ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
ऋषिः - मधुच्छन्दाः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
तमी॒मण्वी॑: सम॒र्य आ गृ॒भ्णन्ति॒ योष॑णो॒ दश॑ । स्वसा॑र॒: पार्ये॑ दि॒वि ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ई॒म् । अण्वीः॑ । स॒ऽम॒र्ये । आ । गृ॒भ्णन्ति॑ । योष॑णः । दश॑ । स्वसा॑रः । पार्ये॑ । दि॒वि ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमीमण्वी: समर्य आ गृभ्णन्ति योषणो दश । स्वसार: पार्ये दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । ईम् । अण्वीः । सऽमर्ये । आ । गृभ्णन्ति । योषणः । दश । स्वसारः । पार्ये । दिवि ॥ ९.१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(तम्) तं पुरुषम् (समर्ये) ज्ञानयज्ञे (आगृभ्णन्ति) सुष्ठु गृह्णन्ति (दश) दशसङ्ख्याकाः (स्वसारः) स्वयंगतिशीलाः (योषणः) वृत्तयो याः (अण्वीः) अतिसूक्ष्माः सन्ति। (पार्ये दिवि) प्रकाशरूपे ज्ञानभावे दश धर्मस्वरूपाणि तं प्राप्नुवन्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(तं) उस पुरुष को (समर्ये) ज्ञानयज्ञ में (आ) भली प्रकार (गृभ्णन्ति) ग्रहण करती हैं (दश) दश सख्यावाली (स्वसारः) स्वयंगतिशील (योषणः) वृत्तियें, जो (अण्वीः) अति सूक्ष्म हैं (पार्ये दिवि) प्रकाशरूप ज्ञान के भाव में दश धर्म्म के स्वरूप उसे आकर प्राप्त होते हैं ॥७॥
भावार्थ
जो पुरुष श्रद्धा के भावों से युक्त होता है, उसे धृति, क्षमा, दम, स्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध, ये धर्म्म के दश रूप आकर प्राप्त होते हैं। तात्पर्य्य यह है कि वेदशास्त्र और ईश्वर पर श्रद्धा रखनेवाले पुरुष को ही धार्मिक भाव आकर प्राप्त होते हैं, अन्य को नहीं ॥७॥
विषय
अण्वी तथा योषण: [दश]
पदार्थ
[१] (तम्) = उस सोम को (ईम्) = निश्चय से (अण्वीः) = सूक्ष्म बुद्धियाँ तथा (दश योषण:) = दसों इन्द्रियाँ (समर्ये) = [समर्यं संग्रामनाम नि० २ । १७] वासनाओं के साथ संग्राम में (आगृभ्णन्ति) = सर्वथा ग्रहण करती हैं। 'सोम का रक्षण बुद्धि व इन्द्रियों से होता है' इसका अभिप्राय यही है कि सोम का व्यय बुद्धि की दीप्ति व इन्द्रियों की शक्ति के वर्धन में होकर उसका अपव्यय नहीं होता । इन्द्रियों को यहाँ ‘योषण:' कहा है 'यु मिश्रणामिश्रणयोः ' बुराइयों को अपने से अलग करनेवाली तथा अच्छाइयों को अपने से मिलानेवाली ये इन्द्रियाँ सोम से ही शक्ति-सम्पन्न बनती हैं। [२] ये बुद्धियाँ व इन्द्रियाँ (स्वसारः) - आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाली होती हैं [स्व+सृ] तथा उस (दिवि) = ज्ञान प्रकाश में स्थित होती हैं जो कि (पार्टी) = हमें भवसागर से पार करने का साधन बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्वाध्याय के द्वारा बुद्धि को सूक्ष्म बनाने का प्रयत्न करें । इन्द्रियों को ज्ञान प्राप्ति व यज्ञों में व्यापृत रखें। इस प्रकार सोम का रक्षण करते हुए इस उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त करें, विषयों से ऊपर उठें और प्रभु को प्राप्त करें ।
विषय
सोम सेनापति, स्वसा सेना। अध्यात्म में, दश योषा दश इन्द्रियें। (
भावार्थ
(तम् ईम्) उसको (अण्वीः) प्राणधारिणी (दश योषणः) दसों दिशा की प्रेमयुक्त प्रजाएं (समर्ये) मनुष्यों से सहित राष्ट्र में (आ गृभ्णन्ति) उस अभिषिक्त को अपनाती हैं। और वे (स्वसारः) स्वयं उसको प्राप्त वा शत्रु को सुख से उखाड़ फेंकने में समर्थ सेनाएं (पार्ये दिवि) पालन करने योग्य, प्रकाश-तेज से युक्त पद पर स्थापित करती हैं। (२) अध्यात्म में—दश इन्द्रियें सूक्ष्म रूप होकर उस जीव को अपना रही हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथातः पावमानसौम्यं नवमं मण्डलम्॥ मधुच्छन्दा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:—१, २, ६ गायत्री। ३, ७– १० निचृद् गायत्री। ४, ५ विराड् गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That soma, sanctified by the dawn in the holy congregation of peaceful life yajna, ten fine and youthful sisterly senses and pranic energies receive and absorb for the achievement of the light of salvation.
मराठी (1)
भावार्थ
जो पुरुष श्रद्धायुक्त असतो त्याला धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य व अक्रोध ही धर्माची दहा रूपे प्राप्त होतात. तात्पर्य हे की वेदशास्त्र व ईश्वरावर श्रद्धा ठेवणाऱ्या पुरुषामध्येच धार्मिक भाव निर्माण होतात. इतरांच्या नव्हे. ॥७॥
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