ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 105/ मन्त्र 4
गोम॑न्न इन्दो॒ अश्व॑वत्सु॒तः सु॑दक्ष धन्व । शुचिं॑ ते॒ वर्ण॒मधि॒ गोषु॑ दीधरम् ॥
स्वर सहित पद पाठगोऽम॑त् । नः॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । अश्व॑ऽवत् । सु॒तः । सु॒ऽद॒क्ष॒ । ध॒न्व॒ । शुचि॑म् । ते॒ । वर्ण॑म् । अधि॑ । गोषु॑ । दी॒ध॒र॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
गोमन्न इन्दो अश्ववत्सुतः सुदक्ष धन्व । शुचिं ते वर्णमधि गोषु दीधरम् ॥
स्वर रहित पद पाठगोऽमत् । नः । इन्दो इति । अश्वऽवत् । सुतः । सुऽदक्ष । धन्व । शुचिम् । ते । वर्णम् । अधि । गोषु । दीधरम् ॥ ९.१०५.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 105; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (सुदक्ष) हे सर्वज्ञ ! (सुतः) भवान् सर्वत्राभिव्यक्तः ( नः) अस्मभ्यं (गोमत्) ज्ञानयुक्तं (अश्ववत्) क्रियायुक्तं च ऐश्वर्यम् (धन्व) उत्पादयतु येन (ते) तव (शुचिं, वर्णं) शुद्धस्वरूपं (अधिगोषु) मनोबुद्ध्यादिषु (दीधरं) धारयाम ॥४॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् (सुदक्ष) सर्वज्ञ (सुतः) आप सर्वत्र अभिव्यक्त हैं। (नः) हमको (गोमत्) ज्ञानयुक्त (अश्ववत्) क्रियायुक्त ऐश्वर्य्य को (धन्व) प्राप्त करायें, ताकि (ते) तुम्हारे (शुचिं वर्णम्) शुद्ध स्वरूप को (अधिगोषु) मन बुद्धि आदिकों में (दीधरम्) धारण करें ॥४॥
भावार्थ
जो लोग परमात्मा के शुद्धस्वरूप का ध्यान करते हैं, परमात्मा उनके ज्ञान को अपनी ज्योति से अवश्यमेव देदीप्यमान करता है ॥४॥
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1155
ओ३म् गो꣡म꣢न्न इन्दो꣣ अ꣡श्व꣢वत्सु꣣तः꣡ सु꣢दक्ष धनिव ।
शु꣡चिं꣢ च꣣ व꣢र्ण꣣म꣢धि꣣ गो꣡षु꣢ धारय ॥५७४॥
ओ३म् गो꣡म꣢न्न इन्दो꣣ अ꣡श्व꣢वत्सु꣣तः꣡ सु꣢दक्ष धनिव ।
शु꣡चिं꣢ च꣣ व꣢र्ण꣣म꣢धि꣣ गो꣡षु꣢ धारय ॥१६११॥
सामवेद 574, 1611
ओ३म् गोम॑न्न इन्दो॒ अश्व॑वत्सु॒तः सु॑दक्ष धन्व ।
शुचिं॑ ते॒ वर्ण॒मधि॒ गोषु॑ दीधरम् ॥
ऋग्वेद 9/105/4
हे प्यारे प्रभु ! स्वामी हो तुम
प्रमुदित प्राण के
इन्द्रियों के झरोखे हैं दृतदान के
रोम-रोम में ज्योति डेरा डाल चुकी है
शस्त शान से
अङ्ग अङ्ग रोमाञ्चित स्वरमय तान से
ग्वाले हो इस बाड़ के
कैसे प्रथक हो सकते हो
इन्द्रिय गायों अश्वों के
घुड़साल मालिक तुम हो
करो प्राण पे सवारी
बल-बान से
हे प्यारे प्रभु ! स्वामी हो तुम
प्रमुदित प्राण के
इन्द्रियों के झरोखे हैं दृतदान के
बल का दूजा नाम कल्याण है
जो है सुदत्त सौगात
प्राण प्रदत्त है वश में तुम्हारे
सख्य सौभाग्य की साख
हर श्वास में मन के तेरे नाम के
हे प्यारे प्रभु ! स्वामी हो तुम
प्रमुदित प्राण के
इन्द्रियों के झरोखे हैं दृतदान के
गायों अश्वों को लेकर जगत् की
कुशस्थली में घुमाओ
दूध झरी गायों में और
अश्वों में गति ले आओ
पवित राग रङ्गों का दान दे
हे प्यारे प्रभु ! स्वामी हो तुम
प्रमुदित प्राण के
इन्द्रियों के झरोखे हैं दृतदान के
रोम-रोम में ज्योति डेरा डाल चुकी है
शस्त शान से
अङ्ग अङ्ग रोमाञ्चित स्वरमय तान से
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :-- २९.१.२००९ २२.३५ रात्रि
राग :- पीलू
गायन समय दिन का तीसरा प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा
शीर्षक :- रंग वाला 🎧 वैदिक भजन ७३२वां
*तर्ज :- *
740-00141
गौ, गाय = हमारी इन्द्रियां
घुड़साल = प्राणों का अस्तबल (जहां हमारे जीवनदायी, बलवान प्राण हैं।
अश्व = प्राण(बल धारण किए हुए)
प्रमुदित = प्रसन्न
दृत-दान = सम्मानित दान
शस्त = उत्तम, कल्याणमय
बान = कान्ति,चमक
सुदत्त = अच्छी तरह दिया हुआ
साख = धाक, प्रमाण
पवित = पवित्र
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
रंग वाला
प्यारे अब तो तुम हमारे प्राणों के स्वामी हो चुके। तुमने हमारी इन्द्रियों को अपनी झांकी का झरोखा बना ही लिया। अब तो हमारे रोम रोम में तुम्हारा डेरा है, तुम्हारी ज्योति है, तुम्हारी मीठी मीठी आवाज है।
अब तुम हम से पृथक कैसे हो सकते हो?
इस बाड़े के ग्वाले तुम हो। इन्द्रिय रूपी गाय तुम्हारी है । इस घुड़साल के मालिक तुम हो। अब हमारे प्राण तुम्हारी सवारी है उसका तुम्हारे कहने से इनमें बल आता है, क्योंकि तुम बल स्वरूप हो । तुम्हारा बल कल्याण का दूसरा नाम है। तुम परम श्रेयस हो। हमारी इन्द्रियों पर तुम्हारा अधिकार हो जाए। हमारे प्राण तुम्हारे बस में हो,इससे अधिक सौभाग्य की और कौन सी बात हो सकती है। हमारा श्वास श्वास तुम्हारे नाम की माला हो जाए। हमारा अंग अंग तुम्हारी ज्योति का झरोखा हो जाए। यही परम कल्याण है। इसी को शास्त्र नि:श्रेयस कहता है। मेरी देह के देही तुम हो। तो लो प्रभु इन गायों और इन घोड़ों को लेकर संसार की कुशस्थली में घूम आओ । गायों से दूध झरे। घोड़ों में गति हो,वेग हो, वीरता हो। तुम्हारे पवित्र रंग में यह गाय और यह घोड़े रंगे हों। संसार में प्रभु प्रेम की वर्षा हो जाए। हमारी धर्म यात्रा तुम्हारे पवित्र प्रेम की विजय यात्रा हो।
विषय
गोमत्-अश्ववत्
पदार्थ
हे (सुदक्ष) = उत्तम विकास के साधनभूत (इन्दो) = सोम ! (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ तू (नः) = हमारे लिये (गोमत्) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियों वाले तथा (अश्ववत्) = उत्तम कर्मेन्द्रियों वाले धन को (धन्व) = प्राप्त करा । सोम इन इन्द्रियों को सशक्त बनाता है। हे सोम ! मैं (ते) = तेरे (शुचिम्) = दीप्त (वर्णम्) = आवरण को [covering] (गोषु) = ज्ञान की वाणियों के होने पर (अधि दीधरम्) = आधिक्येन धारण करता हूँ । सारे अतिरिक्त समय को स्वाध्याय में बिताता हुआ मैं सोम को शरीर में ही सुरक्षित कर पाता हूँ यह सुरक्षित सोम मेरे लिये वह आच्छादन बनाता है, जो कि मुझे रोगों का शिकार नहीं होने देता।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमारा यह आवरण बनता है, जो हमें रोगों से बचाकर शक्तिशाली इन्द्रियों वाला बनाता है ।
विषय
बल देता है, पक्षान्तर में शुद्ध राजा की स्थाप्ति।
भावार्थ
हे (इन्दो) तेजस्विन् ! (सुतः) अभिषिक्त राजा के तुल्य उपासित होकर तू (नः) हमें (गोमत् अश्ववत्) गौओं और अश्वों से सम्पन्न धन और शस्त्र बल, (धन्व) प्रदान कर। मैं (ते) तेरे (शुचिं वर्णम्) शुद्ध, कान्तिमय रूप को (गोषु अधि) वेदवाणियों के भीतर, उनके आश्रय (दीधरम्) अपने को धारण करूं। (२) वे राजा के शुद्ध वर्ण को भूमियों पर स्थापित करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषी पर्वतनारदौ॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, २ उष्णिक्। ३, ४, ६ निचृदुष्णिक्। ५ विराडुष्णिक्॥ षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, refulgent spirit of divine bliss and beauty, manifest every where and realised within, commanding universal power and perfection, pray set in motion for us the flow of wealth full of lands, cows, knowledge and culture, and of horses, movement, progress and achievement. I pray bless me that I may honour and worship your pure divine presence above all, above mind and senses and above the things mind and senses are involved with.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक परमेश्वराच्या शुद्ध स्वरूपाचे ध्यान करतात परमेश्वर त्यांचे ज्ञान आपल्या ज्योतीने अवश्य देदीप्यमान करतो. ॥४॥
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