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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 86/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कृष्णो विश्वको वा कार्ष्णिः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    ऋ॒तेन॑ दे॒वः स॑वि॒ता श॑मायत ऋ॒तस्य॒ शृङ्ग॑मुर्वि॒या वि प॑प्रथे । ऋ॒तं सा॑साह॒ महि॑ चित्पृतन्य॒तो मा नो॒ वि यौ॑ष्टं स॒ख्या मु॒मोच॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तेन॑ । दे॒वः । स॒वि॒ता । श॒म्ऽआ॒य॒ते॒ । ऋ॒तस्य॑ । शृङ्ग॑म् । उ॒र्वि॒या । वि । प॒प्र॒थे॒ । ऋ॒तम् । स॒सा॒ह॒ । महि॑ । चि॒त् । पृ॒त॒न्य॒तः । मा । नः॒ । वि । यौ॒ष्ट॒म् । स॒ख्या । मु॒मोच॑तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतेन देवः सविता शमायत ऋतस्य शृङ्गमुर्विया वि पप्रथे । ऋतं सासाह महि चित्पृतन्यतो मा नो वि यौष्टं सख्या मुमोचतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतेन । देवः । सविता । शम्ऽआयते । ऋतस्य । शृङ्गम् । उर्विया । वि । पप्रथे । ऋतम् । ससाह । महि । चित् । पृतन्यतः । मा । नः । वि । यौष्टम् । सख्या । मुमोचतम् ॥ ८.८६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 86; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Self-refulgent Savita, creator and energiser, blesses with peace, truth and the laws of life, and he expands the law of life with the expansive universe. Truth and the law of truth overcomes the challenges of even the mightiest opponents. Ashvins, complementary powers of Savita, forsake us not, deprive us not of your friendship, give us freedom by that friendship.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्राण अपान इत्यादी क्रिया परमप्रभूच्या सत्य नियमात बंधित आहेत. हे जाणून उपासकाने त्या सत्य नियमांचे ज्ञान प्राप्त करून सर्व क्रियांच्या आधारभूत प्राणशक्तीवर आपले नियंत्रण ठेवावे. ॥५॥

    टिप्पणी

    या सूक्तात इंद्रियांना बलवान बनविणाऱ्या प्राण अपान इत्यादी प्राणाच्या शक्तीवर नियंत्रण स्थापित करण्याचा संकेत आहे. प्राणशक्तीद्वारेच शरीर स्वस्थ राहू शकते. ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवः सविता) ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित, तेजस्वी (सविता) सब के प्रेरक प्रभु (ऋतेन) अपने यथार्थ नियमों से (शमायते) सबका कल्याण करता है; वही (ऋतस्य) यथार्थज्ञान के (शृङ्गम्) शिर के ऊपर के भाग शृङ्ग के जैसा मुख्य, आश्रयभूत अंश को (उर्विया) बहुत (वि पप्रथे) विविध रूप में फैलाता है। परम प्रभु का (ऋतम्) यथार्थ सच्चा नियम ही (महि चित्) बड़े-बड़े भी (पृतन्यतः) समूह बनाकर क्षति पहुँचाने वालों को (सासाह) परास्त कर देता है। (तां वाम्) उन तुम दोनों की, (विश्वकः) सब पर कृपा करनेवाला विद्वान् भिषक् (तनू कृथे) देह की रक्षा हेतु, (हवते) वन्दना करता है--तुम्हारे गुणों का वर्णन करता हुआ उसका अध्ययन करता है। (नः मा वियौष्टम्) तुम दोनों हमसे अगल न होवो; (सख्या) अपनी मित्रता से हमें मा, (मुमोचतम्) मुक्त न करो॥५॥

    भावार्थ

    प्राण व अपान आदि क्रिया प्रभु के सत्य नियम में बँधी काम करती है। यह जानकर उपासक उन सच्चे नियमों की जानकारी पाकर सारी क्रियाओं की आधारभूत प्राणशक्ति पर अपना नियंत्रण स्थापित करे॥५॥ विशेष--इस सूक्त में इन्द्रियों को शक्तिशाली बनाए रखने वाली प्राण-अपान आदि प्राणों की शक्ति पर नियन्त्रण स्थापित करने का संकेत है। प्राणशक्ति से ही शरीर स्वस्थ रह पाता है॥ अष्टम मण्डल में छियासीवाँ सूक्त व नौवाँ वर्ग समाप्त।

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    विषय

    उत्तम स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( देवः सविता ) प्रकाशमान सूर्य के समान तेजस्वी, ( सविता ) सब का प्रेरक, सब का उत्पादक प्रभु ( ऋतेन ) सत्य ज्ञानमय वेद से ( शम् आयते ) सब को शान्ति सुख प्रदान करता है। और वह ( ऋतस्य शृङ्गम् ) तेज के अन्धकारनाशक प्रकाश के समान असत्य, अविद्या के नाशक सत्य के प्रकाश को ( उर्विया पप्रथे ) बहुत अधिक फैलाता है। ( ऋतं ) सत्य ही ( महि चित् पृतन्यतः ) बड़े २ वा शत्रुओं को भी ( सासाह ) पराजित करता है। ( नः मा सख्या वि यौष्टं ) हमें मित्रता से वियुक्त न करो और ( मा वि मुमोचतम्) हमें भी परित्याग मत करो। इति नवमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कृष्णो विश्वको वा कार्ष्णिऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, ३ विराड् जगती। २, ४, ५ निचृज्जगती॥

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    विषय

    ऋत

    पदार्थ

    [१] (सविता देवः) = वह प्रेरक प्रकाशमय प्रभु (ऋतेन) = ऋत के द्वारा (शमायते) = हमारे जीवनों को बड़ा शान्त बनाता है । (ऋतस्य श्रृंगम्) = ऋत का (श्रृंग) = शत्रुनाशक बल (उर्विया वि पप्रथे) = खूब ही विस्तृत होता है। सत्य हमें जहाँ शान्ति प्राप्त कराता है, वहाँ हमारे काम-क्रोध आदि शत्रुओं को भी विनष्ट करता है। [२] (ऋजम्) = यह ऋत (महि चित् पृतन्यतः) = महान् भी शत्रुओं को (सासाह) = पराभूत करता है। प्राणापान ही इस ऋत के प्राप्त करानेवाले हैं-प्राणसाधना द्वारा जीवन अनृत से रहित होकर ऋतवाला बनता है। सो, प्राणापानो! (नः) = हमें (मा वि यौष्टम्) = छोड़ मत जाओ । (सख्या) = अपनी मित्रताओं को हमें प्राप्त कराओ। (मुमोचतम्) = हमें सब शत्रुओं से मुक्त करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- ऋत हमारे जीवन को शान्त करता है ऋत हमारे सब शत्रुओं को नष्ट करता है। प्राणसाधना द्वारा हम जीवन को ऋतमय बनाएँ । अगले सूक्त का ऋषि भी 'कृष्ण आंगिरस' है। अथवा 'प्रियमेध आंगिरस' भी कहा गया है- प्रियमेधावाला-शक्तिवाली अंगोंवाला। यह 'अश्विनौ' का स्तवन करता हुआ कहता है-

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