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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 99 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 99/ मन्त्र 5
    ऋषिः - नृमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - पाद्निचृद्बृहती स्वरः - गान्धारः

    त्वमि॑न्द्र॒ प्रतू॑र्तिष्व॒भि विश्वा॑ असि॒ स्पृध॑: । अ॒श॒स्ति॒हा ज॑नि॒ता वि॑श्व॒तूर॑सि॒ त्वं तू॑र्य तरुष्य॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । इ॒न्द्र॒ । प्रऽतू॑र्तिषु । अ॒भि । विश्वाः॑ । अ॒सि॒ । स्पृधः॑ । अ॒श॒स्ति॒ऽहा । ज॒नि॒ता । वि॒श्व॒ऽतूः । अ॒सि॒ । त्वम् । तू॒र्य॒ । त॒रु॒ष्य॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमिन्द्र प्रतूर्तिष्वभि विश्वा असि स्पृध: । अशस्तिहा जनिता विश्वतूरसि त्वं तूर्य तरुष्यतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । इन्द्र । प्रऽतूर्तिषु । अभि । विश्वाः । असि । स्पृधः । अशस्तिऽहा । जनिता । विश्वऽतूः । असि । त्वम् । तूर्य । तरुष्यतः ॥ ८.९९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 99; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, O inspired soul, in the external conflicts of life and in the internal conflicts of mind, you are the superior over all assailants. You are the destroyer of evil and calumny, creator of goodness and eliminator of impediments. Pray drive off all evil thoughts and oppositions of life and mind.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    श्रवण, मनन, निदिध्यासनाद्वारे परमात्म्याच्या सामर्थ्याला आपल्या अंत:करणात अनुभव करणारा साधक त्याचा साक्षात्कार करतो, लाभ घेतो. परमात्म्याची प्रत्यक्ष अनुभूती त्याला सर्व दुर्भावनांपासून दूर ठेवण्यास व धीटपणे आक्रमण करणाऱ्या अकल्याणकारी भावनांना नष्ट करण्यास साह्य करते. ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) जगदीश! (त्वम्) आप (प्रतूर्तिषु) हमारे आध्यात्मिक संघर्षों में (विश्वा स्पृधः) आत्मा को कलुषित बनाने वाली सकल दुर्भावनाओं को (अभि असि) ललकारते हैं। आप (अशस्तिहा) अनिष्ट अभिलाषाओं को मिटा देते हैं और (जनिता) कल्याणकारी कामनाओं के प्रेरक हैं; (विश्वतूः असि) तथा विघ्नों को नष्ट करने वाले हैं। (त्वम्) आप (तरुष्यतः) आक्रान्ता [दुर्भावनाओं] को (तूर्य) शीघ्र नष्ट करें॥५॥

    भावार्थ

    श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन के द्वारा प्रभु का सामर्थ्य स्व अन्तःकरण में अनुभव करने वाला साधक उसकी प्रत्यक्षता से लाभान्वित होता है; प्रभु की प्रत्यक्ष अनुभूति उसे सकल दुर्भावनाओं को दूर रखने में तथा धृष्टता से आक्रमण कर ही देने वाली अनिष्ट भावनाओं को नष्ट करने में सहायता प्रदान करती है॥५॥

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    विषय

    राजा प्रजा के व्यवहारों के साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वम् ) तू ( प्रतूर्त्तिषु ) संग्रामों की ( विश्वाः वृधः ) सब स्पर्धालु पर-सेनाओं को ( अभि असि ) पराजित करने में समर्थ होता है। तू (अशस्ति-हा) निन्दकों का नाशक, (जनिता) सबका पितावत् जनक ( विश्वतूः असि ) सब शत्रुवर्ग का नाशक वा समस्त विश्व का चालक है। ( त्वं ) तू ( तरुष्यतः ) हिंसक, पीड़कों को ( तूर्य ) विनष्ट कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नृमेध ऋषि:॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराड् बृहती॥ २ बृहती। ३, ७ निचृद् बृहती। ५ पादनिचृद बृहती। ४, ६, ८ पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'अशस्तिहा - विश्वतूः ' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप प्रतूर्तिषु संग्रामों में (विश्वाः) = सब (स्पृधः) = स्पर्धाकारिणी शत्रु सेनाओं को (अभि असि) = अभिभूत करनेवाले हैं। [२] आप (अशस्तिहा) = इन शत्रुओं से की जानेवाली हिंसाओं के हन्ता हैं। (जनिता) = इन शत्रुओं की हिंसा को पैदा करनेवाले हैं शत्रुओं से हमें हिंसित नहीं होने देते। हमें शत्रुओं के हिंसन के योग्य बनाते हैं। (विश्वतूः असि) = सब शत्रुओं के हिंसन करनेवाले आप ही हैं। (त्वम्) = आप ही (तरुष्यतः) = हिंसन करनेवालों को (तूर्य) = विनष्ट करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही संग्रामों में हमारे शत्रुओं का पराभव करते हैं । सब हिंसकों का हिंसन प्रभु ही करते हैं।

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