ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 87/ मन्त्र 3
ऋषिः - कृष्णो द्युम्नीको वा वासिष्ठः प्रियमेधो वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
आ वां॒ विश्वा॑भिरू॒तिभि॑: प्रि॒यमे॑धा अहूषत । ता व॒र्तिर्या॑त॒मुप॑ वृ॒क्तब॑र्हिषो॒ जुष्टं॑ य॒ज्ञं दिवि॑ष्टिषु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । विश्वा॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । प्रि॒यऽमे॑धाः । अ॒हू॒ष॒त॒ । ता । व॒र्तिः । या॒त॒म् । उप॑ । वृ॒क्तऽब॑र्हिषः । जुष्ट॑म् । य॒ज्ञम् । दिवि॑ष्टिषु ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वां विश्वाभिरूतिभि: प्रियमेधा अहूषत । ता वर्तिर्यातमुप वृक्तबर्हिषो जुष्टं यज्ञं दिविष्टिषु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । वाम् । विश्वाभिः । ऊतिऽभिः । प्रियऽमेधाः । अहूषत । ता । वर्तिः । यातम् । उप । वृक्तऽबर्हिषः । जुष्टम् । यज्ञम् । दिविष्टिषु ॥ ८.८७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 87; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Ashvins, the holy performers who are dedicated to yajna invoke and call you both with all your succour and promotions, so that you go to the place and paths of those yajakas who are ready with the grass spread on the vedi and there join the yajna for the realisation of their higher aims of life.
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व गृहस्थ स्त्री-पुरुषांची विवेकबुद्धी जागविण्यासाठी इच्छुक असलेला परम प्रभू त्यांना सांगतो, की आपल्या जीवनात यज्ञीय भावना धारण करून ऋत्विक् बना व दिव्य कामनाच्या पूर्तीसाठी सदैव दान-आदान पूर्वक सत्कयर्म करत राहा.॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(विश्वाभिः ऊतिभिः) सभी एवं सभी प्रकार की रक्षा व सहायता सामग्री सहित विद्यमान (प्रियमेधाः) सर्वत्र बुद्धि चाहनेवाले प्रभु (वाम्) तुम दोनों को (आ, अहूषत) बुलाते हैं तथा कहते हैं (ता) वे तुम दोनों (वृक्तबर्हिषः) ऋत्विक् के (वर्तिः) पथ पर (उप यातम्) चलो एवं (दिविष्टिषु) दिव्य कामनाओं की पूर्ति हेतु (यज्ञम्) दानादानक्रियायुक्त सत्कर्म (जुष्टम्) करो॥३॥
भावार्थ
सभी गृहस्थ नर-नारियों की विवेक बुद्धि को जगाने का इच्छुक प्रभु उन्हें मानो बुलाकर कहता हो कि जीवन में यज्ञीय भावना को धार कर ऋत्विक् बनो और अपनी दिव्य कामनाओं की पूर्ति के लिए सदैव दान-आदान पूर्वक सत्कर्म में रत रहो॥३॥
विषय
राजा और शासकों अश्वादि सैन्य एवं सेनापति, उन के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे उत्तम नायको ! उत्तम जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! ( प्रियमेधाः ) अन्न, सत्संग, यज्ञ, युद्ध आदि के प्रिय जन ( विश्वाभिः ऊतिभिः ) सब प्रकार की प्रीतियों तथा रक्षा-साधनों सहित ( वां आ अहूषत ) तुम दोनों को प्रेम से आह्वान करते हैं। ( ता ) वे दोनों आप, ( वृक्तबर्हिषः ) कुशाओं के समान अन्य संशयों, और शत्रु जन वा मानसिक दुर्विचार काम, क्रोधादि रिपुओं को उच्छेद करने वाले के ( वर्त्तिः ) गृह ( उप-यातम् ) उपस्थित होवो, और ( दिविष्टिषु ) प्रति प्रातःकाल के अवसरों में वा ( दिवः ) उत्तम कामनाओं की पूर्ति के लिये ( यज्ञं ) देवपूजन और यज्ञ सत्संगादि को ( उप जुष्टं ) नित्य सेवन करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कृष्णो द्युम्नी द्युम्नीको वा वासिष्ठ आंगिरसः प्रियमेधो वा ऋषिः॥ अश्विनी देवते॥ छन्दः—१, ३ बृहती। ५ निचृद् बृहती। २, ४, ६ निचृत् पंक्तिः॥ षडृचं सूक्तम्॥
विषय
'प्रियमेध वृक्तबर्हिष्'
पदार्थ
[१] हे प्राणापानो! (प्रियमेधा:) = [मेध यज्ञ ] यज्ञप्रिय लोग (विश्वाभिः अतिभिः) = सब रक्षणों के हेतु से (वाम्) = आपको (आ अहूषत) = सब ओर से पुकारते हैं। आपकी साधना में ही प्रवृत्त होते हैं। (वा) = वे आप दोनों (वृक्तबर्हिषः) = वासनारूप घास-फूस को छिन्न करनेवाले पुरुष के (बर्हिः) = शरीररूप गृह में (उपयातम्) = समीपता से प्राप्त होओ। वस्तुतः आपकी साधना ही इसे 'वृक्तबर्हिष्' बनाती है। [२] आप ही इस 'प्रियमेध वृक्तबर्हिष्' को यज्ञप्रिय व वासनाओं का छिन्न करनेवाला बनाते हो। (दिविष्टिषु) = [दिव् इष्टि] दिनों के आने पर, अर्थात् प्रातःकाल के होने पर आप ही इस 'प्रियमेध' के जीवन में (यज्ञं जुष्टम्) = यज्ञ का प्रीतिपूर्वक सेवन करो। आपकी साधना से यह सदा यज्ञ की वृत्तिवाला बना रहे।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से हमारा जीवन यज्ञमय बनता है। इस साधना से ही हम हृदयक्षेत्र से वासना के घास-फूस को उखाड़ फेंकते हैं।
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