ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 90/ मन्त्र 4
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वं हि स॒त्यो म॑घव॒न्नना॑नतो वृ॒त्रा भूरि॑ न्यृ॒ञ्जसे॑ । स त्वं श॑विष्ठ वज्रहस्त दा॒शुषे॒ऽर्वाञ्चं॑ र॒यिमा कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । हि । स॒त्यः । म॒घ॒ऽव॒न् । अना॑नतः । वृ॒त्रा । भूरि॑ । नि॒ऽऋ॒ञ्जसे॑ । सः । त्वम् । श॒वि॒ष्ठ॒ । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । दा॒शुषे॑ । अ॒र्वाञ्च॑म् । र॒यिम् । आ । कृ॒धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं हि सत्यो मघवन्ननानतो वृत्रा भूरि न्यृञ्जसे । स त्वं शविष्ठ वज्रहस्त दाशुषेऽर्वाञ्चं रयिमा कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । हि । सत्यः । मघऽवन् । अनानतः । वृत्रा । भूरि । निऽऋञ्जसे । सः । त्वम् । शविष्ठ । वज्रऽहस्त । दाशुषे । अर्वाञ्चम् । रयिम् । आ । कृधि ॥ ८.९०.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 90; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of wealth and glory, you are eternal, never subdued, and many a form of darkness and evil you rectify or destroy. O lord most potent, armed with thunder in hand, bear and bring the wealth of life for the generous yajaka who offers libations liberally into the yajna vedi and gives help to the needy.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्ञान, बल, धन यांच्या समृद्धीच्या प्राप्तीसाठी अनेक अडथळे येतात- उपासक त्यांना ईश्वराच्या साह्यानेच दूर करू शकतो. कसे? जेव्हा तो परमेश्वराच्या गुणांचे कीर्तन करत त्यांना अंत:करणात धारण करण्याचा प्रयत्न करत परमेश्वराला समर्पित होईल तेव्हा ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (मघवन्) प्रशंसनीय, प्रभो! (हि) निश्चय ही (त्वम्) आप (सत्यः) सचमुच (अनानतः) अपरिजेय रहे हैं; इसीलिये (भूरि) अत्यधिक भी (वृत्रा) विघ्नों=रुकावटों को (नि, अञ्जसे) सम्यक्तया भून देते हैं (स त्वम्) वह आप, हे (शविष्ठ) अतिशय बलवान! (वज्रहस्त) दुष्ट भावनाओं को निषेध करने की शक्तिवाले! (दाशुषे) आत्मार्पित करने वाले उपासक हेतु (रयिम्) ऐश्वर्य को (अर्वाञ्चम्) उसके समक्ष (कृधि) कीजिये॥४॥
भावार्थ
ज्ञान, बल, धन इत्यादि समृद्धि की प्राप्ति में अनेक बाधाएं आती हैं, उपासक इन्हें भगवान् की सहायता से ही दूर कर सकता है। कैसे? जब कि वह भगवान् के गुणों का कीर्तन करता हुआ और उन्हें स्व अन्तःकरण में धारण करने का प्रयत्न करता हुआ परमात्मा के प्रति समर्पित हो जाय॥४॥
विषय
पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( अनानतः ) किसी से भी नहीं झुकता, (त्वं हि सत्यः) तू ही सत्य स्वरूप है। तू (भूरि-वृत्रा) बहुत से विघ्नों और विघ्नकारी दुष्ट पुरुषों को ( नि-ऋञ्जसे ) अपने वश करने में समर्थ है। हे ( शविष्ठ ) अति बलशालिन् ! हे ( वज्र-हस्त ) हाथ में बल, वीर्य और खड्ग धारण करने हारे ! ( त्वं ) तू ( दाशुषे ) दानशील को ( रयिम् अर्वाञ्चं कृधि ) ऐश्वर्य प्राप्त करा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नृमेधपुरुमेधावृषी॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ निचृद् बृहती। ३ विराड् बृहती। ५ पादनिचृद् बृहती। २, ४ पादनिचृत् पंक्तिः। ६ निचृत् पंक्तिः॥ षडृचं सूकम्॥
विषय
'सत्यः अनानतः ' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वं हि सत्यः) = आप ही सत्यस्वरूप हैं। (अनानतः) = किसी से भी पराभूत नहीं किये जाते। आप (वृत्रा) = वासनाओं को (भूरि) = खूब ही (न्यृञ्जसे) = [न्यङ्करोषि ] पराभूत करते हैं। [२] हे (शविष्ठ) = सर्वाधिक शक्तिसम्पन्न (वज्रहस्त) = हाथ में वज्र लिये हुए प्रभो ! (सः त्वम्) = वे आप (दाशुषे) = दाश्वान् के लिये- दानशील पुरुष के लिये (रयिं अर्वाञ्चं आकृधि) = धन को सर्वतः अभिमुख करिये। आप दानशील पुरुष को धन प्राप्त कराते ही हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही सत्यस्वरूप व किसी भी शत्रु से पराभूत न होनेवाले हैं। प्रभु हमारे लिये वासनाओं का विनाश करके ऐश्वर्य को प्राप्त कराते हैं।
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