जन-ज्ञानादिकों से हीन हैं, वे समझते ही हैं कि हमारे ऊपर उसकी उतनी कृपा नहीं है, अतः “मघवा रुष्ट न हो” यह प्रार्थना है ॥१० ॥
विषय
सर्वव्यापक प्रभु की स्तुति और उपासना।
भावार्थ
हे ( देवाः ) विद्वान् जनो ! ( हिरण्य वीनां ) हित रमणीय कान्तियों से (राजा) प्रकाशमान प्रभु, (मे) मुझे ( पृषतीनां ) आनन्द की वर्षणकारी वाणियों का ( दाता ) देने वाला परम गुरु ( मघवा ) उत्तम ज्ञान का धनी ( मा रिषत् ) दण्डित, व्यथित न करे। ( २ ) राजा भी सुवर्ण युक्त रथ विमानादि का स्वामी, और उत्तम गौवों का दाता धनी मुझ प्रजाजन का नाश न करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रागाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९, ११, १२ निचृद् गायत्री। ३,४ गायत्री। ७, ८, १० विराड् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
पृषतीनां हिरण्यवीनाम्
पदार्थ
[१] (मघवा) = वह ऐश्वर्यशाली प्रभु (मे) = मेरे लिए (पृषतीनां दाता) = सब धनों को प्राप्त करानेवाली कर्मेन्द्रियों को [कर्मेन्द्रियरूप अश्वों के] दाता देनेवाले हैं। वे प्रभु (हिरण्यवीनां राजा) = हितरमणीय ज्ञान को प्राप्त करानेवाले ज्ञानेन्द्रिरूप गौओं के राजा-स्वामी हैं- हमारे लिए इनकी क्रियाओं को करनेवाले हैं। [२] देवाः = हे ज्ञानियो ! मघवा मा रिषत् प्रभु कभी हिंसित न हों। तुम कभी प्रभु का विस्मरण न करो । प्रभु ही तो तुम्हें उत्तम कर्मेन्द्रियों व उत्तम ज्ञानेन्द्रियों को प्राप्त कराएँगे।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे लिए उत्तम इन्द्रियों को देते हैं। हम प्रभु को कभी भूलें नहीं।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal