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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 86/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कृष्णो विश्वको वा कार्ष्णिः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    उ॒त त्यं वी॒रं ध॑न॒सामृ॑जी॒षिणं॑ दू॒रे चि॒त्सन्त॒मव॑से हवामहे । यस्य॒ स्वादि॑ष्ठा सुम॒तिः पि॒तुर्य॑था॒ मा नो॒ वि यौ॑ष्टं स॒ख्या मु॒मोच॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । त्यम् । वी॒रम् । ध॒न॒ऽसाम् । ऋ॒जी॒षिण॑म् । दू॒रे । चि॒त् । सन्त॑म् । अव॑से । ह॒वा॒म॒हे॒ । यस्य॑ । स्वादि॑ष्ठा । सु॒ऽम॒तिः । पि॒तुः । य॒था॒ । मा । नः॒ । वि । यौ॒ष्ट॒म् । स॒ख्या । मु॒मोच॑तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत त्यं वीरं धनसामृजीषिणं दूरे चित्सन्तमवसे हवामहे । यस्य स्वादिष्ठा सुमतिः पितुर्यथा मा नो वि यौष्टं सख्या मुमोचतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । त्यम् । वीरम् । धनऽसाम् । ऋजीषिणम् । दूरे । चित् । सन्तम् । अवसे । हवामहे । यस्य । स्वादिष्ठा । सुऽमतिः । पितुः । यथा । मा । नः । वि । यौष्टम् । सख्या । मुमोचतम् ॥ ८.८६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 86; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We call for that mighty energy of prana which is the source of wealth, simple and natural cleanser and strengthener of body and mind, which though it may be far off, still whose sweetest gift of nourishment of intelligence is like the gift of nature, father, and omniscient God. Ashvins, pray bring us that energy, forsake us not, deprive us not of your friendship, save us with that friendship.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमपिता परमात्म्याद्वारे दिलेले आमचे दहा प्राण जर आमच्या जवळ राहतील तर ते आमच्या नियंत्रणात राहतील. त्यांच्याकडून प्राप्त झालेल्या चांगल्या चांगल्या प्रेरणा आम्हाला कधी वाईट मार्गावर जाऊ देत नाहीत. ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उत) और (त्यम्) उस विख्यात (धनसाम्) मूल्यवान् पदार्थों के प्रदाता, (ऋजीषिणम्) शोधक (वीरम्) पुत्रभूत प्राण को (दूरे चित् सन्तम्) दूर पर ही विद्यमान को (अवसे) अपनी देख-रेख व सहायता के लिए (हवामहे) बुलाएं। (यस्य) जिसकी (सुमतिः) शुभ मन्त्रणा (स्वादिष्ठा) अतिप्रिय है, (यथा) वैसी ही जैसी कि (पितुः) परमपिता की सुप्रेरणा (तां वाम्) उन तुम दोनों की, (विश्वकः) सब पर कृपा करनेवाला विद्वान् भिषक् (तनू कृथे) देह की रक्षा हेतु, (हवते) वन्दना करता है--तुम्हारे गुणों का वर्णन करता हुआ उनका अध्ययन करता है। (नः मा वियौष्टम्) तुम दोनों हमसे अलग न होवो; (सख्या) अपनी मित्रता से हमें (मा मुमोचतम्) मुक्त न करो॥४॥

    भावार्थ

    प्रभुरचित हमारे दसों प्राण यदि हमारे पास रहें, हमारी पहुँच में रहें तो उनसे प्राप्त प्रिय प्रेरणाएं हमें कदापि कुपथ पर न जाने देंगी॥४॥

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    विषय

    उत्तम स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( उत ) और ( त्यं वीरं ) उस वीर, बलवान् और विद्यावान् ( धनसा ) धन के दानी और धन के प्राप्त करने में कुशल, ( ऋजीषिणं ) धर्ममार्ग में सञ्चालक और शत्रुनाशक सैन्य के चालक ऐसे ( दूरे चित् सन्तं ) दूर देश में रहते हुए पुरुष को भी हम ( अवसे ) रक्षा और ज्ञान लाभ के लिये ( हवामहे ) बुलावें। ( यस्य ) जिस की ( स्वादिष्ठा सुमतिः ) अति सुखदायिनी शुभ प्रज्ञा ( यथा पितुः ) पिता के समान हित में प्रवृत्त कराती हो, हे विद्वान् पुरुषो ! ( नः मा वियौष्टं ) हमें अपने से पृथक् न करो ( सख्या मा मुमोचतम्) अपने मित्रभाव से हमें परित्याग न करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कृष्णो विश्वको वा कार्ष्णिऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, ३ विराड् जगती। २, ४, ५ निचृज्जगती॥

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    विषय

    'स्वादिष्ठा' सुमतिः

    पदार्थ

    [१] हे प्राणापानो! हम (उत) = निश्चय से (त्यम्) = उस (वीरम्) = [वि ईर] शत्रुओं को कम्पित करनेवाले (धनसाम्) = धनों को प्राप्त करानेवाले (ऋजीषिणम्) = ऋजुमार्ग की प्रेरणा देनेवाले, (दूरे चित् सन्तम्) = दूर से दूर प्रदेश में भी वर्तमान उस प्रभु को अवसे हवामहे रक्षण के लिये पुकारते हैं। [२] उस प्रभु को हम पुकारते हैं, (यस्य) = जिसकी (यथा पितुः) = जैसे एक पिता की, अर्थात् पिता की ओर से पुत्र के लिये दी गई (सुमतिः) = कल्याणी मति (स्वादिष्ठा) = जीवन को अत्यन्त मधुर बनानेवाली है। हे प्राणापानो! आप (नः) = हमें (मा वि यौष्टम्) = हमारे से पृथक् न होओ। (सख्या) = अपनी मैत्रियों को मत नष्ट करो। (मुमोचतम्) = आप हमें सब रोगों व वासनारूप शत्रुओं से छुड़ाओ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभुस्मरण पूर्वक प्राणसाधना में प्रवृत्त हों। हमें वह सुमति प्राप्त हो जो जीवन को मधुरतम बनाती है।

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