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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 88/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नोधा देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    न त्वा॑ बृ॒हन्तो॒ अद्र॑यो॒ वर॑न्त इन्द्र वी॒ळव॑: । यद्दित्स॑सि स्तुव॒ते माव॑ते॒ वसु॒ नकि॒ष्टदा मि॑नाति ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । त्वा॒ । बृ॒हन्तः॑ । अद्र॑यः । वर॑न्ते । इ॒न्द्र॒ । वी॒ळवः॑ । यत् । दित्स॑सि । स्तु॒व॒ते । माऽव॑ते । वसु॑ । नकिः॑ । तत् । आ । मि॒ना॒ति॒ । ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न त्वा बृहन्तो अद्रयो वरन्त इन्द्र वीळव: । यद्दित्ससि स्तुवते मावते वसु नकिष्टदा मिनाति ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । त्वा । बृहन्तः । अद्रयः । वरन्ते । इन्द्र । वीळवः । यत् । दित्ससि । स्तुवते । माऽवते । वसु । नकिः । तत् । आ । मिनाति । ते ॥ ८.८८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 88; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Not the mighty fixed mountains can restrain you, Indra, generous lord, when you come to give wealth to a celebrant like me. No one can stop and frustrate your will.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परम ऐश्वर्यवान दाता असणाऱ्या परमेश्वराला देण्यापासून कोणी रोखू शकत नाही. जो ज्याला जे काही देऊ इच्छितो ते दान कोणी नष्ट करू शकत नाही. ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्य प्रदाता, भगवन्! (त्वा) तेरे [मार्ग] को (बृहन्तः) बड़े-बड़े (वीड्वः) सुदृढ़ (अद्रयः) पर्वत भी (न) नहीं (वरन्ते) रोकते हैं; (मावते) मेरे सरीखे (स्तुवते) गुणकीर्तन कर्ता को (यत् वसु) जो वासक ऐश्वर्य, ज्ञान-धनादि तू (वित्ससि) देना चाहता है (ते न किः तत्) उस तेरे दान को कोई भी नहीं (मिनाति) नष्ट कर पाता है।॥३॥

    भावार्थ

    महान् ऐश्वर्यदाता प्रभु को देने से कोई नहीं रोक सकता। वह जिसे जो देना चाहता है, उस दान को कोई भी नष्ट नहीं कर सकता॥३॥

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( बृहन्तः ) बड़े २ ( वीडवः ) बलशाली, ( अद्रयः ) मेघों वा पर्वतों के समान बाधक जन भी ( त्वा न वरन्ते ) तुझे निवारण नहीं करते। ( यत् ) जो तू ( मावते स्तुवते ) मुझ सदृश स्तुति करने वालों को ( वसु दित्ससि ) धन देना चाहता है ( ते तत् न कि: आमिनाति ) तेरे उस संकल्प का कोई भी नाश नहीं कर सकता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता। छन्दः—१, ३ बृहती। ५ निचृद बृहती। २, ४ पंकिः। ६ विराट् पंक्ति:॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रभु की [अजेय्य] शक्ति

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वा) = आपको (बृहन्तः) = बड़े विशाल (वीडवः) = दृढ़ भी (अद्रयः) = पर्वत (न वरन्त) = रोक नहीं सकते। महान् से महान् भी पर्वत आपके मार्ग में विघ्नरूप नहीं हो सकते। [२] (यत्) = जब आप (स्तुवते) = स्तुति करनेवाले (मा-वते) = [मा-मापना- ज्ञान प्राप्त करना] ज्ञान को प्राप्त करनेवाले के लिये वसु (दित्ससि) = धन को देने की कामनावाले होते हैं, तो ते आपके (तत्) = उस धन को (नकिः आमिनाति) = कोई भी हिंसित नहीं कर पाता।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के मार्ग में कोई विघ्न नहीं कर पाता। प्रभु स्तोता ज्ञानी के लिये जो धन देना चाहते हैं, उसे कोई हिंसित नहीं कर पाता ।

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